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आंदोलन बनाम किसान-सत्ता का घमासान!

-सज्जाद हैदर-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

अब किसान आंदोलन समाप्त होना निश्चित है। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी ने कानून वापस लेने की घोषणा कर दी आने वाले सत्र में जिस पर मोहर भी लग जाएगी। देश में खुशी का माहौल है। खुशी का माहौल होना भी स्वाभाविक है। क्योंकि राजनीति में पक्ष और विपक्ष दोनों का होना जरूरी होता है। और ऐसा होता भी है क्योंकि बिना विपक्ष के सत्ता पक्ष निश्चित ही बेलगाम हो जाएगा। पक्ष के कार्यों पर विपक्ष उंगलियां उठाता है तथा अपनी कसौटी पर सरकार के द्वारा लिए गए फैसलों की आलोचना करते हुए उन्हें जन विरोधी साबित करने का पैतरा अपनाता है। राजनीति के क्षेत्र में पक्ष और विपक्ष दोनों का अपना-अपना कार्य है।

किसान कानून बिल वापसी की घोषणा होते ही विपक्षी पार्टियों की वैचारिक जीत हुई जिसे सभी विपक्षी पार्टियाँ अपने-अपने अनुसार गढ़ने का प्रयास कर रही हैं। साथ ही किसानों के प्रति सहानुभूति दिखाकर किसानों को अपने साथ जोड़ने का प्रयास करती हुई दिखाई दे रही हैं। विपक्षी पार्टियों को अवसर भी बैठे बैठाए मिल गया जिसे नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि सरकार अगर बिल न लाती तो किसान आंदोलनरत न होते जब किसान आंदोलनरत न होते तो विपक्ष को यह मुद्दा न मिलता। परन्तु यह राजनीति का रूप है यह तो चलता रहेगा। परन्तु विरोध का मुख्य कारण और भी घातक है क्योंकि भाजपा के कुछ नेताओं के द्वारा गैर जिम्मेदाराना रवैया जिस प्रकार से अपनाया गया वह बहुत ही चिंताजनक है। कुछ नेताओं के द्वारा जिस प्रकार से मुँह खोला गया वह जगजाहिर है। किसानों को कभी खालिस्तानी तो कभी आंदोलन जीवी कहा गया। लाल किले पर हुए अमर्यादित उपद्रव को भी देश ने देखा जिसका दृश्य अत्यंत दुखद है। भले ही इसके पीछे कोई भी व्यक्ति अथवा रूप हो परन्तु लालकिला हमारी राष्ट्रीय धरोहर है। इसका हृदय की आंतरिम आत्मा से सदैव सम्मान करना चाहिए। न कि देश के गौरव एवं मान-सम्मान के प्रतीक का इस तरह राजनीतिक दुष्प्रयोग। इस प्रकार का राजनीतिक दुरुपयोग किया जाना अत्यन्त घिनौना कार्य है। ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए। सियासत, सत्ता, राजनीति होती रहेगी। आंदोलन भी सत्ता का ही एक हिस्सा है। जब सरकार बनेगी, फैसले लेगी तो सहयोग तथा विरोध दोनों होते रहेंगे। हमें राष्ट्र के गौरव को प्रथमिकता देनी चाहिए। राजनीति के भी मानक तय होने चाहिए।

परन्तु किसान बिल वापसी पर जहाँ विपक्ष ढ़ोल-नगाड़े बजा रहा है। सरकार की नीति को फेल होने की बात विपक्ष कह रहा है। विपक्ष की खुशी यह ज्यादा दिन टिकने वाली नहीं है। विपक्ष को यह समझ लेना चाहिए कि सरकार ने किस उद्देश्य को पूरा करने के लिए यह कार्य किया है। सरकार के द्वारा उठाए गए कदम को समझने की जरूरत है। किसी भी क्षेत्र में बुद्धिजीवियों के द्वारा अधिक उत्सुकता हानिकारक साबित हो सकती है। मैं अपने अनुभव तथा समझ के अनुसार स्पष्ट कर दूँ कि सरकार के द्वारा उठाया गया यह कदम एक तीर से कई निशाने को साधता हुआ दिखाई दे रहा है। जिसके परिणाम भविष्य में धरातल पर एक के बाद एक दिखाई देंगे।

