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कांग्रेस चुनाव : सब के मुनाफे का सौदा

-राजेन्द्र शर्मा-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

कांग्रेस के अध्यक्ष का फैसला चुनाव से होने भर का खबरों की सुर्खियों में रहना, हमारे देश में मुख्यधारा की पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र के भारी घाटे की ओर ही इशारा करता है। और जाहिर है कि पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र का यह घाटा या अभाव सिर्फ बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियों के वंशवादी या एक ही नेता उसके परिवार पर केंद्रित होने का ही नतीजा नहीं है, जबकि प्रधानमंत्री मोदी हमसे ठीक यही मनवाना चाहते हैं।

इसे भारतीय राजनीति की और खासतौर पर भारतीय जनतंत्र की विडंबना ही कही जाएगी कि कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष का चुनाव महीनों से सुर्खियों में है। बेशक, इसमें टिप्पणीकारों की दिलचस्पी होना अस्वाभाविक नहीं है कि कैसे करीब दो दशक बाद, गांधी परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का अध्यक्ष बनने जा रहा है। इसमें भी टिप्पणीकारों की दिलचस्पी होना स्वाभाविक है कि गांधी परिवार से बाहर के किसी नेता के अध्यक्ष बनने से भी, इस राजनीतिक पार्टी में निर्णयकारी शक्तियों का संतुलन कितना बदल सकता है या नहीं बदलेगा। लेकिन, यह दिलचस्पी अगर खुद सत्ताधारी पार्टी समेत, मुख्यधारा की तमाम राजनीतिक पार्टियों में यानी कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर सारी ही राजनीतिक पार्टियों में आम तौर पर अंदरूनी जनतंत्र का जैसा अकाल है, उसकी ओर से आंखें ही मूूंदे रहे, तो उसे कम से कम जनतंत्र की ईमानदार चिंता नहीं माना जा सकता है।

वास्तव में कांग्रेस के अध्यक्ष का फैसला चुनाव से होने भर का खबरों की सुर्खियों में रहना, हमारे देश में मुख्यधारा की पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र के भारी घाटे की ओर ही इशारा करता है। और जाहिर है कि पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र का यह घाटा या अभाव सिर्फ बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियों के वंशवादी या एक ही नेता उसके परिवार पर केंद्रित होने का ही नतीजा नहीं है, जबकि प्रधानमंत्री मोदी हमसे ठीक यही मनवाना चाहते हैं। सच्चाई यह है कि पार्टियों में आंतरिक जनतंत्र का यह अभाव कथित वंशवादी पार्टियों तक सीमित भी नहीं है। उल्टे खुद वर्तमान सत्ताधारी पार्टी का और जाहिर है कि आज की मुख्य विपक्षी पार्टी का भी, प्रकटत: वंशवादी पार्टियां न होते हुए भी, आंतरिक जनतंत्र के इस घाटे में कोई कम योगदान नहीं है। यह इसके बावजूद है कि सन् 2000 में सोनिया गांधी के चुनाव के बल पर अध्यक्ष बनने के बाद बीते दो दशक से ज्यादा में कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी के ही बने रहने से भिन्न, भाजपा में अध्यक्ष पद पर वर्तमान अध्यक्ष नड्डïा से पहले आडवाणी से लेकर राजनाथ सिंह, वैंकेया नायडू, गडकरी, अमित शाह तक रह चुके हैं, लेकिन यह भी उसके आंतरिक जनतंत्र के घाटे को कम करने के लिए काफी नहीं है।

उल्टे वास्तव में भाजपा में आंतरिक जनतंत्र का घाटा तो दूसरी सभी पार्टियों से ज्यादा बुनियादी है। बहुत संक्षेप में कहें तो यह देश की ऐसी अकेली बड़ी पार्टी है, जो अपने संविधान व कार्यक्रम से संचालित न होकर, अपने से बाहर के एक संगठन यानी आरएसएस से संचालित होती है। यह सिर्फ आरोप या आलोचना का मामला नहीं, एक ऐसी सच्चाई है जिससे इंकार ही नहीं किया जा सकता है। यह कोई नहीं भूल सकता है कि इमर्जेंसी के खिलाफ संघर्ष के फलस्वरूप, जब जनता पार्टी बनी थी, जिसने केंद्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार भी बनाई थी, भाजपा की पूर्ववर्ती, जनसंघ समेत कई कांग्रेसविरोधी पार्टियों के विलय से ही बनी थी। लेकिन, विलय के बाद इस नयी पार्टी का हिस्सा रहते हुए भी जनता पार्टी के पूर्ववर्ती जनसंघ घटक के, आरएसएस द्वारा नियंत्रण की स्थिति बनाए रखने पर बजिद होने के सवाल पर ही, जो ”दुहरी सदस्यता” के सवाल के रूप में सामने आया था, जनता पार्टी बंट गई थी और बाद में उसकी सरकार भी चली गई थी।

