
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
कई राज्यों के राजभवन चर्चाओं में रहे हैं, क्योंकि वे विपक्षी दलों की राज्य सरकारों के रास्ते में कांटे बिछाते रहे हैं। राज्यपाल एक अदद भाजपा कार्यकर्ता की तरह काम करते हैं और विवादों को जन्म देते रहे हैं। संविधान ने राज्यपाल की अहम भूमिका परिभाषित की है, लेकिन वक़्त के साथ-साथ राज्यपाल ‘दिल्ली दरबार’ के एजेंट की भूमिका निभाते रहे हैं। इस मुद्दे पर व्यापक विमर्श की गुंज़ाइश है। हमारा संविधान किस मॉडल पर आधारित है, उसकी नैतिकता महत्वपूर्ण है अथवा संवैधानिक मूल्य अनिवार्य हैं! इस पर संविधान सभा से लेकर संसद के विभिन्न सत्रों तक कई बहसें हुई हैं। ताज़ातरीन उदाहरण जस्टिस अब्दुल नज़ीर का है, जिन्हें सर्वोच्च अदालत से सेवानिवृत्ति के बाद आंध्रप्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया है।
‘राष्ट्रपति भवन’ ने जिन 13 राज्यपालों, उपराज्यपाल की नियुक्तियां की हैं, उनमें पूर्व न्यायाधीश एक ही हैं, जबकि सेना के दो पूर्व जनरलों को भी यह संवैधानिक पद दिया गया है। जस्टिस नज़ीर की नियुक्ति पर खूब चीखा-चिल्ली मची है। व्याख्याएं की जा रही हैं कि मोदी सरकार ने उन्हें, उनके सरकार-सम्मत न्यायिक फैसलों के लिए, पुरस्कृत किया है। यह फिजूल सियासत और विवादबाजी है। जस्टिस नज़ीर की न्यायिकता, धर्मनिरपेक्षता, तटस्थता और संवैधानिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। उन्हें ‘बिका हुआ न्यायाधीश’ तक करार दिया गया है। आखिर यह अस्वीकार्यता और विरोध क्यों किया जा रहा है? क्या किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को राज्यपाल या किसी अन्य संवैधानिक पद पर विराजमान नहीं किया जा सकता? यह अकेला, एकमात्र और सर्वप्रथम मामला नहीं है। कांग्रेस सरकारों में ‘जस्टिस गवर्नर’ और पूर्व जनरलों को राज्यपाल बनाया जाता रहा है। देश का उपराष्ट्रपति भी बनाया गया है।
राज्यसभा में भी रिटायर्ड न्यायाधीशों को भेजा जाता रहा है। दरअसल यह गलत तब होता, जब संविधान में स्पष्ट उल्लेख होता कि एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश या सैन्य जनरल अमुक अवधि तक कोई भी पद ग्रहण नहीं कर सकता। इसके अलावा, राज्यपाल बनाए जाने के लिए जो भी नियम-कानून हैं, उनका पालन किया गया है। दरअसल जस्टिस नज़ीर अपने न्यायिक कार्यकाल में करीब 200 न्यायिक पीठों के सदस्य रहे। उनके जरिए 93 महत्वपूर्ण और लीक से हटकर न्यायिक फैसले सुनाए। अयोध्या विवाद पर जिस संविधान पीठ ने 2019 में राम मंदिर के पक्ष में फैसला देते हुए 500 से ज्यादा सालों पुराने विवाद को खत्म किया था, जस्टिस नज़ीर उस पीठ के सदस्य थे। मुसलमान होने के बावजूद उन्होंने राम मंदिर निर्माण के पक्ष में फैसला सुनाया। कट्टरपंथी और कठमुल्ला चेहरों ने इसीलिए उनका विरोध किया और पीएफआई सरीखे संगठन ने उन्हें और उनके परिवार को जान से मारने की धमकी दी, लिहाजा सरकार को उन्हें ‘ज़ेड’ श्रेणी की सुरक्षा देनी पड़ी। राम मंदिर के अलावा, नोटबंदी, तीन तलाक, निजता के अधिकार संबंधी संवेदनशील मामलों में भी उन्होंने फैसले दिए। ‘तीन तलाक’ पर तो उन्होंने न्यायिक पीठ से अलग फैसला दिया और ‘तीन तलाक’ को ‘अलोकतांत्रिक’ करार देने से इंकार कर दिया। बहरहाल आज मुस्लिम झंडेवरदार उन्हें ‘सच्चा मुसलमान’ मानने को तैयार नहीं है। कुछ ऐसा ही व्यवहार पूर्व राष्ट्रपति एवं ‘भारत-रत्न’ डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम सरीखी मुस्लिम शख्सियतों के साथ भी किया गया, जिन्होंने संप्रदाय से बढक़र भारत राष्ट्र को महत्त्व दिया।