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मुफ्त लो, वोट दो

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने ‘मुफ़्त रेवडिय़ां’ बांटने की राजनीति का मुद्दा उठाया था। मुफ़्तखोरी के जरिए वोट बटोरने की संस्कृति पर सख्त टिप्पणी की थी और ऐसी रेवडिय़ों को देश के विकास के लिए घातक भी करार दिया था। प्रधानमंत्री ने खासकर युवाओं को सावधान करते हुए आह्वान किया था कि हमें इस सोच को हराना और राजनीति से हटाना है। बहरहाल भारत में ऐसी कोई प्रमुख पार्टी नहीं है, जिसने चुनावों के दौरान ‘मुफ्त रेवडिय़ां’ बांटने की सियासत न की हो। इसी प्रचार पर फोकस रखा जाता है-‘मुफ्त ले लो, पर वोट हमें दे दो।’ दरअसल रेवडिय़ां, जन कल्याणकारी योजनाओं और लोक लुभावन नीतियों के बीच एक पतली-सी लकीर है। यदि आम नागरिक की जि़ंदगी, आजीविका, अस्तित्व से जुड़ी कोई परियोजना है और उसे सरकार नि:शुल्क ही मुहैया करा रही है, तो उसे ‘रेवड़ी’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। भारत एक सामाजिक कल्याण की सोच वाला देश है, लोकतंत्र है, जनता के प्रति सरकार के दायित्व हैं।

अर्थव्यवस्था, राजकोषीय घाटा, राष्ट्रीय कजऱ्, जीडीपी और कर-संग्रह बेहद महत्त्वपूर्ण कारक हैं, लेकिन उनके मद्देनजर सरकार जनता को गरीबी और भुखमरी की तरफ नहीं धकेल सकती। प्रधानमंत्री मोदी की सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त अनाज लगातार बांट रही है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए सस्ता अनाज अलग से उपलब्ध कराया जाता रहा है। देश में खाद्य सुरक्षा का कानून है। इसके अलावा, कोरोना-रोधी टीकों की 200 करोड़ से अधिक खुराकें भी नि:शुल्क दी गई हैं और यह सिलसिला अब भी जारी है। आयुष्मान भारत, उज्ज्वला गैस योजना, पक्के घर, नल में जल, शौचालय, किसान सम्मान राशि आदि योजनाएं लगभग नि:शुल्क हैं। उन्हें ‘रेवडिय़ां’ नहीं माना जा सकता, क्योंकि वे राष्ट्रीय स्तर पर, हर राज्य और हर पात्र नागरिक को, मुहैया कराई जा रही हैं। देश में 6-14 साल के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा भी मुफ्त है।

हालांकि शीर्ष अधिकारियों ने प्रधानमंत्री मोदी को सचेत सलाह दी थी कि सितंबर, 2022 तक ‘मुफ्त अनाज’ वाली योजना जारी न रखी जाए, क्योंकि उससे हजारों करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। अर्थव्यवस्था असंतुलित भी हो सकती है, लेकिन कोरोना महामारी के दुष्प्रभावों के मद्देनजर प्रधानमंत्री ने योजना को जारी रखने का फैसला किया। मकसद था कि इस दौर में देश का कोई भी नागरिक भूखा नहीं सोना चाहिए। दरअसल ‘मुफ्त रेवडिय़ों’ में नि:शुल्क बिजली-पानी, इलाज, टीवी, साइकिल, लैपटॉप, स्मार्ट फोन, बाइक, साड़ी, मंगल सूत्र, वाशिंग मशीन, प्रेशर कुकर, मुफ्त परिवहन आदि को गिना जा सकता है, जो विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव के मौके पर परोसते हैं। हालांकि प्रधानमंत्री ने सिर्फ दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल को निशाना बनाते हुए ‘रेवडिय़ों’ की बात नहीं की थी, लेकिन त्वरित प्रतिक्रिया केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी (आप) की तरफ से ही आई है।

राजधानी दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय 4.01 लाख रुपए है। यह खुद दिल्ली के उपमुख्यमंत्री सिसोदिया ने विधानसभा में कहा है। दिल्ली अद्र्धराज्य है। उसके तमाम मोटे खर्च केंद्र सरकार करती है। दिल्ली सरकार एक बड़ी नगरपालिका है। उसे करीब 70,000 करोड़ रुपए का बजट दिया गया है, लेकिन उसके अलावा 9500 करोड़ रुपए अनुदान के तौर पर केंद्र सरकार से लिए जाते हैं। ऐसे कथित राज्य को ‘मुफ्त रेवडिय़ां’ बांटने की जरूरत क्या है? शिक्षा, इलाज आदि केंद्र सरकार मुहैया करवा रही है। दरअसल आने वाले वक़्त में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक केजरीवाल सरकार की अनियमितताओं के खुलासे करेगा। ‘आप’ की पंजाब में सरकार बने चार महीने हुए हैं। पंजाब पर करीब 4 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है, फिर भी राज्य सरकार मुफ्त बिजली, राशन, महिलाओं को 1000 रुपए प्रति माह आदि की ‘रेवडिय़ों’ में जुटी है। पैसा मांगने मुख्यमंत्री दिल्ली में प्रधानमंत्री के पास चले आते हैं। ऐसी मुफ्तखोरी से जन-कल्याण कैसे होगा? राज्य ही ‘दिवालिया’ हो जाएंगे। सर्वोच्च अदालत ने भी ‘रेवडिय़ों’ की सियासत पर अपनी चिंता और सरोकार जताए हैं, लेकिन फिलहाल दखल देने से इंकार कर दिया है। ‘रेवडिय़ों’ की संस्कृति ज्यादातर दक्षिण भारत के राज्यों में दिखी है। तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में मुफ्तखोरी के कई चुनावी वायदे किए गए हैं। उनकी बजटीय स्थितियां हमें ज्यादा नहीं पता हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था तो देश भर की प्रभावित होती है।

 

 

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