EducationPolitics

गंगा सफाई न्याय और लोकतंत्र का मुद्दा

-कुमार कृष्णन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

आज 22 फरवरी है। आज ही के दिन बिहार में अस्सी के दशक में गंगा को पानीदारों यानी जलकर जमींदारों से मुक्त कराने के संघर्ष गंगा मुक्ति आंदोलन का आगाज हुआ था। यदि 1974 के बाद के अहिसंक आंदोलन की चर्चा करें तो उनमें गंगा मुक्ति आंदोलन प्रमुख आंदोलन है। इस आंदोलन के प्रणेता अनिल प्रकाश के मुताविक-‘‘बोध गया का भूमि मुक्ति संघर्ष अपनी सफलता का एक चरण पूरा कर चुका था। तभी कहगांव के मछुआरों और वहां के अन्य पुराने साथियों ने मुझे कहलगांव भागलपुर बुलाया। जहां गंगा के जमींदारों के शोषण और अत्याचार से त्रस्त मछुआरे अपनी मुक्ति की लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। सन् 1982 में जब मैं कहलगांव गया और गंगा की लहरों ने मुझे खींच लिया। तब से आज तक जब भी किसी नदी के किनारे जाता हूं या समुद्र तट पर खड़े होकर निहारता हूं तो एक खास तरह के आकर्षण की अनुभुति से गुजरने लगता हूं। नदियों के किनारे की बस्तियों में, मिट्टी के घरों और फूंस की झोपड़ियों में लोगों के साथ बरसों- बरस तक गुजरे दिन हमारे जीवन के अनमोल दिन हैं। वहां काफी कुछ सीख्नने को मिला,आगे का रास्ता दिखाई पड़ा और मन को बड़ी ताकत मिली। नाविक, मछुआरे साथियों,दियारे किसानों, मछली बेचनेवाली महिलाओं और भैंस दुहनेवालों के साथ नाव पर बैठकर गंगा की लहरों में घूमते हुए जो अनुभव मिले,वे ज्ञान चक्षु को खोलनेवाले थे। रात में नाव पर सोते जागते, कतार से लगी नावों पर मछली पकड़नेवालों के बच्चों से बतियाते, उन्हें पढ़ाते हुए,उनके साथ गाते, खेलते बहुत कुछ सीखा। सघर्षों और आंदोलनों के बीच से बहुत से सवाल पैदा हुए। पानी और जमीन के सामंती रिश्ते से लड़ते हए स्त्री-पुरूष्र समानता, जाति प्रथ्रा के उन्मूलन, सांप्रदायिक सदभाव के लिए जी जान से लगे थ्रे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते प्रभ्राव,साम्राज्यवादी विकास प्रणाली के खतरे की पहचान होने लगी थ्री। पदूषित होती नदियां, बाढ़ और जल- जमाव का बढ़ता प्रकोप,उसर होते खेत,रोजगार के साधनों से उजड़ते लोगों की पीड़ा और आक्रोश से पनपे संघर्ष ने हमारी वैचारिक दिशा का निर्माण किया।’’ बिहार के भागलपुर जिले के कहलगांव स्थित कागजी टोला इस आंदोलन का साक्षी है। कहलगांवकी फेकिया देवी उस आंदोलन की गवाह है, जिसने दस वर्षो के अहिंसात्मक संघर्ष के फलस्वरूप गंगा को जलकर जमींदारी से मुक्त कराने में कामयावी हासिल की।
बिहार और झारखंड में सबसे अधिक लंबा प्रवाह मार्ग गंगा का ही है। शाहावाद के चौसा से संथालपरगना के राजमहल और वहां से आगे गुमानी तक गंगा के संगम तक गंगा का प्रवाह 552 किलोमीटर लंबा है।गंगा बिल्कुल बिहार और झारखंड की भूमि में ही अपने प्रभूत जल को फैलाती है एवं इसकी भूमि को शस्य श्यामला करती हुई बहती है। इस स्थिति का आकलन करते हैं तो मछुआरे, किसानों, नाविकों और पंडितों की जीविका का आधार है गंगा।
