EducationPolitics

रूस-यूक्रेन युद्ध कहां जाकर रुकेगा?

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

रूस द्वारा यूक्रेन पर किये गये हमले को तीन महीने से ज्यादा का समय हो गया है। पर यह युद्ध रूस-यूक्रेन युद्ध नहीं रह गया है। अमरीका और नाटो देश खुलकर रूस के विरोध में आ गये हैं। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने यूक्रेन को फरवरी से अब तक लगभग 60 अरब डालर की सैनिक व अन्य मदद की है। इसी के साथ यूरोपीय देशों ने भी भारी हथियारों और अन्य तरह की मदद की है। मारियोपोल में लगभग तीन महीने तक अजोवस्तल स्टील कारखाने के नीचे सुरंगों में छिपे कई विदेशी सैनिकों को रूसी सेना ने गिरफ्तार किया है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण गिरफ्तारी कनाडा की सेना के एक लेफ्टिनेंट जनरल की है। अभी तक नाजीवादी गिरोह की अजोव बटालियन के लगभग 2500 लोगों ने रूसी सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। इसमें इनके कमाण्डर भी शामिल हैं। अभी तक ये कमाण्डर दावा कर रहे थे कि वे किसी भी हालत में आत्मसमर्पण नहीं करेंगे।

वे यूक्रेन की ‘आजादी’ के लिए आखिरी सांसों तक लड़ेंगे। यही दावा जेलेन्स्की भी कर रहे थे। अजोव बटालियन के नव-नाजीवादियों के आत्मसमर्पण के बाद जेलेन्स्की अपनी झेंप मिटाने के लिए यह दावा करने लगे कि उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया है बल्कि ‘उन बहादुरों की जान बचाने के लिए’ उनसे अजोवस्तल को खाली करने का आदेश दिया गया है। अजोवस्तल की सुरंगों में उनके कमरों में हिटलर की तस्वीरों सहित कई नाजी चिह्न दिखाई पड़े। इन नव नाजीवादी अजोव बटालियन के लड़ाकुओं ने अपने शरीर पर नाजी चिह्नों व प्रतीकों के टैटू लगाये हुए थे। मारियोपोल में इन अजोव बटालियन व यूक्रेनी सेना के आत्मसमर्पण के बाद अब समूचा मारियोपोल रूसी सेना के नियंत्रण में आ गया है। इसे दोनेत्स्क लोक गणराज्य का हिस्सा बना दिया गया है। रूसी सेना अब समूचे दोनबास इलाके में अपना कब्जा करने के आक्रमण में लग गयी है। करीब 90 प्रतिशत दोनबास का इलाका रूसी कब्जे में आ गया है।

अब पश्चिमी साम्राज्यवादियों का मीडिया मारियोपोल के रूसी कब्जे और अजोव बटालियन के आत्मसमर्पण के मामले में चुप्पी साध चुका है। दूसरी तरफ रूसी साम्राज्यवादी मारियोपोल पर अपने कब्जे को जोर-शोर से प्रचारित कर रहे हैं। वे अजोव बटालियन के नाजीवादी होने का सबूत दुनिया के सामने पेश कर रहे हैं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यूक्रेनी नाजीवादी स्टेफान बंडेरा और स्टेस्टको के उत्तराधिकारी के बतौर आज के नाजीवादी अजोव बटालियन को बताया जा रहा है। यह सही भी है। वे खुद इसका दावा करते हैं। अजोव बटालियन के लोग घोर रूस विरोधी हैं। ये रूसी भाषा भाषियों की हत्याओं के लिए जिम्मेदार हैं। ये श्वेत नस्लवादी हैं। ये रूसियों को अपने से निम्न कोटि का समझते हैं। स्टेफान बंडेरा को अमरीकी खुफिया एजेन्सी सी.आई.ए. और ब्रिटिश खुफिया एजेन्सी एम आई- 6 ने पाला-पोसा था। हिटलर की पराजय के बाद इनका इस्तेमाल सोवियत संघ में तोड़-फोड़ करने के लिए किया गया था। बाद में केजीबी ने स्टेफान बंडेरा की हत्या करा दी थी। आज इसी स्टेफान बंडेरा की यूक्रेन के अलग-अलग शहरों में मूर्तियां लगायी गयी हैं।

