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आँख वालों की रेवड़ी आज तो‘रेवड़ी’ का पर्याय बनी राजनीति….?

-ओमप्रकाश मेहता-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

अब तक तो कहावत यही थी कि ‘‘अंधा बांटे रेवड़ी अपने-अपने को दे’’, किंतु अब आज की राजनीति में आँख वाले अपने-अपनों को रेवड़ी बांट रहे है और ऊपर से गरिया रहे है कि- ‘‘देश में रेवड़ी बांटने की राजनीति नहीं चलेगी।’’ अरे भाई मोदी जी आप स्वयं अपनी पार्टी के गिरेबान में तो झांककर देखिये, भाजपा की रेवड़ी का हिसाब किताब समझिये, उसके बाद ऐसी गर्वोक्ति कीजिये? अरे भाई, आज तो रेवड़ी राजनीति का पर्याय बन चुकी है? आपने अपनी पार्टी में कांग्रेस के परिवारवाद को रोकने की कोशिश की, किंतु क्या वह रूक पाया? आज का यही कटु सत्य है कि भाजपा मोदी जी के नाम पर अपना अस्तित्व बनाकर रखना चाहती है, उनकी भावनाओं की कद्र करना नहीं चाहती, अब तक ऐसे कई उदाहरण सामने आए है। पिछले आठ साल इसके गवाह है। इस अवधि में प्रधानमंत्री के रूप में जितने भी क्रांतिकारी फैसले लिए, उनमें क्या भाजपा पूरी तरह उनके साथ रही, बल्कि भाजपा के कई छदम् चेहरों ने उनको अस्वीकार किया, फिर वह चाहे कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का मामला हो या समान आचार संहिता कानूनी अब मोदी जी ने ‘रेवड़ी’ बांटने की बात छेड़ दी, वह भी बिना अपनी पार्टी की विगत पर ध्यान दिये। जिस रेवड़ी की आज बात की जा रही है, क्या कभी स्व. अटल जी तथा वरिष्ठ नेता आड़वानी जी व डाॅ. मुरली मनोहर जोशी जी ने कटाक्ष नहीं किये थे? गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए क्या मोदी जी पर अपनों को रेवड़ियां बांटने के आरोप नहीं लगे थे? अरे भाई…. आज की राजनीति का मुख्य आधार ही ‘रेवड़ी’ है आदरणीय आप उसे कहां-कहां तक रोकेगें?

भारतीय राजनीति में आजादी के बाद से ही ‘रेवड़ियों’ की परम्परा जारी है, फिर वह चाहे प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू का कार्यकाल हो या उनकी बेटी इंदिरा जी का? हर बार पदों और पैसों के रूप में रेवड़ियां बांटी गई। कभी स्वयं को मजबूत करने के लिए तो कभी अपने ‘चमचों’ को? किंतु आज तक भारतीय राजनीति ‘रेवड़ियों’ से अछुती नहीं रही? अब चाहे आदरणीय मोदी जी ने अरविंद केजरीवाल को निशाना बनाते हुए ‘रेवड़ी’ रोकने का संकल्प लिया हो, किंतु क्या इससे ‘रेवड़ियों’ की ‘बंदरबांट’ रूक पायेगी? अब तो भारतीय राजनीति में ‘रेवड़ियां’ इतने अंदर तक समा चुकी है कि उसे मोदी जी तो क्या, कोई भी बाहर नहीं कर सकता और जब ‘रेवड़ी’ के साथ ‘मुफ्त’ लग जाता है तो फिर इसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। इसलिए मान्यवर मोदी जी यदि आपकी भावनात्मक अपील पर आप की स्वयं की पार्टी में ही ईमानदारी से अमल हो जाए तो वह काफी है, किंतु भारत की समूची राजनीति से ‘रेवड़ी’ को बाहर करना बहुत ही दुष्कर कार्य है, क्योंकि भारत की राजनीति सिर्फ भाजपा तक ही सीमित नहीं है, अन्य भी एक दर्जन से अधिक प्रमुख दल है और वे आपके अनुयायी बनें, यह जरूरी नहीं? और…. यदि मौजूदा भारतीय राजनीति का ईमानदारी से गहराई से विश्लेषण किया जाए तो क्या भारतीय राजनीति माँ गंगा की तरह पवित्र है, क्या सत्तारूढ़ हमारे राजनीतिक दल अपने ‘संकल्प-पत्र’ (जिसके बल पर जीत कर आते है) को मूर्तरूप अपनी पार्टी के पैसे से देते है? स्वयं सुप्रीम कोर्ट भी इस मुफ्त रेवड़ियां बांटने की मौजूदा राजनीति पर टिप्पणी कर चुका है, अब चाहे इसे हमारी प्रजातंत्रीय प्रणाली का दोष माना जाए या राजनीतिक ‘सत्ता लिप्सा’ का, किंतु यह तो हमारी आजादी के बाद से ही जारी है और यदि अब ‘अमृत महोत्सव’ के दौर में मोदी जी इस ‘‘रेवड़ी कल्चर’’ को यदि खत्म कर पाते है तो यह भारत को मोदी की सबसे बड़ी ‘देन’ मानी जाएगी।

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