गंगा के किनारे बसे मछुआरों ने गंगा को प्रदूषित होते हुए देखा है, उसकी दुर्दशा देखी है और इसे बनते हुए देखा है। 1993 के पहले गंगा में जमींदारों की पानीदार थे, जो गंगा के मालिक बने हुए थे। सुल्तानगंज से लेकर पीरपैंती तक 80 किलोमीटर के क्षेत्र में जलकर जमींदारी थी। यह जमींदारी मुगलकाल से चली आ रही थी। सुल्तानगंज से बरारी के बीच जलकर गंगा पथ की जमींदारी महाषय घोष की थी। बरारी से लेकी पीरपैंती तक मकससपुर की आधी-आधी जमींदारी क्रमषः मुर्षिदाबाद, पश्चिम बंगाल के मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक और महाराज घोष की थी। हैरत की बात तो यह थी कि जमींदारी किसी आदमी के नाम पर नहीं बल्कि देवी-देवताओं के नाम पर थी। ये देवता थे श्री श्री भैरवनाथ जी, श्री श्री ठाकुर वासुदेव राय, श्री शिवजी एवं अन्य। कागजी तौर जमींदार की हैसियत केवल सेवायत की रही है।
सन् 1908 के आसपास दियारे के जमीन का काफी उलट-फेर हुआ. जमींदारों के जमीन पर आये लोगों द्वारा कब्जा किया गया. किसानों में आक्रोष फैला। संघर्ष की चेतना पूरे इलाके में फैले जलकर जमींदार इस जागृति से भयभीत हो गये और 1930 के आसपास ट्रस्ट बनाकर देवी -देवताओं के नाम कर दिया. जलकर जमींदारी खत्म करने के लिए 1961 में एक कोशिश की गयी भागलपुर के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर ने इस जमींदारी को खत्म कर मछली बंदोबस्ती की जवाबदेही सरकार पर डाल दी। मई 1961 में जमींदारों ने उच्च न्यायालय में इस कार्रवाई के खिलाफ अपील की और अगस्त 1961 में जमींदारों को स्टे ऑडर मिल गया। 1964 में उच्च न्यायालय ने जमींदारों के पक्ष में फेसला सुनाया तथा तर्क दिया कि जलकर की जमींदारी यानी फिशरिज राइट मुगल बादशाह ने दी थी और जलकर के अधिकार का प्रश्न जमीन के प्रश्न से अलग है। क्योंकि जमीन की तरह यह अचल संपत्ति नहीं है। इस कारण यह बिहार भूमि सुधार कानून के अंतर्गत नहीं आता है। बिहार सरकार ने उच्च न्यायालय के फेसले के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की और सिर्फ एक व्यक्ति मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को पार्टी बनाया गया। जबकि बड़े जमींदार मुसर्रफ हुसैन प्रमाणिक को छोड़ दिया गया। 4 अप्रैल 1982 को अनिल प्रकाश के नेतृत्व में कहलगांव के कागजी टोला में जल श्रमिक सम्मेलन हुआ और उसी दिन जलकर जमींदारों के खिलाफ संगठित आवाज उठी।
साथ ही सामाजिक बुराइयों से भी लड़ने का संकल्प लिया गया। पूरे क्षेत्र में शराब बंदी लागू की गयी। धीरे-धीरे यह आवाज उन सवालों से जुड़ गयी जिनका संबंध पूरी तरह गंगा और उसके आसपास बसने वालों की जीविका, स्वास्थ्य व असंस्कृति से जुड़ गया. आरंभ में जमींदारों ने इसे मजाक समझा और आंदोलन को कुचलने के लिए कई हथकंडे अपनाये। लेकिन आंदोलनकारी अपने संकल्प ‘‘हमला चाहे कैसा भी हो, हाथ हमारा नहीं उठेगा’’ पर अडिग रहे और निरंतर आगे रहे। निरंतर संघर्ष का नतीजा यह हुआ 1988 में बिहार विधानसभा में मछुआरों के हितों की रक्षा के लिए जल संसाधनों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का एक प्रस्ताव लाया गया। गंगा मुक्ति आंदोलन के साथ वे समझौते के बाद राज्य सरकार ने पूरे बिहार की नदियों-नालों के अलावे सारे कोल ढाबों को जलकर से मुक्त घोषित कर दिया। परंतु स्थिति यह है कि गंगा की मुख्य धार मुक्त हुई है लेकिन कोल ढाब अन्य नदी-नालों में अधिकांश की नीलामी जारी है और सारे पर भ्रष्ट अधिकारियों और सत्ता में बैठे राजनेताओं का वर्चस्व है।