राजनीति में जहाँ तक मेरी समझ है तो मेरी समझ के अनुसार सरकार ने बिल वासपी का फैसला लेकर उत्तर प्रदेश के चुनाव में विपक्षी पार्टियों के हाथ से मुद्दा छीन लिया। यह अलग बात है कि बिल भाजपा सरकार के द्वारा ही लाया गया और भाजपा सरकार ने ही बिल को वापस लिया जिससे नीति पर प्रश्न चिन्ह विपक्ष लगा सकता है। विपक्ष के द्वारा नीति पर प्रश्न चिन्ह उठाकर उसे चुनावी मुद्दा बनाना स्वाभाविक है। विपक्ष बिलकुल यह कह सकता है कि सरकार ने चुनाव में हार के डर से अपने कदमों को पीछे खीच लिया। परन्तु यह भी सत्य है कि सरकार के द्वारा उठाए गए कदम से भाजपा का वोट बैंक अब बिखरने से बच सकता है। खास करके स्वयं भाजपा पार्टी के अंदर भी इस बिल को लेकर दबी जुबन में एक स्वर उठ रहा था निश्चित ही अब उस पर भी पूर्ण विराम लग गया। अब उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा मजबूती के साथ जाएगी। ऐसा निश्चित है।

इस बिल के वापसी को लेकर भाजपा का निकट भविष्य में सबसे बड़ा दाँव यह होने जा रहा है। जिसका मुख्य टारगेट पंजाब चुनाव में दिखाई देगा। पंजाब के चुनाव को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने एक बड़ा फैसला लिया है। भापजा कांग्रेस के हाथ से पंजाब को मुक्ति दिलाकर कमल खिलाना चाह रही है। जिसमें सिख समुदाय मुख्य भूमिका में है। बिना बिल वापसी के सिखों को अपने साथ जोड़ा नहीं जा सकता साथ ही नए गठबंधन के रूप में अगर पंजाब में भाजपा को प्रवेश करना है। तो सिख समुदाय को साथ लेकर चलना पंजाब की सियासत में बहुत ही आवश्यक है बिना सिख समुदाय के पंजाब में कमल खिला पाना भापजा के लिए पूरी तरह से नामुमकिन है। इसलिए देश के प्रधानमंत्री ने सही टाईमिंग की प्रतीक्षा की। टाईमिंग के अनुसार आने वाले समय का इंतेजार किया। सिख समुदाय के सबसे बड़े दिन प्रकाश पर्व के दिन यह घोषणा की जिससे के संदेश पूरी तरह से सही टाईमिंग के साथ सही जगह तक पहुँच जाए। निश्चित प्रधानमंत्री के द्वारा प्रयोग की गई हुई टाईमिंग पूरी तरह से साफ एवं स्पष्ट है जिसे समझने की आवश्यकता है। इसलिए विपक्ष को हो हल्ला करने के साथ-साथ बुद्धि का भी प्रयोग करना चाहिए अन्यथा उत्तर प्रदेश तथा पंजाब के चुनाव में विपक्ष की रणनीति फेल होना तय है। क्योंकि अधिक उत्साह एवं जोश अधिक दिन टिकने वाले नहीं होते।