एक तरफ, अमरीकी साम्राज्यवादी और उसके नाटो के सहयोगी देश नाटो का विस्तार करने में लगे हैं। वे रूस की सीमा से सटे देश फिनलैण्ड और स्वीडन को नाटो में शामिल करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। दूसरी तरफ, अमरीकी साम्राज्यवादी दुनिया के पैमाने पर रूस और चीन के विरुद्ध घेरेबंदी करने में लगे हुए हैं। अभी हाल ही में अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के साथ क्वाड की बैठक की। इसके साथ ही अमरीका की अगुवायी में एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 12 देशों के साथ इस क्षेत्र के आर्थिक विकास में साझेदारी और सहयोग बढ़ाने के संदर्भ में बैठक की गयी। इन दोनों बैठकों का क्रमशः उद्देश्य रूस और चीन के विरुद्ध इन देशों को लामबंद करना था। क्वाड की बैठक के बाद जारी साझा बयान में रूस की निंदा करने का कोई हवाला नहीं दिया गया। जबकि हकीकत यह थी कि जो बाइडेन ने अपने शुरूवाती बयान में ही यूक्रेन पर रूसी हमले का विरोध करते हुए पूरी ताकत के साथ यूक्रेन की हर तरह से मदद करने की बात की थी। जापान के प्रधानमंत्री किशिदा ने भी इसी से मिलती-जुलती बात की थी। लेकिन भारत और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों ने इस सम्बन्ध में कोई चर्चा तक नहीं की। इस मामले में क्वाड की बैठक सफल नहीं हुई। जो बाइडेन अब दूसरे तरीकों से भारत और आस्ट्रेलिया को प्रभावित करने की कोशिश करते रहेंगे। इस बैठक के अलावा द्विपक्षीय वार्ता में भारत के साथ सम्बन्धों को और ज्यादा प्रगाढ़ करने के सम्बन्ध में चर्चा हुई। भारत के रक्षा क्षेत्र में अमरीकी निवेश सहित कई अन्य मसलों में सहयोग करने की चर्चा हुई।

चीन को घेरने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति ने एक एशियाई-प्रशांत आर्थिक फ्रेमवर्क शुरू करने की घोषणा की। इसमें भारत के अलावा आस्ट्रेलिया, ब्रुनेई, इण्डोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, न्यूजीलैण्ड, फिलीपीन्स, सिंगापुर, थाइलैण्ड और वियतनाम शामिल हैं। इसके पहले चीन ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी का 15 देशों को मिलाकर गठन कर दिया था। चीन का इन सभी देशों के साथ व्यापार काफी ज्यादा है। इसके अतिरिक्त चीन इन देशों के साथ अपनी व्यापक परियोजना बेल्ट और रोड इनीशिएटिव के जरिये जुड़ा हुआ है। ऐसी स्थिति में, दक्षिण चीन सागर और ताइवान के मुद्दे पर अमरीकी साम्राज्यवादी इस क्षेत्र में चीन को घेरने में लगे हुए हैं। अपने क्वाड के शुरूवाती वक्तव्य में ही बाइडेन ने चीन को चेतावनी देते हुए कहा कि यदि चीन ताइवान पर आक्रमण करने की कोशिश करेगा तो अमरीका पूरी ताकत के साथ ताइवान के पक्ष में खड़ा होगा। इसको चीन की सरकार ने अपने अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप कहा और इसका विरोध किया।

इस तरह हम देखते हैं कि अमरीकी साम्राज्यवादी न सिर्फ यूरोप में रूस के विरुद्ध गोलबंदी कर रहे हैं, बल्कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में भी वे रूस और चीन के गठजोड़ के विरुद्ध गोलबंदी करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके जवाब में रूसी साम्राज्यवादी सोवियत संघ के एक समय में हिस्सा रहे देशोंः कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, आर्मेनिया आदि को लेकर बने सुरक्षा संगठन की बैठक करके उनको गोलबंद करने में लगे हैं। इसके अतिरिक्त, यूरेशियाई आर्थिक परिषद को एकजुट किया जा रहा है। रूस और चीन ने मिलकर ब्रिक्स देशों की बैठक की है और इसके विस्तार के लिए चीन के प्रस्ताव को मान लिया गया है। इसमें अर्जेन्टाइना को शामिल करने पर चर्चा हुई है। इसके साथ ही, इन देशों ने मिलकर डॉलर से स्वतंत्र अपनी-अपनी मुद्राओं में व्यापार करना शुरू भी कर दिया है। स्विफ्ट प्रणाली से स्वतंत्र आगे एक नयी बैंकिंग लेन-देन की प्रणाली को विकसित करने की योजना में रूस और चीन काम करना शुरू कर चुके हैं। पश्चिमी एशिया और खाड़ी के तेल निर्यातक देशों पर तेल उत्पादन बढ़ाने के लिए अमरीकी साम्राज्यवादियों के द्वारा डाले गये दबाव को इन देशों ने नहीं माना है और रूस अभी भी ओपेक$ का हिस्सा बना हुआ है।

