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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में इस बार श्रीकृष्ण बनेंगे भाजपा के चुनावी सारथी!

-संजय सक्सेना-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

भारतीय जनता पार्टी ने रामलला के नाम पर कई चुनाव लड़ और जीत के देख लिये, लेकिन अब जबकि अयोध्या में रामलला के मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ हो चुका है और अब वहां सियासत चमकाने का कोई मौका नहीं बचा है तो बीजेपी ने अपना फोकस अयोध्या से हटाकर प्रभु श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा में केन्द्रित कर लिया है। बीजेपी 2022 के विधानसभा चुनाव में रामलला की तर्ज पर ही प्रभु श्रीकृष्ण को अपना नया सारथि बनाने जा रही है। इसका वैसे किसी को कोई खास आभास नहीं था लेकिन उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या के मथुरा वाले बयान ने बीजेपी की भविष्य की राजनीति का जैसे खाका ही खींच कर रख दिया है। इस बयान के बाद मथुरा पर सियासत तेज हो गई है जिसमें उपमुख्यमंत्री ने कहा था, ‘अब मथुरा की तैयारी है’। मौर्या के इस बयान से विपक्ष बौखला गया है तो बीजेपी मौर्या के बयान के ‘ताप’ को नापने में लगी है। यदि बीजेपी की अपनी हिन्दुत्व वाली सियायत में मौर्या का बयान फिट बैठ गया तो अगले वर्ष होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव ही नहीं आगे के भी कई लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनावों में श्रीकृष्ण जन्मभूमि का मुद्दा अयोध्या की तरह गरमाता रहेगा।

दरअसल, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तारीख नजदीक आते ही राजनीतिक पार्टियों ने अपनी बिसात बिछाना शुरू कर दिया है। चुनाव में अयोध्या में मंदिर निर्माण, अब्बाजान, जिन्ना, कलाम, पलायन, मुस्लिम तुष्टिकरण, साम्प्रदायिकता, किसान, गन्ना सबके नाम पर राजनीति हो रही है, तो भला भगवान भी इस चुनाव में उतरे बिना कैसे बच सकते थे। हर बार राम जन्मभूमि मंदिर को मुद्दा बनाने वाली बीजेपी ने अब श्रीकृष्ण जन्मभूमि को मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है, तो इस पर किसी को कोई आश्चर्य नहीं है। बीजेपी आलाकमान ने कभी काशी और मथुरा पर खुलकर कोई बयान नहीं दिया हो, लेकिन अक्सर बीजेपी के नेता और हिन्दूवादी संगठन सार्वजनिक मंचों से ‘अभी मथुरा-काशी बाकी है’ का नारा लगाते रहते हैं। यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या ने गत दिनों जब एक ट्वीट कर ‘मथुरा की तैयारी है’ की बात की तो यूपी का सियासी पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। केशव प्रसाद मौर्या ने अपने इस ट्वीट को अपने ट्विटर प्रोफाइल पर पिन भी कर दिया है। उप-मुख्यमंत्री के ऐसे ट्वीट के कई निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। आखिर बीजेपी की क्या मजबूरी थी जो अचानक उसको भगवान श्रीकृष्ण को अपना सारथी बनाने की जरूरत पड़ गई।

दरअसल, श्रीकृष्ण जन्मभूमि का मुद्दा सालों से चलता आ रहा है। मगर अयोध्या में भगवान श्रीराम का मंदिर बनाने की बीजेपी की मुहिम के चलते ही बीजेपी के अंदरखाने श्रीकृष्ण की जन्मस्थली को लेकर कहीं कोई ज्यादा सक्रियता नहीं देखी गई। यह मामला तब सुर्खियों में आया जब मथुरा के तीन याचिकाकर्ताओं- रंजना अग्निहोत्री, विष्णु शंकर जैन, हरिशंकर जैन और तीन अन्य ने मथुरा की जिला कोर्ट में एक याचिका दाखिल की। याचिका में कहा गया था कि मुसलमानों की मदद से शाही ईदगाह ट्रस्ट ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया और ईश्वर के स्थान पर एक ढांचे का निर्माण कर दिया। भगवान श्रीविष्णु के आठवें अवतार श्रीकृष्ण का जन्मस्थान उसी ढांचे के नीचे स्थित है। इसको लेकर मथुरा की कोर्ट में एक सिविल मुकदमा दायर किया गया और 13.37 एकड़ पर दावा करते हुए स्वामित्व मांगने के साथ ही शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने की मांग की गई थी।

बताते चलें कि मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद श्रीकृष्ण जन्मभूमि से ठीक वैसे ही लगी हुई बनी है जैसे मुगल काल में काशी में बाबा भोलेनाथ के मंदिर के बगल में ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण कराया गया था। अयोध्या में रामलला का मंदिर ध्वस्त करके कथित तौर पर बाबरी मस्जिद बनवाई गई थी। इतिहासकार कहते हैं कि औरंगजेब ने प्राचीन केशवनाथ मंदिर को नष्ट कर दिया था और शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण कराया था। 1935 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने वाराणसी के हिंदू राजा को जमीन के कानूनी अधिकार सौंप दिए थे जिस पर मस्जिद खड़ी थी। 1951 में श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बनाकर यह तय किया गया कि वहां दोबारा भव्य मंदिर का निर्माण होगा और ट्रस्ट उसका प्रबंधन करेगा। 1958 में श्रीकृष्ण जन्म स्थान सेवा संघ नाम की संस्था का गठन किया गया। कानूनी तौर पर इस संस्था को जमीन पर मालिकाना हक हासिल नहीं था लेकिन इसने ट्रस्ट के लिए तय सारी भूमिकाएं निभानी शुरू कर दीं। इस संस्था ने 1964 में पूरी जमीन पर नियंत्रण के लिए एक सिविल केस दाखिल किया, लेकिन 1968 में खुद ही मुस्लिम पक्ष के साथ समझौता कर लिया। 1968 के समझौते के अनुसार, शाही ईदगाह कमिटी और श्री कृष्णभूमि ट्रस्ट के बीच एक समझौता हुआ जिसके अनुसार, जमीन ट्रस्ट के पास रहेगी और मस्जिद के प्रबंधन अधिकार मुस्लिम कमिटी को दिए जाएंगे। अब प्रभु श्रीकृष्ण के भक्तों द्वारा इसी समझौते को कोर्ट में चुनौती दी जा रही है। इसमें भी बीजेपी फिलहाल पर्दे के पीछे से रोल निभा रही है, लेकिन कब वह इस मसले पर फ्रंटफुट पर आ जाए कोई नहीं जानता है। इसकी वजह भी है।

