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मोची-बंधुओं के स्वागत में शिवराज सरकार

-प्रमोद भार्गव-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अनुसूचित जाति के मोचियों को बंधु बनाकर लुभाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। शिवराज सरकार ने मुख्यमंत्री निवास में मोची-सम्मेलन व संत रविदास समारोह के बहाने यह सिलसिला शुरू किया है। इस मौके पर शिवराज ने कहा कि ‘गरीब के चेहरे पर मुस्कान, उसकी इज्जत और सम्मान सुनिश्चित करना राज्य सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। जो सबसे पीछे है, जो गरीब है, उनकी भलाई सरकार के लिए सबसे पहले है। अंत्योदय का यही उत्थान दीनदयाल उपाध्याय का दर्शन है।‘ इस नाते सरकार मोची-बंधुओं के उत्पादों को श्रेष्ठ बनाने के लिए प्रशिक्षण देगी और उत्पाद बेचने के लिए नई नीति का निर्माण करेगी। प्रषिक्षण के साथ सरकार टूल किट भी देगी। ऐसा करने से उत्पादों का आधुनिकीकरण होगा, जाहिर है मांग बढ़ेगी और उत्पादकों को दाम भी अच्छे मिलेंगे। संत रविदास की जयंती धूमधाम से मनाई जाएगी और मोची-बंधुओं को रविदास की जन्मस्थली के दर्षन के लिए बनारस की मुफ्त यात्रा कराई जाएगी। मोची परिवारों को ईंधन के लिए गैस-चूल्हा, बीमारियों से उपचार के लिए आयुष्मान कार्ड और परिवार संबल योजना का लाभ पहले से ही दिया जा रहा है। मोचियों को प्रशिक्षण के लिए क्रिस्प एवं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फुटवियर डिजाइनिंग, नई दिल्ली से प्रशिक्षण दिलाया जाएगा। ‘मुख्यमंत्री पादुका योजना‘ के अंतर्गत उक्त कवायाद की जाएगी। जाहिर है, ये सभी कोशिशें मायावती की कमजोर हो चुकी बहुजन समाज पार्टी के प्रतिबद्ध मतदाताओं को भाजपा से जोड़ने के लिए हैं। ऐसा होता है तो कांग्रेस चारों खाने चित्त दिखाई देगी।
आजादी के 75 सालों में न शिल्पकारों के प्रति पहली बार किसी राज्य सरकार ने मानवीय संवेदनशीलता का परिचय दिया है। अन्यथा पूरे देश में मौजूद दलित की श्रेणी में आने वाले इस जातीय समूह का राजनीतिक दल वोट बैंक के रूप में ही इस्तेमाल करते रहे हैं। प्रदेश में जब इसी जाति से आने वाली मायावती बसपा के हाथी पर सवार होकर राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुई थीं,तब यह उम्मीद बंधी थी कि वे दलित कल्याण के कारगार उपाय करेंगी? लेकिन सोशल इंजीनियरिंग के प्रपंच के बहाने उन्होंने सिर्फ बसपा के विस्तार और स्वयं प्रधानमंत्री बन जाने की महत्वाकांक्षा के चलते दलितों से कहीं ज्यादा सवर्णों की परवाह की। लिहाजा दलितों के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक असमानता जस की तस बनी रही। इन कोशिशों को विपक्ष भले ही राजनीतिक फायदे के लिए दलितों के लुभाने और बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने के उपाय माने, बावजूद इसे प्रगतिशील समाजवादी पहल ही मानी जाएगी।
दरअसल बहुजन समाज पार्टी को वजूद में लाने से पहले कांशीराम ने लंबे समय तक दलितों के हितों की मुहिम डीएस-4 के माध्यम से चलाई थी। इसका सांगठनिक ढ़ांचा खड़ा करने के वक्त बसपा की बुनियाद पड़ी और पूरे हिंदी क्षेत्र में बसपा का संगठात्मक व रचनात्मक ढ़ांचा खड़ा करने की ईमानदार कोषिषें हुई। कांशीराम के वैचारिक दर्षन में डाॅ भीमराव अंबेडकर से आगे जाने की सोच तो थी ही दलित और वंचितों को करिष्माई अंदाज में लुभाने की प्रभावशाली नेतृत्व दक्षता भी थी। यही वजह रही कि बसपा दलित संगठन के रूप में अवतरित हो पाई। लेकिन मायावती की पद एवं धनलोलूप मंशाओं के चलते उन्होंने बसपा में ऐसे बेमेल प्रयोगों का तड़का लगाया कि उसके बुनियादी सिद्धांत चकनाचूर हो गए। नतीजतन दलित और सवर्ण का यह बेमेल समीकरण उत्तर-प्रदेश में तो ध्वस्त हुआ ही,नरेंद्र मोदी के देशव्यापी और योगी आदित्यनाथ के उत्तर-प्रदेश में उदय के साथ पूरे देश में ध्वस्त हो गया। संभव है, यही स्थिति 2023 के विधानसभा चुनाव के मध्य-प्रदेश में दिखाई दे।
