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जरूरी है बेलगाम ‘घोड़ों’ पर अंकुश

-राजेंद्र राजन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

लंबे वक्त से आलोचना, विवाद और साम्प्रदायिक चेहरों में ढलते जा रहे न्यूज़ चैनल्स के कंटेंट, प्रस्तुतिकरण व ‘हेट स्पीच’ को बढ़ावा देने को लेकर 21 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने बेहद नकारात्मक व दूरगामी टिप्पणियां की हैं जो मीडिया में चर्चा का विषय बनी हैं। यह कम खेदजनक नहीं है कि देश की शीर्ष अदालत लगातार भडक़ाऊ व जहर उगलने वाले न्यूज़ चैनलों के विरुद्ध टिप्पणियां कर रही है। ऐसे चैनलों के साथ-साथ सरकार को कटघरे में खड़ा कर रही है। लेकिन न तो सरकार, न ही ये चैनल अपनी कटु आलोचना को गंभीरता से लेकर खुद को सुधारने का कोई संकेत दे रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर सरकार ने सैकड़ों चैनलों को बेलगाम घोड़ों की तरह खुला छोड़ रखा है। अपने गैर जिम्मेदाराना कंटेंट लोकतांत्रिक संस्थाओं को तहस-नहस करते रहे हैं। देश 75 साल बाद आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है और नफरती भाषण, साम्प्रदायिक वैमनस्य व देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को तार-तार करने का एजेंडा पराकाष्ठा पर है। सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा, यह जानना जरूरी है। कोर्ट ने न्यूज चैनलों पर होने वाली बहस की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाते हुए नाराज़गी व्यक्त की है और टीवी चैनलों को कड़े शब्दों में फटकार लगाई है। कोर्ट ने अपनी ‘आब्जर्वेशन’ में कहा कि आज देश भर में संचालित बहुधा न्यूज़ चैनल भडक़ाऊ बयानबाजी का प्लेटफार्म बन गए हैं। प्रेस की आज़ादी अहम है, मगर बिना रेगुलेशन के टीवी चैनल हर स्पीच का माध्यम बन चुके हैं। जस्टिस केएम जोसेफ ओर जस्टिस ऋषिकेश रॉय की बैंच ने ये चिंताजनक टिप्पणियां की हंै। कोर्ट का मानना है कि विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता ‘हेट स्पीच’ का फायदा उठा रहे हैं। ऐसे नेताओं को टीवी चैनल मंच प्रदान कर रहे हैं। आज देश भर में ये चैनल और राजनेता नफरती भाषणों से चल रहे हैं।

चैनलों को पैसा मिलता है, इसीलिए वे नेताओं के नफरती भाषणों को हिंदू-मुस्लिम डिबेट्स के ज़रिए देश के साम्प्रदायिक सौहार्द को बिगाडऩे का काम कर रहे हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया चैनलों के लिए रेगुलेटरी संस्था नदारद है। एंकर अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर रहे हैं। एंकर नेताओं या पैनलिस्ट के भडक़ाऊ भाषणों को नियंत्रित करने की बजाय उनके लिए खुला मैदान छोड़ देते हैं। इससे सख़्ती से निपटा जाना चाहिए। एंकर की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। अगर किसी एंकर की कार्यक्रम में हेट स्पीच या भडक़ाऊ कंटेंट है तो उसे तुरंत रोक देना चाहिए या नफरती कंटेंट फैलाने वाले पैनलिस्ट पर जुर्माना लगाना चाहिए। न्यूज चैनलों के भडक़ाऊ स्पीच को लेकर गत अनेक सालों से न्यायालय टिप्पणियां कर रहे हैं, लेकिन सरकार मूकदर्शक बनी हुई है। ये कोई मामूली मुद्दा नहीं है जिसे नजरअंदाज किया जा सकता है। चैनलों की अभद्र भाषा पर सरकार क्यों चुप है? सुप्रीम कोर्ट में नफरती भाषणों को लेकर अनेक याचिकाएं लंबित हैं और इन पर बहस जारी है। कोर्ट ने बार-बार चेताया है कि प्रेस की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है, लेकिन हमें यह पता होना चाहिए कि रेखा कहां खींचनी है। हेट स्पीच का दिमा$ग पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। समुदायों में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास पैदा होता है व असुरक्षा की भावना की परतें गहरी होती जाती हैं। सरकार का मूल कत्र्तव्य मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाना है, न कि उसे भय और आतंक के माहौल में झोंकना। हमारे ज्यादातर लोकतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की क्या परवाह होगी।

