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श्रीलंका-पाकिस्तान का हश्र : क्या पड़ौसी देशों से कुछ सबक लेगा भारत..?

-ओमप्रकाश मेहता-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

हमारे पड़ौसी देशों श्रीलंका-पाकिस्तान की सरकारें जिन कारणों से संकट में आई, क्या उन कारणों से भारत अछूता है? पाकिस्तान की सरकार प्रधानमंत्री के अहंकार और श्रीलंका की सरकार मुफ्तखोरी की सुविधाऐं मुहैय्या कराने के कारण संकट में आई, क्या ये दोनों स्थितियां हमारे देश में नहीं है क्या हमारे देश के प्रधानमंत्री जी अहंकार के दौर से नहीं गुजर रहे है? क्या हमारे देश में सरकार द्वारा मतदाताओं को अपने दल के पक्ष में खड़ा करने के लिए कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर मुफ्तखोरी शुरू नहीं की? जिन पर देश का सर्वोच्च न्यायालय ने चेतावनी भरा जिक्र भी किया, अब यदि प्रजातंत्र के तीन अंग एक दूसरे की चेतावनियों पर ही ध्यान न दें तो फिर इसमें किसका दोष?
खैर, हमारे पड़ौसी देशों का जो हश्र हुआ, वह अपनी जगह है, हम उसे सुधार तो नहीं सकतें, लेकिन उनसे सबक तो ले ही सकते है, अब हमारे देश में प्रजातंत्र के तीनों अंग इतने मुखर हो गए है कि वे एक-दूसरे को उपदेश देने की स्थिति में आ गए है। प्रजातंत्र के तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के हमारे संविधान में अलग-अलग कार्यक्षेत्र है तथा संविधान स्पष्ट कहता है कि एक अंग को दूसरे अंग के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये, किंतु आज क्या ऐसा हो रहा है, आज तो भारत में प्रजातंत्र के दो ही अंग कार्यरत है, क्योंकि कार्यपालिका और विधायिका तो सम्मिलित हो गया है, जिसकी चेतावनी न्यायपालिका ने दी भी है, न्यायपालिका (सर्वोच्च न्यायालय) ने कार्यपालिका (नौकरशाहों) का कहा है कि वे राजनेताओं के संरक्षण में न रहे अपना स्वयं का अस्तित्व बनाकर रखें, किंतु आज तो देश की क्या राज्यों की नौकरशाही भी सत्तारूढ़ दल व उनके नेताओं के नियंत्रण मंे नजर आ रही है सरकार की वास्तविक संचालक होने के बावजूद आज की नौकरशाही वहीं कर रही है जो नेतागण चाहते है, अब ये प्रजातंत्र निष्कलंक कैसे रह सकता है, जहां तक तीसरे अंग न्यायपालिका का सवाल है, उसे तो सत्तारूढ़ दल (कार्यपालिका व विधायिका) द्वारा कोई महत्व ही नहीं दिया जा रहा है और वह जब सरकार के गैर प्रजातांत्रिक कृत्य उजागर करती है तो उसे विरोधी दलों का साथी करार दे दिया जाता है।
सही पूछों तो आज देश की राजनीति लफ्फाजी और बदले की भावना पर टिकी है, देश के सर्वोच्च नेता अहंकारवश कुछ भी किसी पर भी आरोप लगा देते है, फिर वह चाहे परिवारवाद का आरोप ही क्यों न हो? और फिर वे यह नहीं देखतें कि उनका अपना राजनीतिक दल क्या परिवारवाद से अछूता है? बल्कि यदि यह कहा जाए कि जिन नेताओं का अपना कोई परिवार नहीं है, वे ही परिवारवाद की बात करते है तो कतई गलत नहीं होगा। दूसरे जैसा कि देश के एक वरिष्ठ मंत्री और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ने यह कहा कि ‘‘ज्यादा समय तक सत्ता में बने रहने से व्यक्ति या दल में अहंकार की भावना बढ़ जाती है’’। वही स्थिति आज हमारे देश में है, यद्यपि प्रजातांत्रिक पद्धति को श्रेष्ठ पद्धति माना जाता है, लेकिन इसमें भी अब पचहत्तर साल बाद कई दुर्गुण समाहित हो गए है, ये दुर्गुण दूर हो सकते है, हमारा संविधान उन्हें दूर कर सकता है, किंतु यदि संविधान पुस्तिका की सीमा सिर्फ शपथ-ग्रहण तक ही सीमित कर दी जाए और धार्मिक ग्रंथ की तरह समय-समय पर उसकी पूजा की जाए, तो फिर प्रजातंत्र के दोष कैसे दूर हो सकते है?
आज तो राजनीति का एक मात्र उद्धेश्य सत्ता प्राप्ति और उसे दीर्घजीवी बनाने तक ही सीमित रह गया है, पांच साल में एक बार वोट प्राप्त करने की मजबूरी में जनता को याद कर लिया जाता है, बाद में हमारे आधुनिक भाग्यविधाता सब कुछ भुला देते है, सिर्फ सत्ता, पैसा और रूतबे को छोड़कर, तो फिर ऐसे प्रजातंत्री देश के भविष्य के बारे में क्या कहा जा सकता है? यद्यपि ये आज के राजनेताओं के लिए बातें काफी कड़वी है, किंतु वास्तविकता उजागर करना भी तो पत्रकारिता का एक प्रमुख अंग है? यही सोचकर आज मैंने यह हिम्मत भरा प्रयास किया अब तो यह सोचने-समझने का वक्त है कि इस मौजूदा संकटकाल से प्रजातंत्र को सही सलामत कैसे बचाया जाए? यदि अभी भी इस मसले पर गंभीर चिंतन नहीं किया गया और सत्तारूढ़ दल व उसके भाग्यविधाता लोभ-मोह की निद्रा से नहीं जागे तो फिर भविष्य की तो कल्पना करना ही व्यर्थ होगा, क्योंकि पाकिस्तान व लंका में जो कुछ हुआ व हो रहा है, वह हमारे सामने है।

 

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