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विपक्ष जमीनी हकीकत से दूर है उसे केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करना आता है

-अशोक भाटिया-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस वक्त किसी भी हिसाब से असुरक्षित नहीं। फिर भी, पिछले सात सालों में (सात साल पहले वह देश के प्रधानमंत्री बने थे) यह पहली बार है कि उनकी साख पर आंच आई है। विपक्ष की आलोचनाएं गहरी हुई हैं। लेकिन वह इसकी परवाह नहीं करते।प्रधानमंत्री मोदी जानते हैं कि विपक्ष से कैसे निपटना है। क्योंकि विपक्ष अब भी कमजोर है. बिखरा हुआ है। नेतृत्व के संकट से जूझ रहा है। उसके पास विकास और सुशासन का बेहतर विकल्प नहीं है। इसके अलावा प्रधानमंत्री इस बात से भी परेशान नहीं कि तटस्थ लोग उनसे नाखुश हैं। वह जानते हैं कि इन लोगों के मन में विपक्षी पार्टियों के लिए भी कोई प्यार नहीं है।
सर्वविदित है कि कोरोना काल में हम ऐसे मुश्किल दौर में गुजर रहे हैं जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में कोरोना की दूसरी लहर के विकराल रूप धारण करने पर अस्पतालों में दृश्य विचलित करने वाले रहे। बिस्तर, वेंटिलेटर, आक्सीजन और रेमडेसिविर जैसी दवाओं की कमी देखी गई। आक्सीजन की कमी से मरीजों की जान भी गई। लेकिन ऐसी स्थितियां तो जापान और अन्य विकसित देशों में भी देखी गई हैं। अब जबकि दूसरी लहर का प्रकोप कम हो रहा है तो अब स्थिति सामान्य होने की ओर अग्रसर है। इस दौरान कोरोना को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना का ऐसा वातावरण सृजित किया जा रहा है जिसमें विपक्ष की नकारात्मक मानसिकता माना जा सकता हैं। जहां तक लोगों की प्रतिक्रियाओं का संबंध है, उसकी मानसिकता किसी ‘भीड़तंत्र’ से अलग नहीं है। लोकतंत्र में विरोध या सरकार की आलोचना करने का अधिकार सबको है लेकिन विरोध की एक सीमा भी होती है और विपक्ष इस विरोध को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करे यह भी एक तरह से देश के साथ छल है, कपट है।
स्वतंत्र भारत का इतिहास बताता है कि जब-जब देश पर संकट आया सरकारें और विपक्ष एकजुट नजर आया। चाहे वह युद्ध काल हो या प्राकृतिक आपदाएं। राजनीतिक दलों ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम किया। युद्ध काल में तो हमेशा राजनीतिक दलों, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों ने सराहनीय काम किया। कांग्रेस से वैचारिक मतभेद होते हुए भी युद्ध काल और प्राकृतिक आपदाओं के दौरान विपक्ष में रहते हुए भी राजनीतिक दलों ने सरकार का साथ दिया। इसका बड़ा कारण राजनीति आदर्शों और सिद्धांतों पर चलती थी लेकिन राजनीति जिस तेजी से विद्रूप हुई, उससे राजनीति में आदर्शों, सिद्धांतों और विचारों का महत्व समाप्त हो गया। विचारधारा के स्तर पर राजनीति दल खोखलेपन का शिकार होते गए। राजनीतिक दलों के थिंकटैंक में अधकचरे लोगों का महत्व बढ़ता गया। पक्ष और विपक्ष की विचारधाराओं की अंतरक्रियाओं से ही लोकतंत्र चलता है। लोकतंत्र लोकलज्जा से चलता रहा है लेकिन आज लोकलज्जा और मर्यादाएं बची ही नहीं।