उक्त प्रसंग के बाद, वर्तमान भाजपा के गठन के बाद भी, यह स्थिति किसी भी तरह बदली नहीं। भाजपा और आरएसएस, नियंत्रित तथा नियंत्रक के अपने रिश्ते से चाहे लाख इंकार करें, इस सच्चाई को छुपाया नहीं जा सकता है। इस रिश्ते का एक महत्वपूर्ण साक्ष्य तो यही है कि भाजपा में विभिन्न स्तरों पर, अति-महत्वमूर्ण माना जाने वाला संगठन मंत्री का पद, सीधे तथा प्रकटत: आरएसएस के नियंत्रण में काम करने वाले, प्रचारकों के लिए ही सुरक्षित रखा जाता है, जो निर्णय-प्रक्रिया में एक प्रकार का वीटो का अधिकार रखते हैं। लेकिन, यह सिर्फ महत्वपूर्ण सांगठनिक पद आरएसएस द्वारा अपने पास रखे जाने का ही मामला नहीं है। सभी जानते हैं कि किस तरह वाजपेयी-उत्तर दौर में, भाजपा के ”दिल्ली केंद्रित नेताओं” की भाजपा पर जकड़ को कमजोर करने के लिए, आरएसएस ने पूरा जोर लगाकर दिल्ली-ग्रुप से बाहर से, अपने विशेष चहेते नितिन गडकरी को भाजपा अध्यक्ष के पद पर बैठाया था। इसके साथ भाजपा में कथित ”दिल्ली ग्रुप” का जैसा पराभव हुआ, वास्तव में उसने ही आडवाणी की दावेदारी को नकार कर, नरेंद्र मोदी को 2014 के चुनाव में भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कराया था। जाहिर है कि मोदी के पक्ष में यह फैसला कराने के लिए भी, आरएसएस प्रमुख ने सीधे हस्तक्षेप किया था।

इस लिहाज से मौजूदा सत्ताधारी पार्टी में आंतरिक जनतंत्र का घाटा, दूसरी सभी पार्टियों के आंतरिक जनतंत्र के घाटे से गुणात्मक रूप से भिन्न और घातक है। जनतंत्र के इस घाटे को समय-समय पर पार्टी अध्यक्ष बदलने से भी पूरा नहीं किया जा सकता है क्योंकि निर्णयों का रिमोट तो पार्टी से बाहर के एक संगठन के हाथों में है और एक गैर-रजिस्टरशुदा संगठन होने के नाते, यह संगठन तो चुनाव के किसी दिखावे की भी जरूरत नहीं समझता है। इस सब को देखते हुए, भाजपा को अपने मूल चरित्र में ही अलोकतांत्रिक पार्टी कहा जाएगा। बेशक, भाजपा नेतृत्व के ”दिल्ली ग्रुप” का प्रसंग, इसका भी साक्ष्य है कि एक नियंत्रित पार्टी और उसके बाहरी नियंत्रणकारी संगठन के इस रिश्ते में भी खींचतान तथा टकराव की स्थितियां भी आती होंगी। लेकिन, अंतत: फैसला नियंत्रक संगठन के ही हाथ में रहता है।

राजनीतिक पार्टियों के आंतरिक जनतंत्र के इस प्रसंग में, एक पहलू और याद रखा जाना चाहिए। स्वतंत्रता के संघर्ष के दौर में हमारे देश में सामने आई राजनीतिक पार्टियां, जिनमें कांगे्रस और कम्युनिस्ट पार्टी तथा बाद में बनी समाजवादी पार्टी प्रमुख हैं, सुस्पष्टï राजनीतिक कार्यक्र्रमों के आधार पर, लोगों के स्वेच्छा से एकजुट होने से बनी पार्टियां थीं। बहरहाल, देश के स्वतंत्र होने के बाद बनी अनेक क्षेत्रीय पार्टियों में, जिनमें से अनेक उक्त पार्टियों से अलग हुए नेताओं ने ही बनाई थीं, राजनीतिक कार्यक्रम को सीमित तथा गौण बना दिया गया और नेता को ही सबसे प्रमुख।

दूसरी ओर जनसंघ तथा आगे चलकर भाजपा जैसी पार्टियों ने, अपने वास्तविक कार्यक्रम को ही छुपाने तथा एक प्रकार से आउटसोर्स करने के जरिए, राजनीतिक कार्यक्रम को ही निरर्थक बना दिया। इससे ठीक उलट, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां न सिर्फ राजनीतिक कार्यक्रम तथा मुख्य नीतिगत दिशा तय करने में अपनी कतारों की जानकारीपूर्ण हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के जरिए अपना जनतांत्रिक सार स्थापित करती हैं बल्कि उक्त निर्णय के ही विस्तार के रूप में, निर्वाचित प्रतिनिधियों के जरिए, परोक्ष चुनाव पद्घति से हरेक तीन साल पर नेतृत्व का चुनाव भी करती हैं।

