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नीमच ब्रिगेड: जिसने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए

-धनश्याम सक्सेना-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

क्या 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में मध्यप्रदेश का निर्णायक योगदान था? क्या अंग्रेजों के छक्के छुड़ा देने वाली नीमच ब्रिगेड की जय-यात्रा ठेठ दिल्ली तक पहुंच गई थी? क्या जॉन निकल्सन जैसे ब्रिटिश जनरल को नीमच ब्रिगेड के गोले ने मर्मांतक घाव पहुँचाकर निपटा दिया था? और क्या नीमच ब्रिगेड के प्रबुद्ध सेनापति सिरधारी सिंह ने बरेली की विद्रोही सेना के सिपहसालार बख्त खान और नसीराबाद-फौज के सेनापति भगीरथ मिश्रा के साथ मिलकर बहादुरशाह जफर की ‘सूफी हुकूमत’ को ‘संवैधानिक राजतंत्र’ (कंस्टीट्यूशनल मोनार्की) में बदलने की भावभूमि तैयार कर दी थी? ये कुछ बुनियादी सवाल हैं जिन पर शोध-प्रयासों को केन्द्रित किए बगैर 1857 के स्वाधीनता संग्राम में मध्यप्रदेश का निर्णायक योगदान अपेक्षाकृत अल्पज्ञात ही रहेगा। नीमच ब्रिगेड का योगदान 1857 को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचा सकता था, बशर्ते दिल्ली में कुछ आंतरिक तत्व गद्दारी न करते।

ग्यारह मई, 1857 को स्वाधीनता के दीवानों ने देश को पराधीन बनाने वाली कंपनी सरकार और उनके ब्रिटिश कारिन्दों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति का बिगुल बजाया। इसके ठीक तीन हफ्ते बाद नीमच में स्थित समूची फौजी ब्रिगेड ने अंग्रेजों के प्रति विद्रोह का ऐलान कर दिया। नीमच, ब्रिटिश फौजी ताकत का एक प्रमुख केन्द्र था, जहाँ से पश्चिमी और मध्यभारत में अंग्रेजों की राजनीतिक सत्ता का वर्चस्व सुनिश्चित किया जाता था। यहाँ एक विशाल फौजी छावनी थी, जिसे नीमच ब्रिगेड कहा जाता था। तीन जून को इस समूची ब्रिगेड ने स्वयं को कम्पनी सरकार के प्रति वफादारी की शपथ से मुक्त करके अंग्रेजों को भारत से बाहर खदेड़कर देश को आजाद करने का बीड़ा उठाया।

यह ब्रिगेड कितनी विशाल थी और 1857 के स्वाधीनता संग्राम में इसका क्या महत्व था, इसका पता शायद कभी न चलता यदि आर. जी. विलबर फोर्स ने सन् 1894 में लंदन में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘अनरिकार्डेड चेप्टर ऑफ इंडियन म्यूटिनी’ में इसका विस्तृत उल्लेख न किया होता। विलबर फोर्स लिखते हैंः ‘नीमच ब्रिगेड हजारों सैनिकों, दस फील्ड तोपों और तीन मोर्टारों सहित दिल्ली पहुँच गई और रिज स्थित हमारी छावनी पर उसने भीषण हमला बोला।’ चिंतनीय है कि स्वयं ब्रिटिश लेखकों ने 1857 के इन अपेक्षाकृत अल्पज्ञात अध्यायों पर जितना गहन शोध किया है उतनी खोजबीन स्वयं स्वदेशी इतिहासज्ञों ने शायद ही किया हो।

एरिक स्टोक्स ने सन् 1895 में आक्सफोर्ड से प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘द पीजेन्ट आर्मडः द इंडियन रिकोल्ट ऑफ 1857’ में तीन रहस्योद्घाटन किए। “(1) नीमच-ब्रिगेड का दिल्ली की ओर कूच करना अंग्रेजों के लिए इतना बड़ा संकट था कि उसे रोकने के लिए जून के प्रथम सप्ताह में कंपनी सरकार ने चीन की ओर एक महत्वपूर्ण सैनिक अभियान पर रवाना हो चुकी फौज को रोककर उसे नीमच ब्रिगेड को तहस-नहस करने का आदेश दिया ताकि वह दिल्ली न पहुँच सके। इस सैन्य समूह को बम्बई में इकट्ठा करके कर्नल वुडबर्न की कमान में रवाना किया गया, लेकिन ये विशाल सेना भी नीमच ब्रिगेड को न रोक सकी और वह दिल्ली जा पहुँची। (2) यद्यपि इस फौज के देशभक्त लड़ाके जो पेशे से किसान थे, अपने प्राण न्यौछावर करने को तत्पर थे, लेकिन दिल्ली पहुँचने के दो माह बाद इन्हें वेतन तो छोड़ो रसद मिलना भी बंद हो गई।

