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ऋषि सुनक के सामने चुनौतियां

-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

भारतीय मूल के ऋषि बिना किसी मुकाबले के अंतत: इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बन गए। इसे भी संयोग ही कहा जा सकता है कि उनकी पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने का निर्णय दिवाली के दिन किया। ऋषि का परिवार जिला गुजरांवाला से ताल्लुक रखता है, जिसे इंग्लैंड के शासक हिंदुस्तान छोडऩे से पहले पाकिस्तान का नाम देकर अलग देश बना गए थे। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर मित्र राष्ट्रों ने, जिसमें उस समय इंग्लैंड प्रमुख भूमिका मे था, कुछ देशों को विभाजित कर दिया था, जिसमें जर्मनी और कोरिया प्रमुख देश थे। लेकिन उनके विभाजन के कारण युद्ध से ताल्लुक रखते थे। इसी प्रकार इंग्लैंड ने भारत में से अपना बोरिया बिस्तर समेटते समय भारत को भी विभाजित कर दिया था। विभाजन के बाद और उसके पहले अनेक लोग विभिन्न स्थानों को प्रवास कर गए थे। पंजाब के इस खत्री परिवार का भी यही किस्सा था। यह परिवार विभाजन से पहले ही केन्या चला गया था, जहां पहले ही बड़ी संख्या में भारतीय बसे हुए थे। केन्या से ही यह परिवार इंग्लैंड जाकर बस गया। अवसरों की तलाश में स्थान -स्थान पर घूमते हुए यह परिवार अपनी जड़ों से जुड़ा रहा।

ऋषि के पिता ने इंग्लैंड में एक मंदिर का निर्माण करवाया। ऋषि की शादी प्रसिद्ध उद्योगपति नारायण मूर्ति की बेटी अक्षता मूर्ति से हुई। अक्षता हुबली की हैं। लेकिन ऋषि इंग्लैंड की राजनीति में इतनी तेजी से उभरेंगे, ऐसी शायद किसी को आशा नहीं थी। ऋषि कंजऱवेटिव पार्टी के सांसद हैं, जबकि इंग्लैंड में बसे ज्यादा भारतीय वहा लेबर पार्टी का समर्थन करते हैं। इंग्लैंड पिछले कुछ अरसे से आर्थिक क्षेत्र में भयानक मंदी से जूझ रहा है। यूरोपीय संघ से बाहर निकल आने के बाद, कोरोना की मार झेलते-झेलते लंदन की हालत पतली हो गई। महंगाई चरम सीमा पर पहुंच गई। पौंड लुढक़ने लगा। सरकारी वित्तीय संस्थाओं की हालत बिगडऩे लगी। आर्थिक क्षेत्र में आए इस चक्रावात ने देश के दो-दो प्रधानमंत्रियों की बली ले ली। बेचारी लिज़ ट्रस तो 44 दिन में ही हथियार डाल कर इस्तीफा दे गईं। कंजऱवेटिव पार्टी के सदस्यों ने कुछ दिन पहले ही ऋषि के मुकाबले लिज़ ट्रस को प्रधानमंत्री चुना था। परंतु उसके गद्दी संभालने पर वित्तीय स्थिति और बिगड़ गई। उसने जल्दी ही हथियार डाल दिए और इस बार कंजऱवेटिव पार्टी ने ही 42 वर्षीय ऋषि के आगे हथियार डाल दिए। जब ऋषि ने घोषणा की कि वे इंग्लैंड के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार हैं, तो पार्टी के भीतर किसी में भी उतना साहस नहीं था कि वे ऋषि को चुनौती दे सकें।

पुराने प्रधानमंत्री बोरिस जोहनसन ने शुरू में तो कहा कि वे भी मुकाबले में हैं लेकिन हालत की नजाकत को भांपते हुए वे जल्दी ही पल्ला झाड़ गए। पैनी मोरडेंट ने कुछ देर हाथ पैर मारे लेकिन वह भी जल्दी समझ गई कि लोगों का विश्वास बढ़ता जा रहा है कि यदि कोई इंग्लैंड को आर्थिक मंदी के दलदल से बाहर निकाल सकता है या फिर उसके लिए ईमानदारी से प्रयास कर सकता है तो वह ऋषि ही है। 1947 में जब अंग्रेज भारत छोड़ कर जा रहे थे, तो लंदन में लेबर पार्टी ने सरकार बनाई थी। कंजऱवेटिव पार्टी के मुखिया चर्चिल ने व्यंग्य करते हुए कहा था कि भारतीय इतने योग्य नहीं हैं कि वे अपना देश संभाल सकें। इसे इतिहास का व्यंग्य ही कहा जाएगा कि आज 2022 में वही कंजऱवेटिव पार्टी कह रही है कि यदि इंग्लैंड को वर्तमान संकट में से कोई उभार सकता है तो वह भारतीय मूल का ऋषि सुनक ही है। लेकिन गोरी चमड़ी के देशों की दृष्टि में एक भारतीय मूल का ‘पर्सन ऑफ कलर’ इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बन गया है। केवल इतना ही नहीं एक ‘हिंदू’ इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बन गया। पुरानी अखबारों की कतरनें तलाशी जा रही हैं। ऋषि ने सांसद बनने पर भगवद्गीता की सौगंध खाई थी। गुबार बहुत हैं लेकिन फिलहाल तो इंग्लैंड को डूबने से बचाना ही प्राथमिकता है।