न्यूज चैनल्स नफरती आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। ऐसा कोर्ट का मानना है। दु:खद यह कि जो व्यवस्था व सत्ता सुप्रीमकोर्ट की गरिमा, मान-सम्मान व उच्च मूल्यों या परंपराओं को बनाए रखने में विफल रही हो, उसे न्यूज चैनल्स की अभद्र व गैऱ संसदीय भाषा इस बात का प्रतीक है कि उन्हें सत्ता का संरक्षण प्रात है। वे दिन-रात सत्तारूढ़ दलों का गुणगान करते रहते हैं। राजनीतिक दलों की धु्रवीकरण की नीतियों की आलोचना करने की बजाय चैनल ऐसे दलों की विचारधारा, एजेंडे व नफरती भाषणों को जन-जन तक पहुंचाने के संवाहक बने हुए हैं। कोर्ट बार-बार इलेक्ट्रानिक मीडिया को आगाह कर रहा है कि उसे अभद्र भाषा का प्रयोग करने की आजादी नहीं है। ये चैनल राजनीतिक दलों के नेताओं के विवादास्पद बयानों को ढाल बनाकर देश को ‘विभाजित’ करने के नापाक काम में संलिप्त हैं। उनके सूत्र ये नेता ही हैं जिनकी बदजुबानी से देश स्तब्ध है। कोर्ट ने कहा है कि हेट स्पीच के मामले में यूके में एक चैनल पर भारी जुर्माना लगाया गया था। लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। यानी यहां फ्री फार ऑल है। मीडिया की विश्वसनीयता के लिहाज़ से भारत विश्व के 150वें स्थान पर है। इसलिए चूंकि भारत में प्रेस की ‘अति’ आजादी से संकट है न कि संविधान में वर्णित अभिव्यक्ति की आज़ादी के उच्च मानदंडों से। मीडिया का मूल दायित्व है देश व समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण का निर्माण। लेकिन हो इसके विपरीत रहा है। नेताओं व धार्मिक मठाधीशों के नफरती भाषणों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे देश हिंदू-मुस्लिम समुदायों में तनाव, आतंक, असुरक्षा बढऩे का खतरा मंडराने लगता है।

देश भर में जब कहीं दंगों की चिंगारियां फूटती हैं तो घोर साम्प्रदायिकता का पर्याय बन चुके चैनलों को आम लोग जिम्मेदार ठहराने लगते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है मानो दंगों के गुनहगार टीवी स्टूडियो में बैठे हों और वे कठपुतलियों की तरह $खास विचारधारा के नेताओं के इशारों पर नाच रहे हैं। जब-जब सुप्रीम कोर्ट ऐसे टीवी चैनलों को लताड़ते हैं या फटकार लगाते हैं, ये चैनल सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को ब्लैक आऊट कर देते हैं। उल्टे चैनलों को अपनी ही आलोचना की खबरों को प्रसारित कर आत्मविश्लेषण करना चाहिए। इस मायने में एनडीटीवी के रवीश कुमार अपवाद हैं जो अकेले ही गोदी मीडिया के विरुद्ध मोर्चा संभाले हुए हैं। सच्चाई यह है कि सामाजिक सरोकारों, दायित्व व आमजन के प्रति संवेदनशीलता से कोसों दूर चैनल्स हर वक्त सनसनी और विवाद की प्रतीक्षा में रहते हैं। टीआरपी बढ़ाने के वास्ते ये नामाफिक और विचारधारा विरोधी पैनलिस्टों पर क्रूरता और उनके उत्पीडऩ तक उतर आते हैं। बलात्कार, हत्या, दंगों, नेताओं व धार्मिक मठाधीशों के दुव्र्यवहार व नफरत को वे भुनाने के लिए तत्पर रहते हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी का बेज़ा इस्तेमाल कोई भी देश सहन नहीं कर सकता। ऐसा प्रतीत होता है डैमोक्रेसी की जड़ों को पुख़्ता करने की बजाय टीवी चैनल्स उसकी जड़ों में नफरतों का तेज़ाब भर रहे हैं। ऐसे चैनलों के संपादकों, एंकरों और मालिकों पर यूएपीए अथवा अन्य उचित कानूनों के तहत मामले दर्ज होने चाहिए। साथ ही नूपुर शर्मा जैसे नेताओं व प्रवक्ताओं पर कार्रवाई की देश को प्रतीक्षा है।

 

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