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‘यात्रा’ से अलग विपक्ष

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

यकीनन विपक्षी एकता पर अब बड़ा सवालिया निशान स्पष्ट होने लगा है। सभी छोटे-बड़े राजनीतिक दलों के स्वार्थ, लक्ष्य और उनकी सियासत अलग-अलग है। वे उन्हीं में खुश और संतुष्ट रहना चाहते हैं। बयानबाजी के निशाने पर, बेशक, प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा हैं, लेकिन एक भी गोलबंद प्रयास अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है कि विपक्ष एक साझा राजनीतिक लड़ाई लडऩे और भाजपा को पराजित करने के मूड में है। कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ नए साल में 3 जनवरी को उप्र में प्रवेश करेगी। फिलहाल यात्रा दिल्ली में विश्राम कर रही है। उप्र देश का सबसे बड़ा राज्य है और वहां से 80 सांसद चुन कर लोकसभा में आते हैं। जाहिर है कि दिल्ली का दरवाज़ा लखनऊ के बाद ही खुलता है, लिहाजा कांग्रेस ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, सपा विधायक शिवपाल यादव, बसपा प्रमुख मायावती और महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा, भाजपा सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे दिनेश शर्मा को प्रोफेसर होने के नाते, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर आदि को न्योता भेजा है कि वे ‘यात्रा’ में शामिल हों। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्रियों-डॉ. फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती-ने न्योता कबूल कर लिया है। वे यात्रा के अंतिम चरण में, जम्मू-कश्मीर में, जुड़ेंगे, लेकिन अन्य नेताओं ने या तो न्योता न मिलने की बात कही है अथवा वे यात्रा में शामिल नहीं होंगे।

उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तो सवाल किया है कि आखिर भाजपा को हरा कौन सकता है? राहुल गांधी के विचार अच्छे हो सकते हैं, लेकिन यह आकलन भी महत्वपूर्ण है कि ज़मीन पर कौन, कहां मौजूद है? राजनीतिक ताकत किसकी ज्यादा है? इसी तरह तेलंगाना में मुख्यमंत्री एवं ‘भारत राष्ट्र समिति’ के अध्यक्ष के. चंद्रशेखर राव ने कांग्रेस की यात्रा से जुडऩा मुनासिब नहीं समझा। आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी तो क्यों शामिल होते, क्योंकि वह कांग्रेसी दंश और उपेक्षा झेलने के बाद ही अलग हुए थे। एक और पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने भी फिलहाल कांग्रेस से दूरी बनाए रखी है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस पार्टी के प्रति, ज़हरीली स्थिति में है और लगातार कोसती रही है, लिहाजा पार्टी की अध्यक्ष एवं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी यात्रा का अघोषित बहिष्कार किया था। महाराष्ट्र में एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार कांग्रेस नेता राहुल गांधी को ‘अपरिपक्व’ करार देते आए हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि विभिन्न क्षेत्रीय दल, कांग्रेस की छतरी तले जुटने में, परहेज क्यों करते रहे हैं? कांग्रेस आज भी विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन कांग्रेस और राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने को विपक्ष एकमत नहीं है। हालांकि खुलकर विरोध भी नहीं किया जा रहा है, लेकिन कथित एकता का प्रयास भी नदारद है।

विपक्षी दलों को एहसास है कि वे अलग-अलग ‘तिनके के समान’ हैं, लेकिन विपक्षी एकता में वे अपना वर्चस्व छोडऩे को राजी नहीं हैं। ममता के अपने दावे हैं, चंद्रशेखर राव अपने स्तर पर एकता के छुटपुट प्रयास करते रहे हैं, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सभी विपक्षी दलों की एकता के आह्वान करते रहे हैं, उन्होंने सोनिया गांधी समेत विपक्ष के कई नेताओं से मुलाकातें भी की थीं, लेकिन निष्कर्ष अभी तो ‘शून्य’ है। दिलचस्प यह है कि आज भी कांग्रेस 2014 से पहले वाले यूपीए को याद कर गदगद रहती है। उसे उम्मीद है कि अंतत: विपक्ष उसी के नेतृत्व में लामबंद होगा। कांग्रेस का एक तबका ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को 2024 के आम चुनाव से जोड़ कर देखने के खिलाफ है, लेकिन एक और तबका स्वप्न देख रहा है कि 2024 में राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री होंगे! इस बीच मणिशंकर अय्यर सरीखे वरिष्ठ कांग्रेस नेता भी हैं, जो अखंड, मजबूत भारत के स्थान पर मान रहे हैं कि भारत आज टूट रहा है। क्या यह विचार यात्रा के खिलाफ नहीं है? कुछ विपक्षी नेता यात्रा से भावनात्मक तौर पर जुड़ रहे हैं, लेकिन विपक्षी एकता और राहुल गांधी के नाम पर खामोश हो जाते हैं। इससे विपक्षी एकता की संभावनाएं ही क्षीण होती हैं। अंतत: 2024 के मद्देनजर विपक्षी एकता कब और कैसे होगी, यह देखना दिलचस्प होगा, अलबत्ता छिन्न-भिन्न विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के लिए छोटी-सी भी चुनौती साबित नहीं हो सकता।

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