अमरीकी साम्राज्यवादी अपने नाटो सहयोगियों के साथ मिलकर यूक्रेन के युद्ध की आग में घी डालकर रूसी साम्राज्यवादियों को आर्थिक और सैनिक तौर पर कमजोर करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं व रूसी-साम्राज्यवादियों को राजनैतिक तौर पर अलग-थलग करना चाहते हैं। वहीं रूसी साम्राज्यवादी, चीन और अन्य देशों के साथ मिलकर अमरीकी साम्राज्यवादियों की प्रभुत्व वाली दुनिया को खत्म करके एक बहुध्रुवीय दुनिया को खड़ा करने की मुहिम में यूक्रेन युद्ध में लगे हुए हैं। रूसी साम्राज्यवादी यह अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी लड़ाई जेलेन्स्की से नहीं है। जेलेन्स्की अमरीकी साम्राज्यवादियों का एक मोहरा है। जैसे नव नाजीवादी अजोव बटालियन के लड़ाकू भी अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा खड़ी की गयी ऐसी शक्ति हैं जो उनके हितों के लिए उसी तरह काम करते हैं जैसे आई.एस.आई. करती है। अमरीकी साम्राज्यवादियों की इस लड़ाई में नाटो के अन्य देश उसके सहयोगी बने हुए हैं। लेकिन उनके बीच का यह सहयोग कितने दिन तक टिका रहेगा, इसमें संदेह है।

अमरीकी साम्राज्यवादी और उसके नाटो के सहयोगी देश ऊपरी तौर पर तो अपने को दिलासा देते हुए कहते हैं कि ‘पुतिन के पागलपन’ से नाटो और ज्यादा मजबूत हुआ है। उनका यह कहना एक फर्जी दिखावा है कि अमरीका और नाटो के द्वारा दिए गए हथियारों से यूक्रेन सैनिक तौर पर और ज्यादा मजबूत हुआ है तथा रूस के विरुद्ध जवाबी हमला करने की ओर आगे बढ़ रहा है। उनके अनुसार यूक्रेन की सेना रूसी आक्रमणकारियों को पीछे की ओर धकेल रही है। अपनी मजबूती का प्रमाण दिखाते हुए वे कहते हैं कि रूस से खतरा महसूस करके फिनलैण्ड और स्वीडन ने नाटो में शामिल होने का फैसला कर लिया है। इसके साथ ही वे इस बात की झूठी दिलासा अपने यहां की जनता को दिलाते हैं कि पुतिन की असफलता से रूस की जनता में तानाशाह पुतिन के विरुद्ध असंतोष और गुस्सा इतना तेज भड़कता जा रहा है कि जल्द ही पुतिन की सत्ता को वे उखाड़ फेकेंगे।

इस तरह का झूठ पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों का मीडिया लगातार दुनिया भर में प्रचारित कर रहा है। लेकिन तथ्य क्या कहते हैं? तथ्य ठीक इससे उल्टे बोलते हैं। यह एक सच्चाई है कि अमरीका व अन्य नाटो देशों द्वारा यूक्रेन को भेजे गये लगभग एक तिहाई हथियार ही लड़ाई के मोर्चों पर पहुंचते हैं। दूसरी बात यह है कि मारियोपोल में अजोव बटालियन के आत्मसमर्पण के बाद यूक्रेनी सेना का मनोबल गिर चुका है। वह ज्यादातर जगहों पर पीछे की ओर जा रही है। यह धारणा प्रचलित है कि कमाण्डर शहरों में मस्ती मना रहे हैं और सैनिक अपनी जान दे रहे हैं। कुछ छिटपुट जगहों पर ही यूक्रेनी सेना के जवान रूसी सैनिकों पर हमलावर हो पा रहे हैं लेकिन इससे युद्ध की समूची तस्वीर पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ रहा है। अमरीका और नाटो देशों द्वारा भेजे गये हथियारों का अच्छा खासा हिस्सा, काले बाजार में पहले ही पहुंच जाता है। ये अधिकांशतः बाल्कन देशों विशेष तौर पर कोसोवो और अल्बानिया के काले बाजार में पहुंच जाता है। अमरीकी साम्राज्यवादी यह पहले ही कहते रहे हैं कि उनके पास ऐसा कोई सूचनातंत्र नहीं है कि वे यह पता लगा सकें कि किस हथियार का कहां और किस मात्रा में इस्तेमाल हो रहा है। इसके अतिरिक्त हथियारों की खेप का एक हिस्सा रूसी हवाई हमलों में भण्डारगृहों में ही नष्ट हो जा रहा है।