जन. सिरधारी सिंह और ब्रिगेड मेजर हीरासिंह ने बहादुर शाह जफर के हुजूर में वेतन या रसद के लिए बाकायदा अर्जी लगाई, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला। अंग्रेजों के जासूस तुराब अली ने 750 सवारों और 600 फौजियों को घर वापस भिजवा दिया। (3) लक्ष्मीचंद जैसे बड़े महाजनों ने उधारी देने से इंकार कर दिया। इसका मुख्य कारण यह था कि बंगाल में अंग्रेजों के अभ्युदय के प्रारंभिक वर्षों में ही स्थानीय महाजनों, भूपतियों ने अंग्रेजों से हाथ मिला लिया था। स्वाधीनता सैनिक भूखे मर रहे थे, जबकि पीक-एंड एलेन नामक ब्रिटिश कंपनी और जहाँगीर कवास जी नामक पारसी व्यापारी मात्र पंद्रह रुपये दर्जन के भाव पर अंग्रेजी फौज को सर्वोत्तम शराब की सप्लाय कर रहे थे। स्वदेशी स्वाधीनता सेनानी मुख्यतः किसान और निचले तबके के लोग थे, जबकि निहित स्वार्थों के कारण साहूकार भूमिपति वर्ग दरपरदा अंग्रेजों से मिला था। खेद और आश्चर्य का विषय है कि हिन्दुस्तान के सर्वाधिक धनी शहर दिल्ली के महाजनों ने अपने ही लोगों की मदद करने से मुँह मोड़ लिया।”

नीमच ब्रिगेड को दिल्ली में डटकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाते हुए दो मास बीत चुके थे। अगस्त में इसके अफसरों ने पुनः बहादुर शाह जफर से दरख्वास्त की कि कई दिनों से भूखे प्यासे लड़ाकों से जंग की उम्मीद कैसे की जा सकती है। इसे कायरता या हुक्म-उदूली न समझें। ‘अगस्त और सितंबर में नीमच ब्रिगेड ने ग्वालियर, नसीराबाद और बरेली के सिपाहियों की मदद से अंग्रेजों को भारी क्षति पहुँचाई। निकल्सन, हडसन और रीड जैसे विख्यात जनरलों ने लिखा कि उन्होंने ‘योरपीय इन्फेंट्री की इतनी दुर्दशा पहले कभी नहीं देखी। अंग्रेजी फौज के लगभग दो हजार लोग मारे गये थे, लेकिन 23 अगस्त को नीमच ब्रिगेड को एक ऐसी खबर मिली जो हैरानी में डालने वाली थी। हरियाणा रेजिमेंट के गौरीशंकर सुकुल ने खबर दी कि इलाहीबख्श ने रिज पर स्थित अंग्रेज छावनी को गुप्त संदेश भेजा है कि नीमच ब्रिगेड को तब तक हमला नहीं करने दिया जाएगा जब तक कि अंग्रेजी फौज की नई कुमुक वहाँ नहीं पहुँच जाती। दूसरे दिन के भीषण युद्ध में नीमच ब्रिगेड के 470 सैनिक शहीद हो गये।

इन लोगों ने फिर भी अपना मनोबल बनाए रखा और एक पखवाड़े तक डटकर लोहा लिया। चैबीस अगस्त की लड़ाई में जन. निकल्सन ने इन्हें बहुत नुकसान पहुँचाया था, लेकिन 13 सितंबर को नीमच ब्रिगेड ने पुनः संगठित होकर अपना बदला ले लिया। लाहोरी गेट की लड़ाई में निकल्सन की फौज डगमगा गई। ‘वह अपनी फौज का हौसला बढ़ाने के लिए, स्याह घोड़े पर सवार होकर नंगी तलवार हाथ में लेकर आगे बढ़ा, तभी नीमच ब्रिगेड का एक गोला उसकी छाती में लगा। उसे एक डोली में लिटाकर काबुल गेट ले जाया गया ताकि रिज के अस्पताल में इलाज हो सके। मगर डोली बरदार डोली छोड़कर भाग गए, वहाँ से फ्रेड राबर्टसन नामक अफसर निकले। उन्होंने निकल्सन को पहचाना जो औंधा पड़ा कराह रहा था। निकल्सन की मौत तो एक माह बाद हुई, लेकिन नीमच ब्रिगेड ने अंग्रेजों के एक बड़े जनरल को मार गिराया था। विलियम डेल रिम्पल ने अपनी किताब ‘द लास्ट मुगल’ में लिखा है। इस पुस्तक में पृष्ठ क्रमांक 309 से 377 तक ग्यारह बार इस ब्रिगेड की अद्भुत वीरता का उल्लेख किया गया है।

अमरेश मिश्र ने अपनी दो हजार पृष्ठों की दो जिल्दवाली किताब वार ऑफ सिक्लाइजेशंस में उस चार्टर का जिक्र किया है जो नीमच ब्रिगेड की प्रेरणा से बहादुर शाह जफर ने जारी करके, उसमें अपनी सूफी हुकूमत को संवैधानिक राजतंत्र का दर्जा देने के लिए भूमिहीनों को भूमि और दस्तकारों को पूँजी जुटाने की घोषणा की थी। यह तो योरप में 14 साल बाद 1871 में आयोजित पेरिस कम्यून की घोषणा की अग्रिम भूमिका लगती थी। इस थीसिस ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम और उसमें नीमच ब्रिगेड के निर्णायक योगदान को सर्वथा नये अर्थ संदर्भ दिए हैं।

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