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श्रीलंका में संकट

-सिद्धार्थ शंकर-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

श्रीलंका में आर्थिक संकट गहराता जा रहा है। इसकी वजह से पलायन भी जारी है। श्रीलंका में जो हालात हैं, उनमें परिवार चलाना नामुमकिन हो गया है। इससे भी बड़ी बात यह है कि अब बच्चे भी वहां सुरक्षित नहीं हैं। एक सफेद वैन में बच्चों को किडनैप किया जा रहा है। लोगों को डर के साए में जीना पड़ रहा है। लोगों को रोजमर्रा से जुड़ी चीजें भी नहीं मिल पा रही हैं या कई गुना महंगी मिल रही हैं। विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खत्म हो चुका है, जिससे जरूरी चीजों का आयात नहीं कर पा रहा है। अनाज, चीनी, मिल्क पाउडर, सब्जियों से लेकर दवाओं तक की कमी है। पेट्रोल पंपों पर सेना तैनात करनी पड़ी है। 13 घंटे तक बिजली कटौती हो रही है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट ठप हो गया है, क्योंकि बस के लिए डीजल नहीं है। लोगों की रोज सुरक्षा बलों से
झड़पें हो रही हैं, क्योंकि यही पेट्रोल पंप की निगरानी कर रहे हैं। स्कूल-कॉलेज और अस्पताल बंद पड़े हैं। युवाओं के पास रोजगार नहीं है। टूरिज्म सेक्टर भी पहले कोविड की वजह से असर पड़ा और इकोनॉमी की वजह से यह जूझ रहा है। इस बीच, प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने देश को भरोसा दिलाने का प्रयास किया है। रानिल कह रहे हैं कि करीब डेढ़ साल में मुल्क के हालात बेहतर होंगे। महंगाई दर 6 फीसदी के आसपास होगी। श्रीलंका की जनता दो साहूकारों के बीच में फंस चुकी है। एक तरफ चीन जो कर्ज चुकाने के लिए उसका हाथ मरोड़ रहा है और दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आर्थिक नीतियों को बदलने एवं अधिकाधिक आर्थिक लाभ और सुविधाएं लेने के लिए सरकार पर दबाव बना रहा है। श्रीलंका के आर्थिक दुर्गति के पीछे भी वैश्विक घटनाक्रम हैं। वैसे तो श्रीलंका साल 1930 से आर्थिक संकटों का शिकार रहा है। सन 1953 में भी श्रीलंका में राष्ट्रव्यापी हड़ताल हुई थी। 1978 से ही श्रीलंका आर्थिक उदारीकरण के खेल का मैदान बन गया था। जब श्रीलंका ने विश्व व्यापार के लिए खुली छूट देना शुरू कर दिया था, उस समय श्रीलंका के उच्च तबके ने इन नीतियों का खुले दिल से स्वागत किया और उनका सुख भोगा। वैश्विक आर्थिक शक्तियों ने श्रीलंका को एशियाई क्षेत्र में तरक्की का पर्याय बता कर पेश किया। निष्कर्ष के तौर पर श्रीलंका के घटनाक्रम सबक सिखाने वाले हैं। पहला यही कि किसी भी देश को चीन या आईएमएफ और वैश्विक आर्थिक शक्तियों के कर्ज से बचना चाहिए। अंतत: कर्ज स्वतंत्रता के क्षय का कारण बनता है। दूसरा, विदेशी कर्ज किसी न किसी रूप में विदेशी दखल और हस्तक्षेप का कारण बनता है जो कालांतर में देशों में जातीय, धार्मिक, नस्ली या अन्य प्रकार के आंतरिक संघर्षों के बीज बोता है। विदेशी कर्ज देश की आर्थिक व्यवस्था को क्षति पहुंचाता है और वैश्वीकरण के साहूकारों की शर्तों को मानने को लाचार करता है। अब पाकिस्तान भी श्रीलंका की राह पर चलने को आतुर है। वह आईएमएफ के कर्ज के लिए परेशान हो रहा है। उसकी सारी शर्तों को मानने को तैयार बैठा है। वैसे भी पाकिस्तान की हालत श्रीलंका से जुदा नहीं है। आज जो हाल लंका के हैं, वही पाकिस्तान के। न पट्रोल बचा है और न ही बिजली मिल पा रही है। बहरहाल, पहले श्रीलंका और अब पाकिस्तान के हालात से सभी को सबक लेना ही चाहिए।

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