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चीन पर बंटी संसद

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में जो कुछ हुआ, उस पर हमारी संसद में जमकर हंगामा किया गया। विपक्ष ने दोनों सदनों से, अंतत: वॉकआउट किया। विपक्षी सांसद न केवल लाल-पीले होते रहे, बल्कि अनर्गल आरोप चस्पां करते रहे कि भारतीय क्षेत्र के इतने गांवों पर चीन ने कब्जा कर लिया है। चीन हमारी सीमा के भीतर इतने किलोमीटर अंदर तक घुस आया है। विपक्ष संयुक्त संसदीय समिति गठित करने का आग्रह कर रहा है, जिसे तवांग क्षेत्र का दौरा करने की अनुमति दी जाए। ओवैसी ने भी तवांग जाने की इज़ाज़त मांगी है, ताकि देखा जा सके कि उस सेक्टर का यथार्थ क्या है? संसद में किसी भी जन-प्रतिनिधि ने हमारे जांबाज सैनिकों के पराक्रम और चीनी सैनिकों को पीट-पीट कर खदेड़ देने के साहस पर तालियां नहीं बजाईं। सैनिकों का अभिनंदन नहीं किया। किसी ने संतोष जाहिर नहीं किया कि तवांग सेक्टर की स्थिति यथावत भारत के पक्ष में है और ऊंची-ऊंची पहाडिय़ों पर हमारी सैन्य चौकियां सुरक्षित हैं और हमारा कोई भी सैनिक ‘शहीद’ नहीं हुआ है।

विपक्षी सांसदों को हमारी अपनी सेना के पलटवारों पर कोई भरोसा नहीं है, क्योंकि वे प्रफुल्लित हैं कि तवांग के रूप में ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ का एक उपजाऊ मुद्दा उनके हाथ लग गया है और वे प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा को धूल चटाने की सियासत कर सकेंगे। सांसदों को आभास तक नहीं है कि चीनी सेना के मंसूबे और आक्रमण कारगिल सरीखे थे और वे 17,000 फुट ऊंची हमारी चौकियों से सैनिकों को खदेड़ कर उन पर काबिज होना चाहते थे। चीनी सेना ने भोर में 3 बजे के करीब हमला किया। साफ है कि वह पूर्व नियोजित था। चीनी सेना की आक्रामकता कुछ दिन पहले से ही स्पष्ट होने लगी थी, जब उसने ड्रोन का भी इस्तेमाल किया। बहरहाल चीन के तमाम मंसूबे नाकाम रहे, लेकिन हमारी संसद खुश नहीं है। सांसद यह भी नहीं जानते होंगे कि चीन यह विवाद जि़ंदा रखना चाहता है, क्योंकि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) परिभाषित नहीं है और चीन उसे नक्शे पर ‘मार्क’ भी करने को तैयार नहीं है। चीन नक्शे के मुद्दे को अनिश्चित और अस्पष्ट रखना चाहता है। अब तो उसने इस सीमा-विवाद पर बात करना ही छोड़ दिया है। यह खुलासा भारत के पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीपी मलिक ने किया है। चीन निरंकुश और विस्तारवादी होता जा रहा है। चूंकि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे को मान्यता दी थी, लिहाजा चीन अरुणाचल को भी दक्षिण तिब्बत का एक भाग मानता है और अरुणाचल पर दावेदारी करता रहा है। क्या ऐसी ऐतिहासिक गलतियों को हम भूल जाएं, जिनके अंजाम हम आज भी झेल रहे हैं? आखिर नेहरू की चीन में इतनी दिलचस्पी क्या और क्यों थी? बेशक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता का मामला बहुत पुराना हो चुका है, लेकिन आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने चीन की सदस्यता की पैरोकारी, बल्कि जिद, की थी। नतीजतन भारत आज भी सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने को, एक लंबे अंतराल से, हाथ-पांव मार रहा है।

संयुक्त राष्ट्र ने 1974 तक चीन को ‘वीटो पॉवर’ भी नहीं दी थी, क्योंकि वह किसी लोकतांत्रिक देश को देने का पक्षधर था। अंतत: चीन को यह पॉवर देनी पड़ी, जिसका वह लगातार दुरुपयोग करता रहा है। जनरल मलिक के अलावा, शीर्ष सैन्य अधिकारी रहे कुछ और रक्षा विशेषज्ञों का भी मानना है कि एलएसी को नक्शे पर परिभाषित नहीं किया गया है, लिहाजा भारत-चीन के बीच सभी 6-7 समझौते बेमानी हैं। भारत सरकार को उन समझौतों को फिलहाल स्थगित कर देना चाहिए। दरअसल विडंबना यह है कि मोदी सरकार चीन के खिलाफ रणनीतिक स्तर पर कोई भी फैसला ले और प्रयास करे, विपक्ष उससे असंतुष्ट और असहमत ही रहता है। ऐसे रणनीतिक और संवेदनशील मामलों पर सार्वजनिक स्पष्टीकरण नहीं दिए जा सकते, कांग्रेस भी यह समझती है। उससे दुश्मन देश तक बहुत कुछ ‘लीक’ हो सकता है, लेकिन तवांग पर भारतीय संसद बंटी रहने पर ही आमादा है। देश के हित में यही ठीक है कि ‘विभाजित राजनीति’ न की जाए।

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