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प्रदेश में आप की हैडलाइन

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

इसमें दो राय नहीं कि पंजाब चुनाव परिणामों के बाद हिमाचल में भी आप अपनी हैडलाइन बनाने लगी है। शिमला में दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन की उपस्थिति के बीच हिमाचल में राजनीतिक सर्कस का पहला शो हो गया। इसका एक व्यापक उद्घोष स्वाभाविक है और उन चेहरों और मोहरों पर भी नज़र जाएगी, जो एक-एक करके आप के कारवां को मंजिल दिखाएंगे। हिमाचल की सभी सीटों पर आप का आगमन कम से कम हिमाचल की परंपरावादी राजनीति को दर किनार करते हुए कांग्रेस व भाजपा के राजनीतिक संवाद और समीकरणों को घटाते हुए सीधे तीसरे मोर्चे का आगाज कर रहा है। यानी कि सियासी टूटफूट, आपसी मतभेद और पार्टियों के भीतर की गुटबाजी अब नए विकल्प के माध्यम अपनी अलग खिचड़ी पकाते हुए आप का नमक हलाल क र सकती है। अभी छोटी मछलियां इस तालाब में कूद रही हैं, लेकिन वक्त की लहरों को मालूम है कि सरकते धरातल अगर धंसे, तो कई नेता अपने अतीत से मुक्त होकर आप की नई जमीन पर पांव जमाना चाहेंगे।

कम से कम राजनीतिक दुकानदारी में अब आप की सामग्री का वितरण तीव्रता से होगा। इसमें दो राय नहीं कि पंजाब के नतीजों ने आप के प्रति राजनीतिक समर्थन बढ़ाया है और अब राष्ट्रीय विकल्प के रूप में इस पार्टी के मंसूबों का शिलान्यास हो रहा है। बेशक कांग्रेस की राष्ट्रीय उपस्थिति में समर्थकों की कमी नहीं, लेकिन पार्टी के शिखर नेतृत्व की खामियों ने चबूतरे खाली करने शुरू किए हैं। देश अगर आज दिल्ली मॉडल को पढ़ रहा है, तो इसका एक पुराना इतिहास भी है जो 1982 में एमजीआर से जुड़ता है। तमिलनाडु में मिड-डे मील और मुफ्त की चप्पल, धोती और लंगोटी की जब फेहरिस्त बन रही थी, तो किसे मालूम था कि एक दिन ऐसा ही जादू केजरीवाल और मोदी की राजनीति के सिर पर चढ़ कर बोलेगा।

दिल्ली मॉडल से पहले ऐसा मॉडल एनटी रामा राव को आंध्रप्रदेश का देवता बना देता है, तो जयललिता भी अपने हक में लाभार्थी खोज लेती हैं। यानी एक हाथ दे, दूसरे हाथ ले के मंत्र से ओत-प्रोत सियासत का सत्ता से घनिष्ट रिश्ता अब इस कद्र जुड़ने लगा है कि राजनीति अब लीला-अवतार है और जहां सम्मोहन की कलाओं की प्रतियोगिता और बढ़ेगी। यूपी के चुनावों ने साबित कर दिया कि अगर महिला मतदाता का रुझान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में है, तो इस चमत्कार का राशन और भाषण पहले से ही तय है। दक्षिणी राज्यों ने लाभार्थी मतदाताओं के साथ-साथ औद्योगिक उत्पादन बढ़ाते हुए ऐसी आर्थिक व्यवस्था कायम की जो मुफ्तखोरी का खर्चा उठा सकती है। दिल्ली मॉडल के तहत एक अधूरे राज्य को केजरीवाल ने अपनी व्याख्या देते हुए पानी-बिजली के साथ-साथ मोहल्ला क्लीनिक तक अपनी कहानी पहुंचाई। आज वहां के सरकारी स्कूल, कानवेंट स्कूलों का मुकाबला कर रहे हैं, तो यह स्वाभाविक तौर पर हिमाचल की सरकारी सेवाओं से प्रश्न खड़ा करेगा। आठ उच्च स्तरीय चिकित्सा संस्थान होने के बावजूद अगर प्रदेश के मुख्यमंत्री का इलाज दिल्ली के एम्स में संभव होता है, तो यह पूछा जाएगा कि इस विकास को क्या कहें। प्रदेश के अधिकांश स्कूलों के आलीशान परिसर होेने के बावजूद निजी स्कूलों के प्रति अभिभावकों और छात्रों का बढ़ता हुआ विश्वास किसी केजरीवाल को क्यों नहीं खोजेगा, जो दिल्ली के स्कूलों में शिक्षा को अमृत पिला रहे हैं। हिमाचल और दिल्ली के मतदाताओं के बीच कई समानताएं हैं, विशेषकर साक्षरता की उच्च दर, मध्यम वर्गीय समाज, नौकरीपेशा वर्ग, जागरूक मतदाता और राजनीतिक बदलाव की चाहत।

ऐसे में केजरीवाल के लिए आशाजनक माहौल तो दिखाई देता है, लेकिन हम यह नहीं भूल सकते कि सामाजिक सुरक्षा के राष्ट्रीय मानकों में हिमाचल ऊपर दिखाई देता है। कमोबेश भाजपा और कांग्रेस सरकारों ने विभिन्न वर्गों को अपने-अपने दौर में यह एहसास दिलाया है कि सरकार उनका भुगतान कर रही है। हिमाचल में सरकारों का एक हद तक डिलीवरी सिस्टम भी ठीक कहा जा सकता है, लेकिन प्रदेश के अधिकारों की लड़ाई लड़ने में विफलता दिखाई देती है। बेरोजगारों, व्यापारियों, निजी क्षेत्र तथा औद्योगिक उत्पादन के प्रति भी सरकारों के नाम कुछ खास हासिल नहीं है। न्यू पेंशन स्कीम की आफत में फंसी भाजपा सरकार को अगर सरकारी कर्मचारियों का दिल जीतना है, तो कांग्रेस को अब नए मुद्दों का आखेट सीखना है। कुल मिलाकर आप के आने से, अब कोई पहेली बुझाई नहीं जा सकती, बल्कि एक टकराव की स्थिति उभरेगी जहां भाजपा और कांग्रेस को अपनी-अपनी सियासत में कुछ नया जोड़ना पड़ेगा।

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