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फिर हिंदू-मुस्लिम मुद्दे

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

आजकल कुछ विवादित मुद्दे देश की फिजाओं में तैर रहे हैं। साधु-संतों की आवाज़ मुखर होती जा रही है कि सनातन धर्म को ‘राष्ट्रीय धर्म’ का दर्जा दिया जाए। अचानक सुर्खियों में आए ‘बागेश्वर धाम’ के धीरेन्द्र शास्त्री बार-बार मांग कर रहे हैं कि भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ और ‘रामचरितमानस’ को ‘राष्ट्रीय ग्रंथ’ घोषित किया जाए। इसका विरोध करते हुए समाजवादी पार्टी शूद्रों, पिछड़ों, महिलाओं की पैरोकारी कर रही है और महान संत महाकवि तुलसीदास को कटघरे में ला खड़ा किया है। असम में बाल-विवाह का मुद्दा एकदम उभरा है और कानून को लांघने वाले 2278 आरोपितों को गिरफ्तार भी किया गया है। मुस्लिम तबका चीख रहा है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने प्रस्तावित समान नागरिक संहिता को ‘अलोकतांत्रिक’ करार दिया है। चेतावनी के अंदाज़ में सरकार को कहा भी है कि मुसलमान इसे लागू नहीं होने देंगे। इस मुद्दे के जरिए मुस्लिम बोर्ड ने मांग की है कि 1991 का ‘उपासना स्थल कानून’ लागू रखा जाए, क्योंकि धार्मिक आज़ादी का अधिकार संविधान ने दिया है। सरकार उसका सम्मान करे। मुस्लिम लॉ बोर्ड ने यह भी टिप्पणी की है कि देश में नफरत का ज़हर घोला जा रहा है।

यदि भाईचारा ही खत्म कर दिया गया, तो देश का बहुत बड़ा नुकसान होगा। सारांश यह है कि पूरा माहौल हिंदू बनाम मुसलमान बनाया जा रहा है। इसी के आधार पर हर पक्ष अपने वोट बैंक को संबोधित करता लग रहा है। ओवैसी सरीखे मुस्लिम नेता और उनके पार्टी-प्रवक्ता, बहस के विभिन्न मंचों पर, यह गिनवा रहे हैं कि तलाक दिए बिना ही हिंदू महिलाओं को छोड़ा जा रहा है। यह भी तोहमत चस्पा की जा रही है कि हिंदू संगठनों, साधु-संतों के जरिए भाजपा धर्म की सियासत खेल रही है। यही उसका 2024 के आम चुनाव का एजेंडा है। दरअसल भारत का ही दुर्भाग्य है कि वह लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश है। धर्मनिरपेक्षता के मायने मुसलमान हैं। यदि कोई सनातन, हिंदू धर्म का वैचारिक विमर्श शुरू करता है, तो वह सांप्रदायिक है और नफरत का ज़हर घोल रहा है। विडंबना यह है कि देश का बजट संसद में पेश किया जा चुका है।

उस पर बिंदुवार चर्चा करने को कोई भी राजी नहीं है। देश के विकास, उसकी अर्थव्यवस्था, औद्योगिक उत्पादन, निर्यात, बुनियादी ढांचे, बजटीय घाटे, बेरोजग़ारी, महंगाई, गरीबी, किसानी पर बहस करने और समाधान के रास्ते दिखाने को कोई भी तैयार नहीं है। दुर्भाग्य है कि इन मुद्दों पर चुनाव तय नहीं होते। चुनाव हिंदू-मुसलमान, जाति और कथित राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द ही तय होते रहे हैं। इनके अलावा, समान नागरिक संहिता का प्रावधान संविधान में है। उसे समवर्ती सूची में रखा गया है। अर्थात केंद्र और राज्य सरकारें अपनी सोच और सुविधा के मुताबिक कानून बना सकती हैं। भारत सरकार फिलहाल समान नागरिक संहिता पर कोई कानून बनाने की प्रक्रिया में नहीं है। संसदीय जवाब में यह स्पष्ट किया जा चुका है। अभी नया विधि आयोग इस पर सर्वेक्षण कराएगा और फिर अपनी अनुशंसा सरकार को भेजेगा। तब तक 2024 के आम चुनाव सामने होंगे। फिर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कार्यकारिणी इस मुद्दे पर क्यों तिलमिलाई है और इसे ‘अलोकतांत्रिक’ भी करार दे दिया है? सब कुछ चुनावों के मद्देनजर किया जा रहा है, क्योंकि 9 राज्यों में विधानसभा चुनावों का मौसम शुरू हो चुका है। कुछ ही दिनों में त्रिपुरा, नगालैंड, मिजोरम में चुनाव हैं। इस सियासत पर विराम लगना चाहिए, क्योंकि हम सब भारतीय हैं।

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