पूरे बिहार में दबंग जल माफिया और गरीब मछुआरों के बीच जगह-जगह संघर्ष की स्थिति बनी हुई है। गंगा तथा कोषी में बाढ का पानी घट जाने के बाद कई जगह चौर बन जाते हैं ऐसे स्थानों को मछुआरे मुक्त मानते हैं और भू-स्वामी अपनी संपत्ति। सरकार की ओर से जिनकी जमीन जल में तब्दील हो गयी उन्हें मुआवजा नहीं दिया जाता। इस कारण भू-स्वामी इसका हर्जाना मछुआरों से वसूलना चाहते हैं। हालांकि जगह-जगह संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। इन स्थानों पर कब्जा करने के लिए अपराधी संगठित होते हैं। राज्य के कटिहार, नवगछिया, भागलपुर, मुंगेर तथा झारखंड के साहेबगंज में दो दर्जन से ज्यादा अपराधी गिरोह सक्रिय हैं और इन गिरोहों की हर साल करोड़ों में कमायी है। गंगा मुक्ति आंदोलन लगातार प्रशासन से दियारा क्षेत्र में नदी पुलिस की स्थापना और वोटर वोट द्वारा पैट्रोलिंग की मांग करता रहा है लेकिन यह ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ है।
विकास की गलत अवधारणा के कारण गंगा में बाढ़ और कटाव का संकट पैदा हो गया है। कल-कारखानों का कचरा नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है और पानी जहरीला होता जा रहा है। भागलपुर विष्वविद्यालय के दो प्राध्यापकों केएस बिलग्रामी, जेएस दत्ता मुंशी ने उस दौर में अपने किए गए अध्ययन से खुलासा किया था कि बरौनी से लेकर फरक्का तक 256 किलोमीटर की दूरी में मोकामा पुल के पास गंगा नदी का प्रदूषण भयानक है। गंगा तथा अन्य नदियों के प्रदूषित और जहरीला होने का सबसे बड़ा कारण है कल-कारखानों के जहरीले रसायनों का नदी में बिना रोकटोक के गिराया जाना।
कल कारखानों या थर्मल पावर स्टेशनों का गर्म पानी तथा जहरीला रसायन या काला या रंगीन एफ्लूएंट नदी में जाता है, तो नदी के पानी को जहरीला बनाने के साथ-साथ नदी के स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता को नष्ट कर देता है। नदी में बहुत से सूक्ष्म वनस्पति होते हैं जो सूरज की रोशनी में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन बनाते हैं, गंदगी को सोखकर ऑक्सीजन मुक्त करते हैं। इसी प्रकार बहुतेरे जीव जन्तु भी सफाई करते रहते हैं। लेकिन उद्योगों के प्रदूषण के कारण गंगा में तथा अन्य नदियों में भी जगह-जगह डेड जोन बन गए हैं। कहीं आधा किलोमीटर, कहीं एक किलोमीटर तो कही दो किलोमीटर के डेड जोन मिलते हैं। यहां से गुजरने वाला कोई जीव-जन्तु या वनस्पति जीवित नहीं बचता। इसका सबसे बुरा असर मछुआरों के रोजी-रोजी एवं स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। कटैया, फोकिया, राजबम, थमैन, झमंड, स्वर्ण खरैका, खंगशी, कटाकी, डेंगरास, करसा गोधनी, देशारी जैसी 60 देशी मछलियों की प्रजातियां लुप्त हो गयी है। फरक्का बैराज बनने के बाद स्थिति यह है कि गंगा में समुद्र से मछलियां नहीं आ रही है। परिणाम स्वरूप गंगा में मछलियों की भारी कमी हो गयी है। मछुआरों की बेरोजगारी का एक बड़ा कारण है। 1971 में पश्चिम बंगाल में फरक्का बराज बना और 1975 में उसकी कमीशनिंग हुई। जब यह बराज नहीं था तो हर साल बरसात के तेज पानी की धारा के कारण 150 से 200 फीट गहराई तक प्राकृतिक रूप से गंगा नदी की उड़ाही हो जाती थी। जब से फरक्का बराज बना सिल्ट की उड़ाही की यह प्रक्रिया रुक गई और नदी का तल ऊपर उठता गया। सहायक नदियां भी बुरी तरह प्रभावित हुईं।
जब नदी की गहराई कम होती है तो पानी फैलता है और कटाव तथा बाढ़ के प्रकोप की तीव्रता को बढ़ाता जाता है। मालदह-फरक्का से लेकर बिहार के छपरा तक यहां तक कि बनारस तक भी इसका दुष्प्रभाव दिखता है।फरक्का बराज के कारण समुद्र से मछलियों की आवाजाही रुक गइ। फीश लैडर बालू-मिट्टी से भर गया। झींगा जैसी मछलियों की ब्रीडिंग समुद्र के खारे पानी में होती है, जबकि हिलसा जैसी मछलियों का प्रजनन ऋषिकेष के ठंडे मीठे पानी में होता है। अब यह सब प्रक्रिया रुक गई तथा गंगा तथा उसकी सहायक नदियों में 80 प्रतिशत मछलियां समाप्त हो गई। इससे भोजन में प्रोटीन की कमी हो गई। पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में अब रोजाना आंध्र प्रदेश से मछली आती है। इसके साथ ही मछली से जीविका चलाकर भरपेट भोजन पाने वाले लाखों-लाख मछुआरों के रोजगार समाप्त हो गए। गंगा में हर 100 किलोमीटर की दूरी पर बराज बनाने की बात शुरू की, तब गंगा पर जीने वाले करोड़ों लोगों में घबराहट फैलने लगी है। गंगा की उड़ाही की बात तो ठीक है, लेकिन बराजों की ऋंखला खड़ी करके गंगा की प्राकृतिक उड़ाही की प्रक्रिया को बाधित करना अव्यवहारिक है। फरक्का बराज बनने का हश्र यह हुआ कि उत्तर बिहार में गंगा किनारे दियारा इलाके में बाढ़ स्थायी हो गयी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी फरक्का का सवाल अनेक बार उठा चुके है।
गंगा से बाढ प्रभावित इलाके का रकवा फरक्का बांध बनने से पूर्व की तुलना में काफी बढ गया। पहले गंगा की बाढ से प्रभावित इलाके में गंगा का पानी कुछ ही दिनों में उतर जाता था लेकिन अब बरसात के बाद पूरे दियारा तथा टाल क्षेत्र में पानी जमा रहता है। बिहार में फतुहा से लेकर लखीसराय तक 100 किलोमीटर लंबाई एवं 10 किलोमीटर की चौड़ाई के क्षेत्र में जलजमाव की समस्या गंभीर है। फरक्का बांध बनने के कारण गंगा के बाढ क्षेत्र में बढोतरी का सबसे बुरा असर मुंगेर, नौवगछिया, कटिहार, पूर्णिया, सहरसा तथा खगड़िया जिलों में पड़ा। इन जिलों में विनाशकारी बाढ़ के कारण विस्थापित हो रहे हैं। सैकड़ों गांव हो रहे हैं। फरक्का बराज की घटती जल निरस्सारण क्षमता के कारण गंगा तथा उनकी सहायक नदियों का पानी उलटी दिषा में लौट कर बाढ तथा जलजमाव क्षेत्र को बढा देता है।
फरक्का का सबसे बुरा हश्र यह हुआ कि मालदा और मुर्षिदाबाद का लगभग 800 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र ही उपजाउ भूमि कटाव की चपेट में आ गयी और बड़ी आबादी का विस्थापन हुआ। दूसरी ओर बड़ी- बड़ी नाव द्वारा महाजाल, कपड़ा जाल लगाकर मछलियों और डॅल्फिनों की आवाजाही को रोक देते हैं। इसके अलावा कोल, ढाव और नालों के मुंह पर जाल से बाड़ी बांध देते हैं। जहां बच्चा देनेवाली मछलियों का वास होता है। बिहार सरकार ने अपने गजट में पूरी तरह से इसे गैरकानूनी घोषित किया है।बाड़ी बांध देने से मादा मछलियां और उनके बच्चे मुख्य धारा में जा नहीं सकते और उनका विकास नहीं हो पाता है। इसी कारण से गंगा में मछलियों का अकाल हो गया है। हिमालय की नदियों और पर्वतों की संवेदनशीलता को बचाए रखना एक चुनौती के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। ऐसा लगता है कि नदियों की गाद बढ़ने के साथ-साथ नदियों की जल राशि भी निरंतर कम होती जाएगी। जिससे हिमालय से लेकर मैदानी क्षेत्रों में पानी की समस्या बढ़ेगी, कृषि सबसे अधिक प्रभावित होगी,प्रदूषण चारों तरफ बीमारी के रूप में फैलेगा,जिसको हम जलवायु परिवर्तन के रूप में देख रहे हैं। लेकिन मनुष्यों के द्वारा किए गए इन विकास कार्यों की समीक्षा जब तक नहीं होती है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker