
-राजेंद्र मोहन शर्मा-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
पुलिस एवं न्यायालय दोनों न्याय के सोपान होते हैं। पीडि़त व्यक्ति के लिए जहां पुलिस न्याय का पहला पड़ाव है, वहां न्यायालय एक आखिरी व महत्वपूर्ण आशा की किरण की तरह होता है। मगर जब दोनों पड़ावों पर असहाय व्यक्ति को वांछित सुकून न मिल पाए, तब कानून के विश्वास पर गहरी चोट लगती है। पुलिस के लिए किसी अपराधी को पकडऩा और फिर जमानत पर छोड़ देना ही काफी नहीं है, बल्कि पीडि़त के साथ सच्ची सहानुभूति रखना तथा तफतीश को सही मुकाम पर पहुंचाना और भी महत्वपूर्ण होता है। वास्तव में पीडि़त व्यक्ति को इस बात का एहसास व विश्वास करवाना भी आवश्यक होता है कि अपराधियों के साथ कड़ी पूछताछ की गई है। पीडि़त व्यक्ति को कई बार इस बात का पता ही नहीं चलता और उसे बताया भी नहीं जाता है कि गवाहों का बयान क्या लिखा गया है और जघन्य अपराधों में अपराधी की जमानत न होने के लिए पुलिस ने क्या-क्या प्रयत्न किए हंै। कई बार पुलिस वास्तविक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर रिपोर्ट दर्ज कर लेती है तथा अपराधियों को अनुचित लाभ पहुंचाने की कोशिश की जाती है तथा इसी तरह केस को बिना वजह से लम्बित रखा जाता है तथा अपराधी सरेआम दनदनाते रहते हैं।
ऐसे खूंखार व बेरहम अपराधियों को बंधित नहीं करवाया जाता तथा न्याय खुले तौर पर लहुलूहान होता रहता है। पुलिस भले ही उचित व निष्पक्ष ढंग से कार्रवाई कर रही हो, मगर अब भी तफतीश का पारम्परिक व वर्षों से चला हुआ रिवाज नहीं बदला जा रहा है। कई बार अपराधियों को उनके द्वारा किए गए गुनाहों के अनुरूप कानूनी दायरे में न लाकर उनसे ज्यादती या पक्षपात कर दिया जाता है। यह भी देखा गया है कि पुलिस किसी अपराधी को अपनी हिरासत में रखने के लिए न्यायालय से गुहार करती रहती है तथा हिरासत समाप्त होने के बाद अपराधी को न्यायिक हिरासत में भेजने के लिए इस बात का वर्णन करते हुए सिफारिश की जाती है कि वह गवाहों को डरा-धमका सकता है या फिर कहीं भाग सकता है तथा जज साहिब भी पुलिस की सिफारिश को यथावत उचित मानते हुए अपराधियों को अनिश्चित समय की न्यायिक हिरासत बढ़ा देते हैं। ऐसे हालात में अपराधी को अपने जुर्म से अधिक सजा भुगतने को मजबूर कर दिया जाता है। हलांकि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 व 468 के अंतर्गत पुलिस को अपनी तफतीश की एक निश्चित परिसीमा बढ़ाने का अधिकार है, मगर फिर भी यह चाहिए कि तफतीश को कम से कम समय में पूरा करके न्यायालय में भेजा जाए। वर्ष 2010 में भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में संशोधन किया गया तथा पुलिस को सात वर्ष की सजा से कम वाले अपराधों में मुलाजमों को जमानत पर छोडऩे के लिए अधिकारित किया गया है। ऐसा इसलिए किया गया कि पुलिस आमतौर पर छोटे मोटे अपराधों में भी लोगों की जमानत नहीं होने देती थी तथा वकीलों का एक बहुत मक्कडज़ाल जमानत करवाने के लिए ऐसे अपराधियों से मनचाहे पैसे वसूलते रहते थे। उदाहरणत: पति या ससुराल वालों द्वारा किसी महिला का उत्पीडऩ किए जाने पर 498.।