इसके विपरीत, पिछली सदी के आखिरी दशक से नवउदारवादी नीतियों के अपनाए जाने के बाद से तो, मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के लिए तो कार्यक्रम ही बेमानी हो गए हैं। ऐसा इसलिए है कि इस दौर में राजनीतिक पार्टियों के लिए, चालू नीतिगत ढर्रे से भिन्न, कुछ करने की गुंजाइश ही लगभग खत्म हो गई है। आर्थिक नीतियों व निर्णयों के मामले में तो यह बात खासतौर पर लागू होती है। यहां भी एक वामपंथ ही है जो इस कंसेंसस को लागातार चुनौती देते हुए, कोई विकल्प पेश करने की कोशिश करता रहा है, जबकि अधिकांश राजनीतिक पार्टियों के लिए तो, नीति तथा कार्यक्रम के प्रश्नों को ही जैसे कोर्स से बाहर ही कर दिया गया है।

सिर्फ सत्ता तथा नेतृत्व के प्रश्न ही कोर्स में रह गए हैं। यह बड़ी तेजी से मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियों को नीति, कार्यक्रम तथा जनतंत्र-मुक्त कर रहा है और वास्तव में राजनीतिक र्पािर्टयों को ही रेत के ऐसे भुरभुरे टीलों में तब्दील कर रहा है, जिनके शीर्ष पर तानाशाह बैठे हैं और नीचे जमीन खोखली है। भाजपा भले ही इससे, चुनावी जीतों से भी बढ़कर खरीद-फरोख्त के सहारे विरोधी पार्टिर्यों, नेताओं, जनप्रतिनिधियों को हड़प करने के जरिए विपक्ष-मुक्त भारत का अपना सपना पूरा होने की उम्मीद लगाए, यह भारत के जनतंत्र-मुक्त होने का ही रास्ता है।

इन हालात में अगर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी में बाकायदा अध्यक्ष का चुनाव हो रहा है, तो उसका मजाक उड़ाने के बजाय, पार्टियों के अंदरूनी जनतंत्र के लिए एक अच्छी खबर की तरह इसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए और भी ज्यादा है कि सारे लक्षण इसी के हैं कि खड़गे और शशि थरूर के बीच वाकई चुनावी मुकाबला होने जा रहा है, जिसमें कांग्रेस के लगभग दस हजार निर्वाचित प्रतिनिधि हिस्सा लेंगे और वर्तमान नेतृत्व, विशेष रूप से गांधी परिवार, कम से कम प्रकटत: इस मुकाबले में तटस्थ बना रहने जा रहा है। इस पूरी प्रक्रिया से चुनकर आए कांग्रेस अध्यक्ष के पास, कम से कम कुछ अथॉरिटी जरूर होगी और इससे कांग्रेस का नेतृत्व कुछ न कुछ मजबूत ही होगा।

हां! इससे किसी को यह भ्रम भी नहीं होना चाहिए कि नये अध्यक्ष के चुनाव का अर्थ, कांग्रेस के नेतृत्व का ही पूरी तरह से न सही, मुख्यत: बदल जाना होगा। जाहिर है कि गांधी परिवार, इस अध्यक्ष चुनाव के बाद भी कांग्रेस के नेतृत्व का सबसे बड़ा निर्णयकारी घटक रहने जा रहा है। उधर चूंकि अब तक सारे लक्षण, खड़गे के ही काफी अंतर से चुने जाने के हैं, जिसका संकेतक तमिलनाडु में शशि थरूर के लिए बुलाई गई प्रचार बैठक में, राज्य से कांग्रेस के करीब 700 प्रतिनिधियों में से, 12 का ही पहुंचना है, चुनाव से हासिल सत्ता के बाद भी खड़गे से कम से कम, वर्तमान नेतृत्व की उपेक्षा कर के मनमाने तरीके से महत्वपूर्ण फैसले लेने की उम्मीद नहीं की जाती है।

यानी इस चुनाव से सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी में नेतृत्व की निरंतरता या स्थिरता बनी रहने के साथ ही, कुल मिलाकर नेतृत्व की अथॉरिटी में कुछ बढ़ोतरी ही होने जा रही है। इससे एक पार्टी के रूप में कांग्रेस को और आम तौर पर विपक्ष को भी, इस चुनाव से कुछ न कुछ लाभ ही हो सकता है, कोई नुकसान नहीं। हां! जब तक कांग्रेस नवउदारवादी रास्ते के मोह को छोड़कर, आम आदमी तथा खासतौर पर वंचितों के हितों को आगे बढ़ाने के, अपने आजादी की लड़ाई से निकले कार्यक्रम की किसी न किसी रूप में पुनर्खोज नहीं करती है, तब तक ऐसे किसी चुनाव से किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद किसी को नहीं करनी चाहिए।

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