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प्रादेशिक क्रियाकलापों और प्रत्याशी की छवि पर आधारित होंगे विधानसभाओं के चुनाव

-डा. रवीन्द्र अरजरिया-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

देश के पांच राज्यों में चुनावी दुन्दुभी बज चुकी है। उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर में ढिढुरती ठंड में भी राजनैतिक तापमान बेहद बढा हुआ है। दलबदलू लोगों का व्यक्तिगत स्वार्थ चरम सीमा पर दिखने लगा है। लालच के वशीभूत होकर सिध्दान्तों को तिलांजलि दी जा रही है। आदर्शों पर जीवन निछावर करने वाली धरती पर मान्यताओं की होली जलाने वालों की बढ सी आ गई है। स्वयं, परिवार और अपनों तक सीमित रहने वाले धनबलियों ने स्वयं भू ठेकेदार होने की नई परम्परा की शुरूआत कर दी है। भौतिक संसाधनों की होड में लगे लोगों ने शारीरिक सुख की चाहत में वास्तविक आनन्द को तिलांजलि दे दी है। कुछ अपवाद स्वरूप नागरिकों को यदि अदृष्टिगत कर दें तो देश के अधिकांश लोगों में मृगमारीचिका के पीछे भागने की होड लगी है। यूं तो पांच राज्यों में सत्ता हथियाने वालों ने चालों पर चालें चलना शुरू कर दी हैं परन्तु उत्तरप्रदेश, पंजाब और उत्तराखण्ड का दंगल निरंतर सुर्खियों में है। कोरोना काल में सुरक्षात्मक निर्देशों की धज्जियां उडाने की घटनायें निरंतर सामने आ रहीं है। समर्थन का प्रदर्शन करने के क्रम में लोगों की जान को खतरे में डालने वालों का नेतृत्व आने वाले समय में किस रूप में होगा, यह तो भविष्य ही निर्धारित करेगा परन्तु वर्तमान में बिना मांगे बीमारियों की तत्काल सौगात मिलने की संभावना बेहद अधिक है। दलगत राजनीति का उदय मानवीय सिध्दान्तों, आदर्शो और मान्यताओं की विभिन्नताओं के आधार पर हुआ था। राष्ट्रीय स्वधीनता के आधार पर गठित की गई पार्टी ने स्वतंत्रता के बाद उसे राजनैतिक दल में परिवर्तित करके अतीत की दुहाई देना शुरू कर दी थी। तब समानान्तर रूप से विपरीत कारकों के समुच्चय को लेकर एक अन्य दल ने विपक्ष की भूमिका का निर्वहन किया। विदेशी घरती से लाल सलाम का आगाज हुआ। मजदूरों, किसानों और कामगारों को उनके हितों की रक्षा का सब्जबाग दिखाया गया। कालान्तर में छात्रों, कलाकारों और संवेदनशील बुध्दिजीवियों तक के मध्य सैध्दान्तिक खाई खोदने का प्रपंच भी रचा गया। इसके बाद व्यक्तिगत हितों, स्वार्थों और विदेशी ताकतों के इशारे पर देश में जाति, क्षेत्र, सम्प्रदाय, भाषा, संस्कृति के आधार पर अनेक पार्टियों ने दस्तक दी। विश्व के सबसे बडे लोकतंत्र की अनेक पार्टियां आज सामंतशाही की राह पर चल रहीं हैं। परिवारवाद के मकडजाल में फंसे दलों के नेतृत्व के पीछे चाटुकारों की एक लम्बी फौज खडी हो गई। बंद कमरों में अहम की पौध पनपाई जाने लगी। पैत्रिक धरोहर के रूप में नेतृत्व कर रहे परिवारों में भी वर्चस्व का युध्द सडकों पर अस्तित्व में आ गया। सामाजिक ढांचे के स्तम्भों को तोडने वाले बहुमत हासिल करने लगे। वैमनुष्यता फैलाकर जातिगत मुद्दों को नारों में बदलकर सत्ता पाने वालों से लेकर सम्प्रदायगत वक्तव्यों का सहारा लेने वालों तक की लालसा केवल और केवल सत्ता पाने तक ही सीमित है। सभी जानते हैं कि कालीचरण के पडोस में रहने वाले रमजान मियां इन राजनैतिक व्देष की बिना पर कभीभी आपसी संबंधों को दर किनार नहीं करेंगें। दुःख, तकलीफ और मुसीबत के दौरान भडकाऊ भाषण देने वाले नेताजी उनका सहयोग करने के लिए तत्काल हाजिर नहीं होंगे, तब पडोसी ही कवच बनकर खडा होगा। मगर सोशल मीडिया के माध्यम से मनगढंत पोस्ट फैलाने वालों का गिरोह अपने आकाओं के इशारे पर देश में असुरक्षा का वातावरण जरूर तैयार कर रहा हैं। इस तरह के शगूफों के लिए सीमापार से खासी आर्थिक सहायता भेजी जाती है। चुनाव काल में तो दंगे-फसाद करवाने से लेकर अफवाहों तक का बाजार चरम सीमा की ओर पहुंच जाता है। चुनावी परिपेक्ष में जहां भाजपा को धारा 370 हटाने, राम मंदिर के ऐतिहासिक निर्णय का करवाने, बनारस कैरीडोर बनवाने, कोरोना