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अनगिनत हों शहीदी मशालें

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

‘अमर जवान ज्योति’ सिर्फ राष्ट्रीय गौरव, गरिमा, कुर्बानी और भावनात्मक जुड़ाव का ही मुद्दा नहीं है। ‘राष्ट्रीय युद्ध स्मारक’ और शहादत की एक ही मशाल सरीखी दलीलें भी पर्याप्त नहीं हैं। ‘अमर जवान’ स्मारक गुलामी का प्रतीक नहीं है। उसे तो 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद हमारी सरकार ने ही बनवाया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1972 के गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर उसका उद्घाटन किया था। वह स्मारक हमारी सेनाओं की ऐतिहासिक, शानदार विजय का प्रतीक है। गुलामी की यादें तो ‘इंडिया गेट’ ताजा करता रहा है, क्योंकि वहां आज भी किंग जॉर्ज विराजमान हैं। ब्रिटिश गुलामी के सबसे बड़े और साक्षात उदाहरण तो लालकिला, राष्ट्रपति भवन, संसद भवन आदि हैं। ऐसे कई स्मारक हमारे गुलाम अतीत को कुरेदते रहे हैं। भारत कितना सक्षम था, जब आजाद हुआ। रेल की पटड़ी तक हमारी अपनी नहीं थी। सब कुछ अंग्रेजों की ही देन है। जब भारत सरकार उनके स्वदेशी विकल्प स्थापित कर लेगी, तब हम देखेंगे और जिंदा रहे, तो उनका विश्लेषण भी करेंगे। ‘लालकिला’ अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी का ऐसा प्रतीक है, जहां की प्राचीर से स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री प्रत्येक 15 अगस्त के दिन राष्ट्र को संबोधित करते हैं। किसी स्वतंत्र प्राचीर को वैकल्पिक स्थान बनाया जाए, तो हम प्रधानमंत्री और सरकारी प्रवक्ताओं की दलीलों पर पुनर्विचार कर सकते हैं। यकीनन राष्ट्रीय युद्ध स्मारक बनना चाहिए था। उसके लिए और युद्ध स्मारक पर 25,942 रणबांकुरे शहीदों के नाम और पद अंकित किए जाने के प्रयास की हम खूब सराहना करते हैं।
हमारे सैन्य अधिकारियों और औसत सैनिक ने गौरवान्वित महसूस किया होगा, क्योंकि ये उन ‘अमर जवानों’ के नाम हैं, जिन्होंने 1947 में देश की आजादी के बाद, देश की संप्रभुता और सुरक्षा के लिए, शहादत दी। शहादत की ऐसी कितनी भी मशालें और लौ प्रज्वलित की जाएं, वे भी कम हैं, क्योंकि शहादत से बड़ा और महान बलिदान और कर्म कोई और नहीं है। सभी मशालें गर्व और बलिदानों का एहसास कराती हैं और कराती रहेंगी। ‘अमर जवान ज्योति’ पर अभी तक देश के प्रधानमंत्री, रक्षा मंत्री और तीनांे सेना प्रमुख विभिन्न अवसरों पर सलामी देते रहे हैं, मौन धारण कर श्रद्धांजलि देते रहे हैं। वे सम्मान भी तो शहादत के प्रति थे। बेशक उन सैनिकों ने ब्रिटिश हुकूमत के लिए युद्ध लड़े, लेकिन वे भी हमारे पूर्वज ही थे। वे भी भारतीय सैनिक थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन किया, तो सभी सैनिक ब्रिटिशकाल के ही भारतीय थे। क्या उनकी शहादतों और देश के लिए क्रांतिकारी अभियानों को देश खारिज कर सकता है? ‘अमर जवान’ स्मारक के पीछे तत्कालीन 3843 सैन्य शहीदों की कुर्बानियां हैं। उन्हें पढ़ते, देखते और नमन् करते कई पीढि़यां गुजरी हैं। गुलामी के प्रतीक की दलीलें देकर, शहादत की एकीकृत मशाल के पक्षधर बनना, कुतर्क और सियासत है। कमोबेश शहादत के परिप्रेक्ष्य में सियासत यह देश बर्दाश्त नहीं करेगा। यदि मौजूदा सरकार भारत के प्राचीन इतिहास को नष्ट कर, उसका अपने तरीके से पुनर्लेखन कराने का मंसूबा पाले हैं, तो उसका भी लोकतांत्रिक विरोध किया जाएगा। शहादत की मशालों के कई लाक्षणिक अर्थ हैं, जिन्हें मौजूदा पीढ़ी के सामने रखा जाना चाहिए।

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