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राहुल का संघ-मुक्त भारत

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद राहुल गांधी ने एक बार फिर दावा किया है कि यदि वह सत्ता में आए, तो सरकारी और संवैधानिक संस्थानों को आरएसएस-मुक्त कर देंगे। उनका यह भी सपना है कि भारत आरएसएस और भाजपा-मुक्त हो। उनके आरोप पुराने और घिसे-पिटे हैं, जिनके आधार पर वह देश को संघ परिवार से मुक्ति दिलाना चाहते हैं। वह संघ और प्रधानमंत्री मोदी के नाम का प्रलाप करते रहे हैं, लेकिन देश को मुक्ति के बजाय कांग्रेस पार्टी हाशिए पर चली गई है। देश की जनता ने राहुल गांधी के आरोपों और उनकी राजनीति को लगातार खारिज किया है। ऐसा ही गंभीर आरोप उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या के मद्देनजर लगाया था और संघ को ‘हत्यारा’ साबित करने की कोशिश की थी। नतीजतन उन्हें सर्वोच्च अदालत के सामने लिखित माफी मांगनी पड़ी थी। बहरहाल अब राहुल गांधी का मानना है कि आरएसएस और भाजपा देश को तोड़ रहे हैं। वे नफरत फैलाने के काम कर रहे हैं। हिंसात्मक गतिविधियों में संलिप्त रहे हैं।

इन संगठनों को इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। राहुल गांधी का यह आकलन न जाने किस सर्वेक्षण या शोध पर आधारित है कि ज्यादातर संवैधानिक और सरकारी संस्थानों पर संघ परिवार का अघोषित कब्जा हो चुका है, क्योंकि 2014 में भाजपा की मोदी सरकार आने के बाद संघ परिवार के स्वयंसेवकों की भर्तियां सरकारी प्रतिष्ठानों में की जाती रही हैं। सरकार में वामपंथी, नक्सलवादी, हिंदू विचारधारा, समाजवादी-लोकतांत्रिक, महिलावादी, मज़दूरवादी आदि न जाने कितनी विचारधाराओं के कर्मचारी काम करते हैं। उनके श्रम संगठन भी बने हुए हैं। गाहे-बगाहे वे आंदोलित भी होकर सडक़ों पर उतरते रहे हैं। सरकारी अधिकारी और कर्मचारी चयन के निश्चित मानदंड हैं। उन्हीं के आधार पर वे सरकार का हिस्सा बनते हैं। फिर केंद्र सरकार के अधीन तो 60-62 लाख कर्मचारियों की ही गुंज़ाइश है। उनमें से भी रिक्त पदों की संख्या लाखों में है। यदि कुछ संघी किस्म के लोग सरकार में भर्ती किए जाते रहे हैं, तो वह सरकार के विशेषाधिकार की परिधि में ही होगा। उससे बाहर जाएंगे, तो अदालत की चुनौतियां सामने होंगी। यह राहुल गांधी, कांग्रेस और कथित धर्मनिरपेक्षवादियों की पुरानी राजनीति रही है कि सांप्रदायिकता और देश को तोडऩे-बांटने में संघ और भाजपा को आरोपित किया जाता रहा है। आश्चर्य है कि धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा बेहद संकीर्ण है। हिंदू की बात करना ‘सांप्रदायिक’ है और मुसलमान का पक्ष लेना ‘धर्मनिरपेक्ष’ है।

दिलचस्प है कि यह परिभाषा संविधान ने तय नहीं की है। विपक्षियों का आरोप रहा है कि संघ परिवार भारत को एक ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने पर आमादा है। यह राजनीति लगातार नाकाम भी साबित हुई है, क्योंकि भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों की देश के 17-18 राज्यों में सरकारें हैं। देश के 50 फीसदी से ज्यादा हिस्से पर भाजपा शासन में है। हालांकि आरएसएस एक हिंदू राष्ट्रवादी, सामाजिक, सांस्कृतिक गैर-सरकारी संगठन है, जिसका विस्तार भारत के अलावा 40 अन्य देशों में भी है। क्या संघ परिवार उन्हें भी तोडऩे-बांटने की कोशिश करता रहा है? आरएसएस के 80 से अधिक समविचारक या आनुषांगिक संगठन हैं। देश के लगभग प्रत्येक हिस्से में संघ की करीब 57,000 शाखाएं हर रोज़ लगती हैं, जिनमें लाखों लोग शिरकत करते हैं। यदि राहुल गांधी और कांग्रेस के पास ठोस प्रमाण हैं कि संघ और भाजपा नफरत और हिंसा के जरिए देश को तोड़ रहे हैं, तो उन्हें तुरंत सर्वोच्च अदालत की चौखट खटखटानी चाहिए। निर्वाचन आयोग में जाकर भाजपा की मान्यता रद्द कराने की याचिका देनी चाहिए। हिंदू विचारधारा देशद्रोही काम नहीं है। उसके मतावलंबी करोड़ों में हैं। यदि राहुल आशंकित हैं कि सरकारी संस्थान और न्यायपालिका तक बिक चुके हैं, तो उन्हें संसद सदस्यता से इस्तीफा दे देना चाहिए, क्योंकि राहुल को लगता है कि लोकतंत्र और संविधान भी समाप्त हो चुके हैं। यह आरोप वह कई बार लगा चुके हैं। लोकतंत्र और संविधान हैं, तो राहुल सांसद हैं। उनकी पार्टी कांग्रेस का भी अस्तित्व है और स्वतंत्र वैचारिकता भी है। वे ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के जरिए मोदी सरकार के खिलाफ अभियान जारी रखे हुए हैं। राहुल को अब राजनीतिक तौर पर परिपक्व होना चाहिए।

 

 

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