नाराज पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी अलग लाईन खींच ली है। जिसमें कैप्टन तथा भाजपा की अपनी जरूरत एवं सियासी हित सामने हैं। कैप्टन अकेले दम पर कांग्रेस को पंजाब की सत्ता से पूरी तरह से बेदखल नहीं कर सकते क्योंकि कैप्टल कांग्रेस से निकलकर आए हैं। तो कैप्टन जो भी सियासी सेंधमारी करेंगे वह सेंधमारी कांग्रेस पार्टी में कर पाएंगे। अगर भाजपा की बात की जाए तो भाजपा भी अकाली के साथ जाकर पंजाब में अपनी किस्मत आजमा चुकी है। इसलिए भाजपा को भी पंजाब में अमरेन्दर सिंह के रूप में एक बड़ा चेहरा मिलता हुआ दिखाई दे रहा है। जोकि पंजाब के चुनाव में सबसे बड़ा टर्निंग प्वाईन्ट हो सकता है। जिसके कई रूप हैं एक बिन्दु तो यह कि कैप्टन सरदार बिरादरी से आते हैं। दूसरा यह कि कैप्टन भाजपा का मुख्य मुद्दा राष्ट्रवाद की गणित पर फिट बैठते हैं। तीसरा सबसे बड़ा मुद्दा यह कि कैप्टन एक बड़ा चेहरा हैं जिनकी छवि पंजाब में एक धाकड़ मुख्यमंत्री के रूप में है। चैथा सबसे बड़ा टर्निगं प्वाइंट यह है कि कैप्टन मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस से आते हैं। जोकि पंजाब की मौजूदा सरकार में है। इसलिए कैप्टन भाजपा के लिए प्रत्येक बिंदु पर पूरी तरह से फिट बैठते हुए दिखाई दे रहे हैं। अमरेन्दर पंजाब के सियासी वातावरण में भाजपा के लिए पूरी तरह से फिट बैठेंगे।

अवगत करा दें कि जिस दिन कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि वह कांग्रेस छोड़ रहे हैं लेकिन भाजपा में शामिल नहीं होंगे, उसी दिन यह संकेत मिल गया था कि अब कृषि कानूनों पर मोदी सरकार का पुनर्विचार करना स्वाभाविक है। कैप्टन अमरिंदर सिंह के पंजाब का मुख्यमंत्री रहते हुए खुद भाजपा ने उन पर आरोप लगाया था कि दिल्ली की सीमाओं पर पंजाब के किसानों को भेजने के पीछे कैप्टन ही हैं। इसलिए भाजपा के कृषि कानूनों की वापसी के पीछे कैप्टन को अगर खुल कर श्रेय दिया जाए तो हैरानी नहीं होगी। इसी मुद्दे पर बीजेपी से अलग हुए अकाली दल के लिए भी अब भाजपा के साथ वापस आने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी, खासतौर से चुनाव के बाद जरूरत पड़ने पर भाजपा अकाली दल के साथ भी आसानी से पुनः जा सकती है। क्योंकि सियासत में कोई न दुश्मन होता है और न ही कोई दोस्त। सियासत में सारा खेल समीकरण पर ही निर्भर करता है। इसलिए भाजपा कैप्टन अमरेन्दर सिंह के साथ पुनः अकाली दल के साथ आसानी के साथ जा सकती है जिससे पंजाब की राजनीति में भारी बदलाव दिखाई दे रहा है।

अतः प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा किसान बिल वापसी के क्षेत्र में उठाया गया यह कदम उत्तर प्रदेश के साथ-साथ पंजाब की धरती पर नई बिसात बिछाता हुआ दिखाई दे रहा है। जिसे समझने की आवश्यकता है। क्योंकि राजनीति में जब बड़े लक्ष्य निर्धारित किए जाते हैं तो निश्चित ही छोटे लक्ष्यों को दरकिनार करना पड़ता है। इसलिए प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के साथ-साथ पंजाब का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है। किसान बिल वापसी से कैप्टन अमरेंदर सिंह को भाजपा के साथ जनता के बीच जाने में किसी तरह की हिचक नहीं होगी। साथ ही अकाली दल भी गठबंधन का पुनः हिस्सा बन सकता है।

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