इंग्लैंड को लगता है यह काम ऋषि ही कर सकता है। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपने पहले संबोधन में यह स्वीकारा भी है कि मैं पूरी ईमानदारी से प्रयास करूंगा कि इंग्लैंड पुन: अपने बल पर खड़ा हो सके। हमने जो कर्जा देना है, वह हम स्वयं चुकाएं न कि आने वाली पीढिय़ों के गले मढ़ दें। लेकिन उन्होंने इंग्लैंड के लोगों से आग्रह किया है कि उन्हें भी कुछ सीमा तक संकट सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। क्योंकि प्रयास तभी सफल होंगे यदि देश के नागरिक साथ देंगें। भारत में बहुत से लोग आशा करने लगे हैं कि ऋषि के प्रधानमंत्री बनने से भारत और इंग्लैंड दोनों देशों में परस्पर हितों के लिए सहयोग बढ़ेगा। दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार की सुविधा दी जाएगी। ऐसा होना दोनों देशों के लिए लाभकारी होगा, परंतु ध्यान रखना चाहिए ऋषि की प्राथमिकता लंदन है, दिल्ली नहीं। ऐसा होना भी चाहिए। यदि ऋषि लंदन में सफल हो जाते हैं तो निश्चय ही इससे भविष्य में भारत को भी लाभ होगा। आज इक्कीसवीं सदी में भारत व इंग्लैंड के बीच प्रतिद्वंद्विता नहीं है। दोनों देश इस संकट में एक दूसरे देश की मदद कर सकते हैं। ऋषि के कार्यकाल में यह संभव हो सकेगा ऐसी आशा करनी चाहिए। ऋषि के प्रधानमंत्री बनने से भारत में अतिरिक्त उत्साह है। जबकि इससे पहले भी अनेक देशों में भारतीय मूल के अनेक व्यक्ति राजनीति के उच्च पदों पर हैं या रह चुके हैं। पंजाब में मलेरकोटला मूल के बैंबीनो जिंदल अमरीका के लुईजिय़ाना प्रांत के राज्यपाल बन गए थे। लेकिन वे अपने भारतीय मूल को लेकर गौरवान्वित नहीं थे, बल्कि उस पर शर्मिंदा होते थे। ऋषि के मंत्रीमंडल में ही बरेवरमैन भारत में गोवा मूल की है लेकिन वह भारतीयों पर हमला करने का कोई अवसर नहीं छोड़तीं। भारतीय मूल के ऐसे महानुभावों पर भारत में खुशी कैसे मनाई जा सकती है।

वे अब केवल तकनीकी कारणों से ही भारतीय मूल के बचे हैं। ऋषि का मामला इसके विपरीत है। उन्होंने अपने मूल की सांस्कृतिक पहचान को नकारा नहीं है, बल्कि सार्वजनिक रूप से स्वीकारा है। भारत में खुशी का आलम उसी बजह से है। ऋषि बाहर का होते हुए भी अपना है। लेकिन कुछ लोग अपने होते हुए भी बाहर के बन जाते हैं। ऋषि के प्रधानमंत्री बनने पर केवल भारत में ही नहीं बल्कि जहां-जहां भारतीय मूल के लोग बसे हैं वहां-वहां उत्साह देखा गया है। समाजशास्त्री मानते हैं कि जब कोई देश किसी दूसरे देश को अपना उपनिवेश बनाता है, तो उस उपनिवेश से शासित नागरिक शासक देश में जाने लगते हैं। शासक देश इसको रोक नहीं सकता। लेकिन एक समय ऐसा आता है जब शासित देश की संस्कृति शासक देश में भी पैर ही नहीं जमा लेती, लेकिन उस देश के मूल लोगों में भी जडें जमाने लगती है। इतिहास के चक्र में एक ऐसा अवसर भी आता है जब शासित देश के लोग शासक देश में प्रभुता हासिल कर लेते हैं। लगता है इंग्लैंड के इतिहास में वह दिन आ गया है।

 

 

 

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