भारतीय दंड संहिता के अन्तर्गत मुक्कदमा दर्ज किया जाता, मगर इस में कुल सजा दो वर्ष तक ही है तथा अपराधियों को पुलिस अपने ही स्तर पर जमानत दे सकती है, मगर कई बार ऐसा भी देखा गया है कि पुलिस कोई न कोई बहाना बनाकर कोर्ट से जमानत नहीं होने देती। इस सम्बन्ध में अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य क्रिमिनल अपील नंबर 1277 वर्ष 2014 का हवाला देना उचित है। जिसके अनुसार पुलिस ने निचली अदालत में सांठगांठ करके अपराधियों को जमानत न देकर उन्हें सलाखों के पीछे धकेल दिया था। इस अपील में उच्चतम न्यायालय ने पुलिस अधिकारी व सम्बन्धित जज के विरुद्ध कंटैप्ट आफ कोर्ट का निर्णय देकर उचित कार्रवाई करने के आदेश दिए थे। जज को तो परमात्मा का रूप माना जाता है क्योकि वह किसी की जिन्दगी ले भी सकता और दे भी सकता है। संविधान ने उन्हें अपार शक्तियां प्रदान की हैं, जिनका उपयोग वे अपने विवेक के अनुसार कर सकते हैं, मगर शायद पद की नजाकत की वजह से कई बार कुछ जज साहिब विवेक का सही व पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते तथा पीडित/अपराधी दोनों को उचित समय पर न्याय नहीं मिल पाता। कुछ जज किसी न किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त भी होते हैं तथा अपने पद की गरिमा का बिल्कुल ध्यान नहीं रखते हैं। न्याय न सिर्फ होना चाहिए मगर दिखना भी चाहिए, यह उक्ति महान रोमन सम्राट जुलियस सीजर के इस व्यक्तव्य से ली गई है कि उसकी पत्नी न केवल सन्देह रहित बल्कि सन्देह से ऊपर होनी चाहिए। यह बात उसने तब कही थी जब उसे पता लगा कि उसकी पत्नी पोम्पिया के सम्बन्ध कलोडिय़स नामक व्यक्ति से हो गए हैं तथा उसने इसी संशय के आधार पर उसे तल्लाक दे दिया था।
उसने कहा था कि जो लोग उच्च पद पर सुशोभित हुए होते हैं उन्हें थोड़ा भी अनौचित्य व अनैतिक कार्य नहीं करना चाहिए तथा यदि वे ऐसा कर बैठते हैं तो उन्हें अनुकरणीय सजा दी जानी चाहिए। इस व्यक्तव्य से एक बहुत बड़ी सीख मिलती है कि उच्च पदों पर तैनात व्यक्तियों का आचरण बिल्कुल सन्देह से परे होना चाहिए तथा वे आम लोगों के रक्षक व पालक होने चाहिए। न्यायिक सिद्धान्त में अक्सर यह कहा जाता है कि चाहे सौ गुनहगार छूट जाएं, मगर किसी एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए। दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान स्पष्ट किया था कि जज की यह जिम्मेदारी है कि किसी निर्दोष को सजा न हो, लेकिन उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कोई गुनहगार सजा से बचकर जा न पाए। यह दोनों ही बातें सार्वजनिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। कई बार ट्रायल कोर्ट सबूतों का परीक्षण भी सही ढंग से नहीं कर पाते तथा किसी एक गवाह द्वारा सही बयान न दिए जाने पर अन्य सभी गवाहों के तर्कसगंत बयानों को नजरअन्दाज करते हुए अपराधियों को छोड़ दिया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जनता को जल्द न्याय मिलने के मौलिक अधिकार के तहत अदालतों की खुली कार्यवाही देखने का भी अधिकार है, मगर ऐसा हमारी अदालतें होने नहीं देती। यदि अदालतों की कार्यवाही का सीधी प्रसारण हो जाए तो देश में करोड़ों लोगों को जल्द समय पर न्याय मिलने की उम्मीद बढ़ सकती है। इससे न्यायिक अनुशासन में बढ़ौतरी होगी तथा फिर पता चलेगा कि मामलों का स्थगन क्यों और कितनी बार किया गया।