
-सुरेश सेठ-
-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-
हमें लगता है समझ के चौराहे पर भ्रमित लोगों का रुके रहना ही जैसे नियति बन गया है। पौन सदी के अनथक प्रयास के बावजूद अगर देश आज भी अपनी विकास यात्रा को अवरुद्ध पाता है तो क्या इसका कारण एक अनचाही महामारी के प्रकोप में तलाशा जाए या उससे पैदा हो गई उस निरुपाय दहशत में जिसने तरक्की के दावों को भूख और बेकारी का आइना दिखा दिया। स्पष्ट है कि इस निरुपित चेहरे को देख लेने के बाद उसे संवारने के अभियान की शुरुआत होनी चाहिए, लेकिन यह शुरुआत ‘मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं के दोराहे पर क्यों ठिठकी नजऱ आती है? रोग के आतंक से पैदा निष्क्रियता के इस आलम में गांवों से उखड़ कर आए नौजवानों के रोज़ी-रोटी के वसीले की जड़ें महानगरों या विदेशी धरती की चकाचौंध से उखड़ गईं। वे सब अपनी लुटिया डोरी लेकर अपनी धरती अपने मूलस्थान की ओर चल दिए। वहां तोरणद्वार सजे थे, ‘जो आएगा उसका स्वागत है, क्योंकि देश को फिर एक कृषक देश कहलाना है लेकिन बस तोरण द्वार, उसके पीछे था एक गहराता शून्य, एक फर्जी मनरेगा और खैराती कजऱ्े का भेडिय़ा धसान! वहां रुके जीर्ण शीर्ण धरती पुत्रों ने उन्हें कहा, ‘आओ, जैसे हम जी रहे हैं, तुम भी हमारे साथ जीना सीख लोगे। जैस-तैसे यह उमरिया बीत जाएगी। आधी सदी पहले आई एक देसी फिल्म में गीत सुना था, ‘उमरिया बीती जाए रे। गीत तो उन खेतों की मेढ़ों पर ठिठक कर जैसे आज भी पूछता है, हालात तो वैसे ही हैं जैसे कभी हमें छोड़ कर गए थे। अब रहोगे कि फिर वापस जाओगे। रोटी का ठिकाना न यहां है न वहां है। लोटा, थैला उठाए फिर उसी समझ के दोराहे पर खड़े हैं, सोचते रुकें कि जाएं? बरसों से यही हो रहा है।
अनिश्चय का कुहासा फैला है। कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, कुछ पता नहीं चलता। ये शहर से उखड़ कर आए लौटने लगे या कि नए पलायन कत्र्ताओं की जमात खड़ी हो गई। भरपेट रोटी, टूटती नींद और रुआंसी हिचकियां यहां भी हैं, वहां भी हैं, बस बीच-बीच में नए नारों, नई घोषणाओं की कन्दीलें अवश्य जला दी जाती हैं। लोग छटपटा कर नई जि़ंदगी की उपलब्धियां तलाशते हैं। पता चलता है कि नई तो क्या पुरानी भी नहीं रही। एक से पांच एकड़ से छोटे भूखंडों में दिन-रात खटने वाला किसान अपनी छह माह की मेहनत भरी फसल लेकर कहां जाए? छोटे और भटके हुए किसान की नियति तो वही रही, मण्डी के चौराहे पर फंदा लेकर आत्महत्या कर लेना, लेकिन अब क्या दो मण्डियों के चौराहे पर फंदा लेना होगा? फंदा लेने के बाद भी उन्हें न मर सकने, जान न निकल सकने की नियति झेलनी होगी। भूल जाओ, धुंध भरी समझ के इस चौराहे पर अपने लिए कोई नया रास्ता लेने की बात। लेकिन रास्ते की तलाश तो बढ़ते हुए कुहासे में खो रही है, क्यों हर बार लगता है कि यहां हर सवाल जो गन्दम के बारे में किया जाता है, उसका जवाब चना होता है? करोड़ों लोगों का सवाल था, हमारी गलियों और बाज़ारों में महामारी से मौत होने की धमक का भय कब कम होगा? उपचार के लिए सही दवा कब आएगी? जवाब में उम्मीद भरी खबरें मिलीं, सामाजिक अन्तर रखने का पग़ाम मिला और अपने चेहरों पर मास्क लगाए रखने की सुरक्षा लो। लेकिन कब तक? आज चौराहे पर ऐसे प्रश्न निरुत्तर ठिठके हैं। इन सवालों पर दूसरे सवाल हावी हो गए। पेट में उठती हूक से ये सवाल लज्जित हो पीछे क्यों हट गए? टीआरपी का शोर-शराबा कुछ ऐसा उठा कि मौत के संक्रमण से डरे हुए लोगों धौंकनी सांस उसमें डूब गई। जिनकी लगी लगाई नौकरियां छूट गई थीं, वे तो आज भी बेकार बैठे हैं, लेकिन चिन्ता न करो। इस तबके के लोगों को ऐसे भी जीने की आदत हो गई है।