अब सवाल यह है कि क्या नरेन्द्र मोदी जी की जगह कोई और प्रधानमंत्री होता तो कोरोना महामारी किसी जादू की छड़ी घूमाते ही खत्म हो जाती? जहां तक प्रधानमंमत्री नरेन्द्र मोदी के कोरोना संघर्ष का सवाल है, पूरी दुनिया समेत देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि शुरू से लेकर अब तक कोरोना से संघर्ष करने में प्रधानमंत्री की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। आर्थिक चुनौतियों के बीच उन्होंने देश सम्भाले रखा है। उन्होंने देशवासियों के मनोबल को बनाए रखा और कोरोना से जूझ रहे फ्रंटलाइन वर्करों, डाक्टरों, नर्सों और अन्य नॉन मेडिकल स्टाफ और सफाई कर्मचारियों को सम्मान देकर उन्हें भरोसा दिलाया कि संकट की घड़ी में सरकार उनके साथ खड़ी है। यह भी सच है कि भारत में इतनी विकराल विपत्ति पहले नहीं आई। इस समय सबको राजनीतिक भेदभाव भुलाकर मिलजुल कर कोरोना का मुकाबला करने का है लेकिन विपक्षी दल आपदा में अपने लिए अवसर तलाश रहा है और प्रधानमंत्री पर तंज कसने में लगा हुआ है। कुछ नेता तो रोजाना प्रधानमंत्री को नसीहतें दे रहे हैं लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि कुछ दिन पहले उन्होंने क्या कहा था। कोरोना की दूसरी लहर के उछाल के कारण देश छलनी हो रहा था तो इनके हाथ में एक मुद्दा लग गया कि केन्द्र सरकार को पानी पी-पी कर कोसना। आरोप-प्रत्यारोपों का दौर जारी है, ऐसे-ऐसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ कि भाषा की मर्यादाएं टूट गईं। जिन लोगों से जुड़ी पार्टी स्वतंत्र भारत के इतिहास में लम्बे अर्से तक शासन में रही है, क्या उन्हें इस बात की समीक्षा नहीं करनी चाहिए कि उनके शासनकाल में स्वास्थ्य सैक्टर पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया। जो लोग केवल आलोचना कर रहे हैं उन्हें यह समझना होगा कि स्वास्थ्य का विषय पूर्णतः राज्य सूची में आता है। जिन राज्यों में ज्यादा संकट आया है, उन्हें देखना होगा कि उन्होंने अपने राज्य में बुनियादी स्वास्थ्य ढांचा स्थापित करने के लिए क्या किया। बिहार और अन्य राज्यों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अस्पतालों की जर्जर इमारतें भूत महल लगती हैं। गांवों की डिस्पैंसरियों पर ताले लगे हुए हैं। डाक्टरों और दवाइयों का अभाव है।
जहां तक सोशल मीडिया का सवाल है, वह एंटी सोशल तो पहले से ही था लेकिन अब वह एंटी सरकार नजर आ रहा है। टूलकिट जैसे शब्द लोकप्रिय हो चुके हैं। बेनामी वेब पेजों के जरिये भ्रामक सूचनाएं फैलाई जा रही हैं। सरकार के खिलाफ कब कोई हैशटेग वायरल हो जाए कुछ नहीं पता। क्योंकि किसी भी हैशटेग को वायरल करने के पीछे भी पूरी राजनीति से काम लिया जाता है। समाज भी अपने भीतर झांकना होगा। आक्सीजन, रेमडेसिविर और अन्य दवाओं की कालाबाजारी समाज में व्याप्त एक वर्ग ने ही की है। यह बेहद शर्मनाक है कि समाज का एक वर्ग आपदा में धन कमाने का अवसर मान बैठा है। विपक्ष नेतृत्वहीन और विचारहीन है। इस समय बड़े संकट का मुकाबला करने के लिए फालतू का ज्ञान बघारने से नहीं हो सकता बल्कि मिलकर काम करने से होगा। मोदी सरकार ने दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीनेशन अभियान चलाया। सीमित संसाधनों के बीच इतने बड़े देश में इतनी व्यवस्था करना आसान नहीं है। अब तो विदेशों से भी मदद मिल रही है। जहां तक वैक्सीन की कमी का सवाल है, वैक्सीन कोई हल्दी की गांठ तो है नहीं जिसे पीस कर पुड़िया बना ली जाए। वैक्सीन के लिए वैश्विक प्रक्रिया का पालन करना पड़ता है। नरेन्द्र मोदी की साख को कोई अंतर नहीं पड़ा है। तूफानों में कुछ बुलबुले जरूर उठते तो वह समय के साथ शांत हो जाएंगे। विपक्ष को सरकार का साथ देना चाहिए। फैसला जनता को करना है कि कौन सही है, कौन गलत।

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