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महंगाई की बढ़ती मार

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

एक बार फिर महंगाई का विश्लेषण करना पड़ रहा है, क्योंकि यह लगातार ‘लक्ष्मण-रेखा’ लांघ रही है। बीते आठ महीनों से खुदरा महंगाई दर 7 फीसदी या उसके आसपास रही है, जबकि भारतीय रिजर्व बैंक ने तय कर रखा है कि यह दर अधिकतम 6 फीसदी से कम होनी चाहिए। सत्ता-पक्ष लगातार दलीलें देता रहा है कि महंगाई दर यूपीए सरकार के कालखंड से बहुत कम है। तब मुद्रास्फीति की दर कई तिमाहियों में दहाई, यानी 10 फीसदी से ज्यादा, होती थी, लेकिन सरकार वाले भूल जाते हैं कि 2014 से पहले ‘महंगाई डायन’ का प्रलाप करते हुए उन्होंने देश को आश्वस्त किया था कि सत्ता बदलेगी, तो महंगाई का प्रकोप भी कम होगा। बेशक कुछ समय यह दर 4-5 फीसदी से कम रही है, लेकिन महंगाई ‘सुरसा’ की भांति बढ़ रही है। कई बार एहसास होता है मानो यह मुद्दा बेमानी हो गया है! केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी सार्वजनिक बयान दिया है कि सरकार के लिए महंगाई कम प्राथमिकता वाला क्षेत्र है, क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय प्रभावों से भी तय होती है। यदि 80 फीसदी से अधिक आबादी के सरोकार वाले विषय पर वित्त मंत्री का अभिमत यह है, तो फिर क्या कर सकते हैं? अंतत: किससे गुहार करें? अगस्त माह में महंगाई दर 7.01 फीसदी रही है। शहरों में फिर भी 7 फीसदी से कम है, लेकिन जिन ग्रामीण अंचलों में ‘भारत’ बसता है, औसत आदमी रहता है, वहां महंगाई दर 7.2 फीसदी से ज्यादा है। कोई भी चीज ऐसी नहीं बची है, जो महंगी न हुई हो। थोक महंगाई दर तो 15 फीसदी से अधिक है।

अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल के दाम, भारतीय बास्केट के संदर्भ में, 110 डॉलर प्रति बैरल से कम होकर 88 डॉलर तक लुढक़ आए हैं, लेकिन पेट्रोल-डीजल अब भी उन्हीं दरों पर बेचे जा रहे हैं। अब तेल की कीमतों को लेकर बाज़ार गायब है और सरकार ने मौन साध रखा है। महंगाई दर के तुरंत प्रभाव स्पष्ट हैं कि रोजमर्रा की सब्जियां 13.23 फीसदी, अनाज 9.57 फीसदी और मसाले 14.90 फीसदी महंगे हो गए हैं। आम रोजमर्रा के सेवन के खाद्य पदार्थों और अन्य वस्तुओं पर सरकार ने जीएसटी लगाने का जो फैसला जुलाई में लिया था, उसके दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे हैं। औद्योगिक उत्पादन चार माह के सबसे निचले स्तर पर आ गया है। जून में जो उत्पादन 12.3 फीसदी था, वह घटकर जुलाई में 2.4 फीसदी के स्तर पर आ गया है। यह नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन की ताज़ा रपट से साफ है। सबसे चिंता की बात है-ग्रामीण मजदूरी की दर का घटना। उधर उसी क्षेत्र में खाद्यान्न महंगाई का बढऩा। यानी ग्रामीण भारत की क्रय-शक्ति घटेगी। नतीजतन सूक्ष्म, लघु उद्यम उद्योगों का क्षेत्र कमजोर होगा। शायद बेरोजग़ारी की दर 8.28 फीसदी होने का बुनियादी कारण यह भी हो! औद्योगिक उत्पादन कम होगा, तो रोजग़ार भी घटेगा, बाज़ार भी प्रभावित होगा और मांग नहीं होगी। यह स्थिति तब है, जब श्राद्धों के बाद त्योहारों का मौसम शुरू होना है।

मांग बढऩी चाहिए, क्योंकि आम उपभोक्ता बाहर निकलता है, तो खरीददारी भी करता है, लेकिन अभी आसार ऐसे नहीं हैं। व्यापार घाटा 2021 की तुलना में लगभग दोगुना हो गया है। निर्यात की स्थिति ऋणात्मक है। निवेश की वास्तविक दर लगातार कम हो रही है। यह सवाल तो वित्त मंत्री ने भी पूछा है कि निवेश करने में संकोच क्यों किया जा रहा है? सरकार के प्रवक्ता महंगाई को लेकर अमरीका और ब्रिटेन से तुलना करने लगते हैं। अमरीका में प्रति व्यक्ति आय 69,000 डॉलर से अधिक है, जबकि भारत में मात्र 2200 डॉलर के करीब है। भारत में 2020 में प्रति व्यक्ति आय का जो स्तर था, अमरीका ने वह 1896 और ब्रिटेन ने 1894 में हासिल कर लिया था। यदि औसत भारतीय की आमदनी भी अच्छी होती, तो महंगाई इतनी न चुभती। कोरोना-काल ने औसत आदमी को गरीब बना दिया है। करीब 3.2 करोड़ लोग मध्य वर्ग से बाहर हो गए हैं। बहरहाल सरकार के पैरोकार अब भी दलीलें दे रहे हैं कि 80 करोड़ लोगों को नि:शुल्क अनाज मुहैया कराया जा रहा है। क्या सितंबर के बाद भी यह व्यवस्था जारी रहेगी? क्या मुफ्त अनाज बांटने से महंगाई की समस्या दूर हो जाती है? सरकार को इस विषय पर चिंता करनी चाहिए।

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