सबसे बड़ी वजह तो यही है कि अयोध्या में श्रीराम मंदिर के पक्ष में फैसला आने और मंदिर निर्माण शुरू होने के बाद से बीजेपी के पास चुनावी रैलियों और घोषणापत्र में भुनाने के लिए हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण से जुड़ा कोई मुद्दा नहीं रह गया था, इसी के चलते बीजेपी को हिन्दू वोटों को बीजेपी के पक्ष में जोड़े रखने की दिक्कतें आ रही हैं। जबकि मुस्लिम वोट एकजुट होकर समाजवादी पार्टी के पक्ष में खड़ा नजर आ रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि लोगों की आस्था और धर्म से जुड़े मुद्दे हमेशा से ही चुनाव में अहम भूमिका निभाते आए हैं। इसके आगे की बात की जाए तो पिछले कुछ वर्षों में धर्म और राजनीति का काफी घालमेल हो गया है। वैसे तो हिन्दू कभी कट्टर नहीं रहा है, लेकिन जिस तरह से कांग्रेस और बाद में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और लालू प्रसाद यादव तथा ममता बनर्जी जैसे नेताओं ने खुलकर मुस्लिम कार्ड खेलना शुरू किया, उससे हिन्दुओं में भी कट्टरता साफ नजर आने लगी है। उन्हें (हिन्दुओं को) लगता है कि हिन्दुस्तान में ही उनके साथ दोयम दर्ज का व्यवहार किया जाता है। तमाम पिछली गैर-बीजेपी सरकारों ने हिन्दुओं की आवाज को सुनने की ही जरूरत नहीं समझी, जिसकी वजह से उसने अपने पक्ष में खड़ी नजर आने वाली बीजेपी को हाथों हाथ लिया। अयोध्या में रामलला के मंदिर का रास्ता मोदी और योगी राज में भी प्रशस्त हो पाया, इसलिए हिन्दू मथुरा में भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि बीजेपी की सरकार यहां भी श्रीकृष्ण भक्तों को इंसाफ दिलाएगी।

उत्तर प्रदेश हो, उत्तर भारत हो या यूं कहें कि पूरा देश…भगवान श्रीकृष्ण हर जगह किसी न किसी रूप में पूजे जाते हैं। श्रीरामजन्मभूमि के साथ लोगों की जैसी भावनाएं जुड़ी हुई हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण जन्मभूमि को लेकर भी भावनाएं जुड़ी हुई हैं। ऐसे में बीजेपी के पास एक अच्छा मौका है कि इन्हीं भावनाओं को भुनाकर श्रीकृष्ण जन्मभूमि को एक बड़ा मुद्दा बनाया जाए। श्रीकृष्ण जन्मभूमि इस चुनाव में एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरेगा, इसके संकेत खुद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही अपने एक भाषण के दौरान दे चुके हैं। अयोध्या में दीपोत्सव के मौके पर सीएम योगी ने कहा था, ‘1990 में राम मंदिर बोलना अपराध माना जाता था, यह लोकतंत्र की ताकत है कि जो 31 साल पहले रामभक्तों पर गोलियां चलाते थे आज आपकी ताकत के सामने झुके हैं। अब लगता है कि अगर आप कुछ वर्ष और इसी तरह से ले चले तो अगली कारसेवा के लिए वे और उनका पूरा खानदान लाइन में खड़े होते दिखाई देंगे। आप देखना अगली कारसेवा जब होगी तब गोली नहीं चलेगी, तब रामभक्तों-कृष्णभक्तों पर पुष्पों की वर्षा होगी। यही लोकतंत्र की ताकत है। गत दिनों डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या ने जो ट्वीट किया है, उसमें उन्होंने एक तरह से सीएम योगी के भाषण को ही आगे बढ़ाया है।

श्रीकृष्ण जन्मभूमि के ऐतिहासिक पक्ष को समझने की कोशिश की जाए तो 1679 में मुगल शासक औरंगजेब के शासनकाल में उत्तर भारत में कई जगह ऐतिहासिक मंदिर तोड़े गए थे। इसके पीछे धार्मिक कारण थे और हिंदुओं की आस्था पर चोट करना इसका मकसद था। इसके अलावा इसके आर्थिक उद्देश्य भी थे, क्योंकि इन मंदिरों में काफी धन संपदा होती थी जिसे औरंगजेब ने लूट लिया था। श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर को भी उसी समय तोड़ा गया था। इसका अभिलेखीय साक्ष्य भी है कि कब ऐसे आदेश दिए गए थे।

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