ऐसा इसलिए संभव हुआ,क्योंकि मायावती ने उन नीतियों में बदलाव की कोई पहल नहीं की,जिनके बदलने से सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक परिदृष्य बदलने की उम्मीद बढ़ती? यहां तक की मायावती जातीयता के बूते सत्ता हंस्तारण की बात खूब करती रहीं,लेकिन जातियता के चलते अछूत बना दिए गए समुदायों के अछूतोद्धार के लिए उन्होंने आज तक कुछ नहीं किया? जबकि शिवराज सिंह और अन्य भाजपा नेताओं ने मोचियों के साथ बैठकर भोजन किया। इसके उलट उन्होंने अपने शासनकाल में सवर्ण,पिछड़े व मुस्लिमों को लुभाए रखने के नजरिए से उन सब फौजदारी कानूनों को शिथिल कर दिया था,जिनके वजूद में रहते हुए ये लोग दलितों पर अत्याचार करने से भय खाते थे? अनुसूचित जाति,जनजाति अत्याचार निरोधक अधिनियम को माया-राज में ही शिथिल किया गया। इससे दलित उत्पीड़न के आरोपी को दण्ड झेलने से बच निकलने की सुविधा हासिल हो गई थी।
मध्य-प्रदेश में ग्वालियर और उत्तर-प्रदेश में आगरा और कानपुर का पूरा जूता उद्योग मोची कहे जाने वाले शिल्पकारों के दम पर ही आबाद है। मध्य-प्रदेश में अनेक नगर और कस्बों में जूते-चप्पल मोची समुदाय बनाता है। परंपरागत ज्ञान के बूते यह इस कला में इतने कुशल हैं कि देश की नामी-गिरामी जूता बनाने वाली कंपनियां इन्हीं से मनचाहे जूते बनवाकर महज उस पर अपने नाम का ठप्पा लगाती हैं और आकर्षक पैकिंग करके देशभर में ऊंचे दामों पर बेचती हैं। जूते-चप्पलों की मौलिक डिजाइन भी यही लोग रचते हैं। कम पढ़े-लिखे होने और आत्मविश्वास के अभाव में ये लोग अपने उत्पाद की मर्केटिंग नहीं कर पाते। जाहिर है, बजार में उत्पाद को सीधे उतरना इनके बूते की बात नहीं है। इसलिए वाकई यदि सरकार इनका कल्याण चाहती है तो जूता उद्योग को लघु उद्योग का दर्जा दे और इसी समुदाय के लोगों के सहकारी व स्व सहायता समूह बनाकर इनके व्यापार को नई दिशा दे। इस समुदाय के जो युवा बातचीत में निपुण हों,उन्हें वाणिज्य के गुर सिखाने का काम भी प्रदेश सरकार को करना होगा।
इस दिशा में शिवराज सरकार का मोची-बंधुओं को पारंपरिक रोजगार के लिए सुविधाएं व प्रशिक्षण देने का निर्णय भी व्यावहारिक व तार्किक है। क्योंकि इस समुदाय के ज्यादातर कामगारों के पास घरों में ही जूता बनाने की लाचारी है। जूते-चप्पलों की मरम्मत व पॉलिश करने का काम तो ये आज भी फुटपाथों के किनारे खुले में करते हैं। इनके पास अपने उत्पाद बेचने के लिए बाजार में दुकानें नहीं हैं। सम्मानपूर्वक धंधा करने के लिए बाजार में दुकान का होना जरूरी है। गोद लेने की प्रक्रिया के क्रम में इन्हें बैंक से कर्ज दिलाने के हलात से न जोड़ा जाए? क्योंकि यह कार्रवाई पेचीदी तो है ही,रिष्वतखोरी से भी जुड़ गई है। लिहाजा कर्ज के जोखिम में डालकर इनका भला मूमकिन नहीं है?
बहुजन समाज में उन्हें सम्मानजनक दर्जा हासिल कराने की दृष्टि से उन्हें ‘शूद्र’ के कलंक से मुक्ति का जागरूकता अभियान भी चलाने की जरूरत है। डाॅ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘हू वेअर शूद्राज‘ में लिखा है, ‘मुझे वर्तमान शूद्रों के वैदिक कालीन ‘शूद्र ‘ वर्ण से संबंधित होने की अवधारणा पर शंका है। वर्तमान शूद्र वर्ण से नहीं हैं,अपितु उनका संबंध राजपूतों और क्षत्रियों से है।‘ इस तथ्य की पुष्टि इस बात से होती है कि भारत की अधिकांश दलित जातियां,उपजातियां अपनी उत्पत्ति का स्रोत राजवंशीय क्षत्रिय राजपूतों के अलावा ब्राह्मणों में तलाशी हैं। वाल्मीकियों पर किए गए ताजा शोधों से पता चला है कि अब तक प्राप्त 624 उपजातियों को विभाजित करके जो 27 समूह बनाए गए हैं,इनमें दो समूह ब्राह्मणों के और शेश 25 क्षत्रियों के हैं। बहरहाल, मोचियों के कल्याण की प्रक्रिया में सामाजिक समरसता का निर्माण भी अहम मुद्दा होना चाहिए। इसके लिए अतीत को खंगालने की जरूरत है।

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