इसके अतिरिक्त, अमरीका और नाटो देशों द्वारा रूस पर लगाये गये आर्थिक व अन्य प्रतिबंधों ने दुनिया के कई देशों में विशेष तौर पर अफ्रीकी देशों में अकाल और भुखमरी की स्थिति पैदा कर दी है। यह ज्ञात हो कि रूस और यूक्रेन गेहूं, मक्का और खाने का तेल दुनिया भर में निर्यात करते हैं। यह कुल निर्यात का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा होता है। रूस प्रतिबंधों के कारण निर्यात नहीं कर सकता। यूक्रेन के बंदरगाह रूस के हमले की जद में होने के कारण वहां से भी निर्यात नहीं हो सकता। हां, यूरोप के देश हथियारों के बदले यूक्रेन से सस्ता गेहूं सड़क के रास्ते ले जा रहे हैं। यूक्रेन के लोग चाहे भूखे मरें, इसकी उन्हें कहां परवाह है। इस अकाल की स्थिति को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने रूस से भावुक अपील करते हुए अफ्रीका व अन्य क्षेत्र के अकालग्रस्त लोगों तक अनाज भेजने की बात की थी। इसका जवाब रूस की सरकार ने दिया कि आर्थिक प्रतिबंध हट जाने के बाद ही वे ऐसा कर पायेंगे। इन आर्थिक प्रतिबंधों के कारण पैदा हुए अकाल की स्थिति के चलते साम्राज्यवादियों के विरुद्ध गुस्सा बढ़ता जा रहा है। इन प्रतिबंधों के विरुद्ध न सिर्फ भुक्तभोगी जनता बल्कि खुद शासक हो रहे हैं।

रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों के जवाब में जब रूस ने तेल और गैस की आपूर्ति सिर्फ रूबल के माध्यम से करने की बात की, तब नाटो के देशों ने रूबल में खाता खोला। यह प्रतिबंध लगाना खुद नाटो देशों के लिए भारी पड़ गया। नाटो देशों के बीच दरार और चौड़ी होती गयी है। हंगरी, इटली, जर्मनी और फ्रांस और कई देश रूसी गैस और तेल खरीदने में छूट चाहते हैं। कई नाटो देश अपने-अपने हितों को साधने के लिए नाटो के विस्तार का, फिनलैण्ड और स्वीडन को नाटो में शामिल करने का विरोध करते हैं। नाटो देशों में जो रूस विरोधी एकजुटता शुरूवात में दिखाई दे रही थी, अब वह एकजुटता कमजोर होती दिख रही है। अमरीकी साम्राज्यवादियों के एक धड़े को यह समझ में आने लगा है कि युद्ध लम्बा खिंचने के बावजूद रूस को नष्ट करना तो दूर की बात है उसे बहुत ज्यादा कमजोर भी नहीं किया जा सकता। इसलिए अब सुलह-समझौता करने की बात हो रही है। इटली के एक नेता ने तो संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव को समझौते का एक प्रस्ताव भी पेश किया है। हेनरी किसिंजर ने जेलेन्स्की से अपील की है कि वह रूस की शर्तों पर रूस के साथ समझौता कर ले। इसी प्रकार कुछ अमरीकी अधिकारियों ने यह सार्वजनिक तौर पर कहा है कि यह यूक्रेन पर निर्भर है कि वह क्या फैसला लेता है। यदि वह समझौता करता है तो उसे हम स्वीकार करेंगे।

यह बदली हुयी भाषा है। अमरीकी साम्राज्यवादियों व नाटो को ऐसा लगने लगा है कि इस युद्ध से रूस को नष्ट नहीं किया जा सकता। अतः चेहरा बचाने का कोई न कोई रास्ता निकालना चाहिए। यदि ऐसा हो जाता है तो इसे नाटो की एक असफलता के बतौर देखा जायेगा। इस समय नाटो सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है। ऐसा लगता है कि अभी अमरीकी साम्राज्यवादी और ज्यादा रूस को थकाने की ओर ले जाने की कोशिश करेंगे। लेकिन यह कोशिश अमरीकी वर्चस्व वाली दुनिया को भी बदलने की ओर ले जा सकती है। इसी ऊहापोह में यह युद्ध अभी खिंचता जा रहा है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker