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अंग्रेजी को अमित शाह की चुनौती

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

गृहमंत्री अमित शाह ने कल वह बात कह दी, जो भारत के लिए महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे। शाह ने संसदीय राजभाषा समिति की बैठक को संबोधित करते हुए कहा कि भारत के नागरिकों को परस्पर संवाद के लिए अंग्रेजी की जगह हिंदी का इस्तेमाल करना चाहिए। याने भारत की संपर्क भाषा अंग्रेजी नहीं, हिंदी होनी चाहिए! इसमें उन्होंने गलत क्या कहा? भारत को आजाद हुए 75 साल हो रहे हैं और हम अभी भी अंग्रेजी की गुलामी कर रहे हैं। अंग्रेजी न केवल भारत के मुट्ठीभर लोगों की भाषा है बल्कि यह भारत की असली राजभाषा है। राजभाषा के नाम पर हिंदी तो शुद्ध ढोंग है। अब भी सरकार के सारे महत्वपूर्ण काम अंग्रेजी में होते हैं। भारत का कानून, न्याय, राजकाज, उच्च शिक्षण, शोध, चिकित्सा— सब कुछ अंग्रेजी में होता है। हमारे अनपढ़ और अधपढ़ नेताओं में हिम्मत ही नहीं कि वे अंग्रेजी की इस गुलामी को चुनौती दें। अंग्रेजी महारानी बनी हुई है और समस्त भारतीय भाषाएं उसकी नौकरानियां बन चुकी हैं। इस स्थिति को बदलने का काम हिंदी लाओ नहीं, अंग्रेजी हटाओ के नारे से होगा। अमित शाह को मैं बधाई दूंगा कि वे भारत के ऐसे पहले गृहमंत्री हैं, जिन्होंने दो-टूक शब्दों में अंग्रेजी हटाओ का नारा दिया है। अंग्रेजी हटाओ का मतलब यह नहीं है कि अंग्रेजी मिटाओ। जो स्वेच्छा से अंग्रेजी तो क्या, कोई भी विदेशी भाषा पढ़ना चाहे, उसमें काम करना चाहे, जरुर करे लेकिन बस, वह थोपी नहीं जाए। अगर अंग्रेजी थोपी नहीं जाए तो हिंदी थोपना भी उतना ही गलत है। हिंदी के प्रचलन से यदि किसी अहिंदीभाषी को कोई नुकसान होता हो तो मैं उसका सख्त विरोध करुंगा। अमित शाह अपने भाषण में जरा यह कह देते कि अंग्रेजी हटाओ और उसकी जगह भारतीय भाषाएं लाओ तो इस वक्त जो तूफान उठ खड़ा हुआ है, वह नहीं होता। गुजरातीभाषी अमित शाह के भोलेपन पर कई दक्षिण भारतीय नेताओं को भड़कने का मौका मिल गया। यदि अमित शाह यह कह दें और जो कहें, उसे करें भी कि हिंदीभाषी लोग अन्य भारतीय भाषाएं निष्ठापूर्वक सीखें तो इन अंग्रेजीप्रेमियों की बोलती बंद हो जाएगी। जितने अंग्रेजीप्रेमी दक्षिण भारत में हैं, उससे ज्यादा उत्तर भारत में हैं। ये कितने हैं ? इनकी संख्या मुश्किल से 8-10 करोड़ होगी। ये लोग कौन हैं? इनमें से ज्यादातर शहरी, उच्च जातीय और मालदार लोग हैं। यही देश का शासक-वर्ग है। यदि अंग्रेजी हट गई तो देश के गरीब, ग्रामीण, पिछड़े, वंचित लोगों के लिए उच्च शिक्षा, उच्च सेवा, उच्च पदों, उच्च आय और उच्च जीवन के मार्ग खुल जाएंगे। अंग्रेजों के ज़माने से बंद इन दरवाजों के खुलते ही देश में समतामूलक क्रांति का सूत्रपात अपने आप हो जाएगा। भारत में सच्चा लोकतंत्र कायम हो जाएगा। लोकभाषाओं को आपस में कौनसी भाषा जोड़ सकती है? वह हिंदी ही हो सकती है? जो संपर्क भाषा के तौर पर हिंदी का विरोध करते हैं, वे अपनी भाषा बोलनेवाले के पक्के दुश्मन हैं। गैर-हिंदी प्रदेशों की आम जनता का अंग्रेजी से कुछ लेना-देना नहीं है। यह सिर्फ उनके तथाकथित भद्रलोक का रोना है। उत्तर भारत और दक्षिण भारत के करोड़ों ग्रामीण, किसान, मजदूर, महिलाएं, हिंदू-मुस्लिम तीर्थयात्री और पर्यटक जब एक-दूसरे के प्रदेशों में जाते हैं तो क्या वे अंग्रेजी में संवाद करते हैं? वे हिंदी में करते हैं। अंग्रेजी दादागीरी की भाषा है और हिंदी प्रेम की भाषा है। वह सहज है।

 

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