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लाल किले में हुई हिंसा का सच

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

पंजाब में चल रहे किसान आंदोलन के दरमियान कुछ लोगों ने यह घोषणा की थी कि वे 26 जनवरी 2021 को लाल किले में जाकर आंदोलन का झंडा फहराएंगे। कनाडा-अमेरिका के कुछ अलगाववादी समूहों ने उनको ईनाम देने की घोषणा भी की जो लाल किले पर उनका झंडा फहराएंगे। किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रही अनेक जत्थेबंदियों ने स्पष्ट कहा कि वे लाल किले पर झंडा फहराने के पक्ष में नहीं हैं। जो लोग इस काम में लगे हुए हैं, उनका किसान आंदोलन से कोई ताल्लुक नहीं है। तब आम लोगों ने समझा था कि लाल किले पर इस किस्म की घटना नहीं हो सकती, क्योंकि किसान आंदोलन के नेतृत्व ने इससे अपना नाता नहीं रखा। इतना ही नहीं इसकी स्पष्ट घोषणा भी की। लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि इस घोषणा के बाद भी यह विवाद शांत नहीं हुआ। एक धारणा तो यह थी कि उग्र तत्वों पर किसान आंदोलन के नेताओं का कोई नियंत्रण ही नहीं है। इसके विपरीत उग्र तत्व किसान आंदोलन के नेताओं को दिशा-निर्देश देते हैं और आंदोलन नेतृत्व उसका अक्षरशः पालन करता है। दूसरी धारणा थी कि देश-विदेश के कुछ संगठन इस लाल किला ग्रुप के पीछे हैं।

किसान आंदोलन का नेतृत्व चाहे इसका समर्थन करे चाहे विरोध करे, इससे कुछ फर्क पड़ने वाला नहीं है। लाल किला ग्रुप अपना काम करके ही रहेगा। लेकिन पर्दे के पीछे के संगठन या समूह कौन से हैं, इस पर आज तक मतैक्य नहीं हो सका है। लाल किले पर जो हुआ, उसे यहां दोहराने की जरूरत नहीं है। जो ग्रुप वहां हुड़दंग मचा रहा था, उसे लगता होगा कि यकीनन पुलिस गोली चला देगी, जिससे कुछ लोग मारे जाएंगे। राजनीतिज्ञों व अलगाववादियों को अपने षड्यंत्र में सफल होने के लिए कुछ लाशों की जरूरत होती है। उन पर वे लंबे समय तक अपनी रोटियां सेंकते हैं। लेकिन किले में पुलिस ख़ुद ‘लाल किला ग्रुप’ की हिंसा का शिकार हो गई, पर उसने इस ग्रुप को लाशें नहीं दीं। ग्रुप लाल किले में हुड़दंग तो मचा पाया, लेकिन इस षड्यंत्र को आधार बना कर अपनी आगे की रणनीति में कामयाब नहीं हो पाया। मुकद्दमे दर्ज हुए। जांच हो रही है। लेकिन अब पंजाब में विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं। दो महीने ही बचे हैं। इसलिए लाल किला ग्रुप के कारनामों से जो संगठन लाभ लेना चाहता था, वह ज्यादा देर छिप कर नहीं बैठ सकता था। बिल्ली को थैले से बाहर आना ही था। लेकिन थैले से बाहर आने का एक ख़तरा भी था। आम लोगों को पता चल जाता कि लाल किला ग्रुप के पीछे कौन था? इस रहस्य के उद्घाटित होने का ख़तरा तो था ही। उधर चुनाव इतने नजदीक और इधर थैली से बाहर आने से छवि खंडित होने का ख़तरा। परंतु अब निर्णय तो करना ही था क्योंकि चुनाव को महज दो महीने बचे थे। अंततः निर्णय प्रकट होने के पक्ष में ही हुआ। पंजाब की कांग्रेस सरकार ने सार्वजनिक रूप से घोषणा कर ही दी कि लाल किला ग्रुप के एक्शन में फंसे हुए व्यक्तियों को दो-दो लाख रुपए की सहायता पंजाब सरकार के बजट में से दी जाएगी।

यह कुछ-कुछ उसी प्रकार का निर्णय है जिस प्रकार कभी जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के कुलपति ने निर्णय किया था कि आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्तता के कारण दंड प्रक्रिया से गुजर रहे विश्वविद्यालयी छात्रों को मुक़द्दमा लड़ने के लिए पैसा विश्वविद्यालय देगा। पंजाब सरकार के इस निर्णय से यह संकेत तो मिलता ही है कि लाल किला ग्रुप के एक्शन प्लान से पंजाब कांग्रेस किसी न किसी प्रकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संबंधित रही होगी। लाल किला ग्रुप के एक्शन साधारण नहीं थे। वे पूरे विश्व के सामने देश को अपमानित करने वाले एक्शन थे। वह क्षणिक उत्तेजना में किया गया कार्य भी नहीं था। उसके लिए पूरी योजना बनाई गई लगती थी। इस योजना को उस समय क्रियान्वित किया गया जब पूरे विश्व की निगाहें इंडिया गेट पर हो रही भारतीय सेना की परेड पर लगी होती हैं। लाल किले पर हो रही घटनाओं का पूरे विश्व में प्रदर्शन किया जा रहा था। कहीं तो लाईव ही दिखाया जा रहा था। लेकिन यह सब कुछ उस पूरे षड्यंत्र का प्रथम भाग था। उसका दूसरा भाग अब कांग्रेस सरकार ने आधिकारिक तौर पर दिखाया है। लाल किला ग्रुप के एक्शनकारियों को दो-दो लाख की सहायता राशि उस दूसरे भाग का पहला हिस्सा है। हो सकता है कुछ समय बाद इसका दूसरा हिस्सा भी सार्वजनिक किया जाए। वह हिस्सा एक्शनकारियों में से कुछ को विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस पार्टी का टिकट देना भी हो सकता है। सभी के ध्यान में ही है कि जब दो लोगों ने इंदिरा गांधी की गिरफ़्तारी के विरोध में भारत के एक विमान का अपहरण कर लिया था, बाद में कांग्रेस ने उनको विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए पार्टी टिकट देकर सम्मानित व उत्साहित किया था। वैसे तो पंजाब में शुरू से ही लोगों को शक था कि किसान आंदोलन के नाम से चलाए जा रहे अभियान के पीछे कांग्रेस का ही हाथ था।

प्रजातंत्र में हर राजनीतिक दल को सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाने का अधिकार है। इस पर किसी को एतराज भी नहीं होना चाहिए। विरोध में मत लोकतंत्र का प्राण है। लेकिन किसी भी राजनीतिक दल को आंदोलन के नाम पर लाल किला एक्शन का अधिकार नहीं है। ऐसा एक्शन जो शुद्ध रूप से गुंडागर्दी व हिंसा पर ही आधारित हो। लेकिन पंजाब में चुनाव आ गए हैं। इसलिए कांग्रेस को लगता होगा कि इन एक्शनकारियों को केवल महिमा मंडित करने भर से काम नहीं चलने वाला। उसके लिए नक़द पैसा देना होगा, तभी बात आगे बढ़ेगी। ये दो-दो लाख रुपए देना इसी रणनीति का हिस्सा है। यह रणनीति सचमुच प्रशासन के लिए महंगी पड़ सकती है। लेकिन कांग्रेस को इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। उसे तो येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतना है। लाल किला भारत के सम्मान का सूचक है। उस पर आंच देश की एकता और अखंडता पर आंच मानी जाती है। अतः लाल किले में हुई हिंसा को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। एक समय कांग्रेस के सबसे बड़े नेता रहे महात्मा गांधी किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ रहे हैं। अतः उनकी प्रतिनिधि पार्टी अगर लाल किले में हुई हिंसा को उचित ठहराने लगे, तो पार्टी पर सवाल उठना स्वाभाविक है। भारतीय सुरक्षा बलों को बधाई दी जानी चाहिए कि उनकी वजह से आंदोलनकारियों पर हिंसा नहीं हुई।

 

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