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पंजाब को अस्थिर करने का कारण

-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

विधानसभा चुनाव से ठीक चार महीने पहले कांग्रेस ने पंजाब में अपनी सरकार को हिलाते हुए मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को फारिग कर दिया है। उनके स्थान पर चरनजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया गया है। वैसे तो कुछ राजनीतिक विश्लेषक और कांग्रेस के भीतर अपने आपको स्वयं ही चाणक्य मानने वाले भी इसे सोनिया परिवार के भाई-बहन की ओर से पंजाब की राजनीति में खेला गया तुरप का पत्ता बता रहे हैं। उनका कहना है कि एक दलित को मुख्यमंत्री बना कर राहुल और प्रियंका ने बाजी ही पलट दी है। पूरे देश में पंजाब में सबसे अधिक दलित हैं। बाकी राजनीतिक दल तो चुनाव के बाद किसी दलित को मुख्यमंत्री या उप-मुख्यमंत्री बनाने के वायदे कर रहे थे। सोनिया परिवार ने तो अपनी ही सरकार को अस्थिर करते हुए दलित को मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन पंजाब की राजनीति का यह ताजा अध्याय क्या इतना ही सरल है? सबसे पहले सोनिया परिवार ने नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना कर अपनी चाल चल दी। सिद्धू की असाइनमेंट ही कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को अपदस्थ करना था। सिद्धू अपने काम में जुट गए। आश्चर्य इस बात का था कि सोनिया परिवार सीमांत राज्य पंजाब को उस समय अस्थिर करने की योजना बना रहा था जब पाकिस्तान एक बार फिर पंजाब को आतंकवाद के दौर में धकेलने का पूरा प्रयास कर रहा था। हथियार भेजे जा रहे थे। नशों की खेप भेजी जा रही थी। टिफिन बम के प्रयोग किए जा रहे थे। इतना ही नहीं, पंजाब की सीमा से जम्मू-कश्मीर में हथियार ही नहीं, आतंकवादी भी स्मगल किए जा रहे थे। जिस सिद्धू को पंजाब की राजनीति के समरांगण में उतारा गया था, वे पंजाब सरकार के विरोध के बावजूद पाकिस्तान में जाकर इमरान खान और वहां के सेनाध्यक्ष की शान में कसीदे पढ़ कर आए थे। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह बार-बार इस बात के संकेत दे रहे थे कि यह समय पाकिस्तान की चालों को असफल करने का है, न कि पंजाब को राजनीतिक स्तर पर अस्थिर करके पाकिस्तान की सहायता करने का।

लेकिन सोनिया परिवार के पास इस संवेदनशील मुद्दे पर विचार करने के लिए न समय था और न ही जरूरत। वैसे यह आश्चर्य की बात नहीं थी। कांग्रेस के भीतर दरबारा सिंह और ज्ञानी जैल सिंह में वर्चस्व की लड़ाई के चलते और अकाली पार्टी को सबक़ सिखाने की इच्छा के कारण पाकिस्तान को पंजाब में आतंकवाद के बीज बोने में सहायता मिली थी जिसका श्राप सारा देश आज तक भोग रहा है। लगता है सोनिया परिवार की वर्तमान राजनीतिक चालों से वह अध्याय फिर से शुरू हो सकता है। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने प्रत्यक्ष-परोक्ष इस ख़तरे के संकेत भी दिए। लेकिन सोनिया परिवार के पास इन संकेतों को समझने-बूझने का न वक्त है न ही इच्छा। कैप्टन को अपमानित तरीके से अपदस्थ करने के बाद करना क्या है, इसकी कोई योजना सोनिया की संतान के पास नहीं थी, दावे चाहे जितने मजऱ्ी किए जाते रहें। यही कारण था कि सबसे पहले प्रदेश की कमान किसी अम्बिका सोनी को दिए जाने का प्रस्ताव आया। अम्बिका सोनी पंजाब की राजनीति की आकाश बेल है जिसे संजय गांधी के कार्यकाल में अनेक प्रदेशों में बोया गया था। इन आकाश बेलों की अपनी जड़ें स्थानीय राजनीति में नहीं होती। लेकिन सोनिया परिवार इसी आकाश बेल से सीमांत पंजाब की पाकिस्तान की आतंकवादी रणनीति से रक्षा करना चाह रहा था। सोनिया परिवार को आभास हो या न हो, लेकिन अम्बिका सोनी को तो पंजाब की जमीनी राजनीति में अपनी औक़ात का पता ही था। इसलिए बक़ौल सोनी उसने सम्मानपूर्वक इंकार कर दिया। लेकिन वे यहीं चुप हो जातीं तो शायद लाभकारी होता, लेकिन इंकार करने के बाद उन्होंने जो तीर चलाया उसने पंजाब के सामाजिक वातावरण को विषाक्त करना शुरू किया। उन्होंने अपने इंकार का कारण यह बताया कि पंजाब में कोई सिख ही मुख्यमंत्री बन सकता है। यह कहने की जरूरत सोनी ने शायद इसलिए महसूस की क्योंकि तब तक सुनील जाखड़ के नाम पर सहमति बन चुकी थी। जाखड़ को रोकने के लिए अम्बिका जी ने हिंदू-सिख का प्रश्न उछाल दिया।