काल में मुफ्त वैक्सीन, खाद्य सामग्री का निःशुल्क वितरण, निर्धन आवास, किसान कल्याण जैसे कार्यो पर जनादेश मिलने की आशा है वहीं उसके व्दारा केवल उत्तरप्रदेश में ही जातिवाद के आधार पर क्षत्रियों को संरक्षण, ब्राह्मणों का उत्पीडन, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की उपेक्षा के योगी फार्मूले से धराशाही होने का खतरा भी मडरा रहा है। पार्टी ने एक बार फिर योगी को ही मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाकर एक बडी भूल की है, ऐसी चर्चा चैराहों से चैपालों तक सुनने में आ रही है। प्रदेश का मुसलमान योगी की व्यक्तिगत नीतियों का खुला आलोचक है। उसे मोदी की गम्भीरता पर तो विश्वास है परन्तु योगी का राजतिलक कदापि बर्दाश्त नहीं है। वह निर्विवाद रूप भाजपा के सशक्त होते विरोधी खेमे का ही दामन थामेगा। प्रदेश में आम आवाम के पास विकल्प के रूप मेें केवल समाजवादी पार्टी ही दिख रही है परन्तु उसमें चुनावी मेंढकों की आमद होने से पुराने निष्ठावान कार्यकर्ता अपने को ठगा सा महसूस कर करने लगे हैं। ऐसे में व्यक्तिगत छवि के आधार पर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप मेें तालठोकने वालों को भी सफलता मिलने की संभावना बलवती हो जाती है। उत्तरप्रदेश के अलावा पंजाब में प्रधानमंत्री की जान को जोखिम में डालने वाला कृत्य, सत्तासीन कांग्रेस के सिध्दू की पाकिस्तान के हुक्मरानों के साथ यारी, पार्टी के असंतुष्ट खेमें का सक्रिय होना आदि कुछ ऐसे कारण हैं जो चुनावों के परिणामों को सीधा प्रभावित करेंगे। अकाली दल, आम आदमी पार्टी सहित अन्य दलों की वर्तमान घोषणाओं पर ही उसका जनाधार निर्धारित करेगा। दूसरी ओर सीमापार से खालिस्तान समर्थकों को सहयोग देकर सक्रिय करने की चालें और किसान आंदोलन के नाम पर अनेक असामाजिक तत्वों की भीड ने खुशहाल पंजाब के माथे पर लकीरें गहरा दी है। छत्तीसगढ के बाद अब उत्तराखण्ड में संतों की गिरफ्तारी ने एक बार फिर सत्ताधारी पार्टी की नियत को उजागर कर दिया है। इस राज्य का राजस्व तीर्थ यात्रा पर आने वाले आगंतुक श्रध्दालुओं पर ही निर्भर रहता है। होटल, टैक्सी, गाइड, आवास, पूजा, दुकान, व्यापार, गैरेज जैसे अधिकांश व्यवसाय तो लम्बे समय से यात्रियों की आमद पर ही निर्भर रहते हैं। उसी राज्य में अब आस्था पर चोट करने का क्रम चल निकला है। आखिर यह किसकी संतुष्टि के लिए राज्य के श्रध्दामय वातावरण को धूल धूसित करने के षडयंत्र को अमली जामा पहनाया जा रहा है। गढवाल और कुमांऊ के निवासी तो पर्यटन पर निर्भर अपनी जीविका को लेकर खासे चिन्तित हैं। गोवा और मणिपुर में तो बहाव का प्रवाह चल निकला है। राष्ट्रवादी विचारधारा पर आधुनिकता को थोपने के प्रयास करने वाले स्वयं को समाज के हितकारी बनाकर प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे में राज्यों के चुनावों में मोदी के नेतृत्व को आंखबंद करके स्वीकारने वाले मतदाता भी प्रदेश में भाजपा के वर्तमान कर्णधारों के क्रियाकलापों और प्रत्याशी के आधार पर ही मतदान का मन बना चुके है। कांग्रेस को तो अपने ही कम्युनिष्टीकरण का खामियाजा भुगतने की नौबत दिख रही है। पार्टी के पुराने दिग्गजों को दरकिनार करने वाले वर्तमान नेतृत्व की अनुभवहीनता और निज सहायक को तौर मौजूद बामपंथी विचारधारा के पोषितों के क्रियाकलापों ने परिवारवार की जडों को हिला कर रख दिया है। राष्ट्रीय पार्टियों के व्दारा क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन किया जा रहा है, जो स्थानीय कार्यकर्ताओं के मनोबल को सीधा प्रभावित करेगा। ऐसे में वर्तमान समीकरणों की विवेचना करने पर यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि इस बार प्रादेशिक क्रियाकलापों और प्रत्याशी की छवि पर आधारित होंगे विधानसभाओं के चुनाव। पूरी तस्वीर तो आने वाले समय में ही साफ हो सकेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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