अम्बिका सोनी का सिख से अभिप्राय शायद जट्ट समुदाय के व्यक्ति से ही था। सुनील जाखड़ भी तो जट्ट/जाट समुदाय से ही ताल्लुक रखते हैं। अम्बिका सोनी की शर्त दोहरी थी, जट्ट भी हो और सिख भी हो। सुनील जाखड़ पहली शर्त तो पूरी करते थे, लेकिन दूसरी में फेल होते थे। सोनिया परिवार जब पंजाब के वातावरण को सामाजिक स्तर पर विषाक्त कर रहा था तो बहुत ही मैच्योर बात अकाल तख्त के जत्थेदार डा. हरप्रीत सिंह ने कही कि मुख्यमंत्री के पद के लिए चुने जाना वाला व्यक्ति अच्छा होना चाहिए, हिंदू या सिख होना सैकंडरी है। सोनिया परिवार तो कैप्टन को अपदस्थ करने के बाद अंधेरे में टक्करें मार रहा था। जट्ट समुदाय की बात आई तो नवजोत सिंह सिद्धू और सुखजिंदर सिंह रंधावा के नाम पर मामला सिमट आया। सिद्धू को लेकर कैप्टन अमरेन्द्र सिंह ने उसके पाकिस्तान के हुकुमरानों के साथ संबंधों को लेकर प्रश्न खड़ा कर दिया। कैप्टन फौज में रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे देश की सुरक्षा के प्रश्न पर सोनिया परिवार से अपने संबंधों की बलि भी चढ़ा सकते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के इस प्रश्न पर सोनिया परिवार चाह कर भी सिद्धू के पक्ष में नहीं आ सकता था। इस प्रकार सिद्धू रणक्षेत्र से बाहर हो गए और फिर रिंग में एकमात्र जट्ट सुखजिंदर सिंह रंधावा ही बचे थे। सोनिया परिवार ने उसी का राजतिलक करने का निर्णय कर लिया। ढोल-नगाड़े बजने लगे। लेकिन अब बारी नवजोत सिंह सिद्धू की थी। उनका तर्क तो साफ और सीधा था। जब जट्ट ही मुख्यमंत्री बन सकता है तो पंजाब में सिद्धू के सिवा दूसरा जट्ट कैसे आ सकता है? सोनिया परिवार को अपने पास केवल एक ही जट्ट रखना होगा और वह सिद्धू के सिवा कोई नहीं हो सकता। लेकिन यह दूसरा जट्ट रंधावा था। अब सोनिया परिवार के पास सब विकल्प समाप्त हो गए थे। सिद्धू को राष्ट्रीय सुरक्षा के चलते मुख्यमंत्री बनाया नहीं जा सकता था और रंधावा को सिद्धू के चलते अपनाया नहीं जा सकता था। विकल्पहीनता की इस स्थिति में पास खड़े चन्नी का राजतिलक करने के सिवा कोई चारा नहीं था। जब चन्नी का राजतिलक हो गया तब निर्णय हुआ कि मजबूरी को दलित प्रेम कह कर प्रचारित किया जा सकता है। वैसा ही अब हो रहा है। लेकिन सोनिया परिवार की इस बेचारगी से चन्नी भी वाकिफ हैं। परंतु सोनिया परिवार को इस प्रश्न का उत्तर तो देना ही होगा कि पाकिस्तान-चीन और तालिबान के गठबंधन के काल में पंजाब को अस्थिर करके यह परिवार क्या हासिल करना चाहता है?

 

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