
-सनत जैन-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
लंदन में राहुल गांधी ने यूनिवर्सिटी में जो भाषण दिया था! उस को आधार बनाकर भाजपा ने राहुल गांधी के ऊपर भारत का अपमान करने और दूसरे देशों को भारत में हस्तक्षेप करने के लिए आमंत्रण देने का आरोप लगाया! सत्ता पक्ष ने राहुल से माफी की मांग की! राहुल गांधी ने लंदन यात्रा के दौरान लोकतंत्र को लेकर जो बात की थी! उसमें कहीं पर भी यह बात नहीं थी! जो भाजपा ने प्रचारित की, राहुल ने स्पष्ट रूप से अपने जवाब में कहा था कि भारत लोकतांत्रिक मामले को स्वयं निपटने में सक्षम है! भाजपा ने राहुल गांधी के ऊपर माफी मांगने को लेकर जो दबाव बनाया था! वह अब भाजपा के ही गले में पड़ता जा रहा है। राहुल गांधी कह रहे हैं, कि उनके ऊपर जो आरोप सदन के अंदर लगाए गए हैं। उसका वह जवाब देना चाहते हैं। इसको लेकर उन्होंने 2 पत्र लोकसभा अध्यक्ष को भी लिखे हैं। सदन के नियमानुसार उन पर आरोप है तो उन्हें बोलने का तो मौका नियमानुसार देना ही पड़ेगा। वह लंदन के अपने सभी कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग लोकसभा के पटल पर रख सकते हैं। उन पर जो आरोप लगाए गये हैं। वह सही है या नहीं जिन मंत्रियों और भाजपा सांसदों ने राहुल गांधी से माफी मांगने को लेकर जो आरोप सदन के अंदर लगाये हैं। उन्हें भी राहुल गांधी के भाषण को लोकसभा के पटल में रखना चाहिए था, जो उन्होंने नहीं रखा है। राहुल गांधी इसकी मांग भी कर सकते हैं।
सरकार और भाजपा राहुल गांधी का मनोबल तोड़ना चाहती थी। लंदन में दिए गए बयान का जिस तरीके से तोड़ मोड़कर भाजपा ने प्रस्तुत किया था। यह भाजपा की पुरानी रणनीति का ही एक हिस्सा था जिसमें वह किसी भी बात को अपने तरीके से परिभाषित करके, गोदी मीडिया की सहायता से राहुल गांधी और कांग्रेस को पप्पू और कांग्रेस को नकारा बताने में उपयोग करते रहे हैं। पहली बार सदन के अंदर यह मामला भाजपा के ऊपर उल्टा पड़ता हुआ नजर आ रहा है। सरकार खुद ही सदन को नहीं चलने दे रही है। सत्ता पक्ष खुद ही हंगामा कर रहा है। विपक्षी एकता को तोड़ने के लिए सत्तापक्ष ने वह सारे उपक्रम कर लिए, लेकिन इसमें कोई सफलता सत्ता पक्ष को नहीं मिल पा रही है। उल्टे संबित पात्रा द्वारा राहुल गांधी को मीर जाफर की संज्ञा दिए जाने के बाद, अब कांग्रेस भी उसी तरीके से आक्रमक हो गई है। जिस तरह से अभी तक भाजपा आक्रमक होती आई है। संबित पात्रा के ऊपर कांग्रेस कानूनी कार्रवाई करने जा रही है। वहीं सोशल और मोदी मीडिया में भी इस पर लगातार चर्चा हो रही है। इस सारे वाद-विवाद में लगभग 2 सप्ताह संसद के दोनों सदनों का कामकाज नहीं हुआ। इसमें सबसे बड़ा नुकसान आसंदी की प्रतिष्ठा पर पड़ा है। आसंदी सदन का मुखिया के हेसियत से प्रतिनिधित्व करती है। सरकार और विपक्ष के बीच में समन्वय बनाने की जिम्मेदारी और नियमों के अनुसार सदन को चलाने की जिम्मेदारी आसंदी की होती है।
पहली बार ऐसा लग रहा है, कि लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति का विपक्ष के साथ संवाद ही नहीं है। वह भी सत्ता पक्ष की तरह एक पार्टी बन गई है। आसंदी को जिस तरह से इस मामले में पक्ष और विपक्ष को सदन को चलाने के लिए तैयार करना चाहिए था। वह नहीं किया गया। संसदीय कार्य मंत्री की जिम्मेदारी होती है, कि वह विपक्ष के साथ लगातार संवाद बनाए रखे। सदन के अंदर जो व्यवधान उत्पन्न होते हैं। उनमें चर्चा करने के बाद कोई बीच का रास्ता निकालने में समन्वय बनाने की भूमिका संसदीय कार्य मंत्री की होती है। जो पिछले कई वर्षों से सदन में देखने को नहीं मिल रही है। पहली बार भारतीय जनता पार्टी और केंद्र की सरकार अपने ही बुने हुए मकड़जाल में बुरी तरह फंसकर झटपटा रही है। केंद्र सरकार के मंत्रियों और भाजपा नेताओं का अहंकार भी मुसीबत को बढ़ा रहा हैं। हाल ही में केंद्रीय कानून मंत्री ने जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट को निशाने पर लिया है। सरकार ने फेमा कानून के अंतर्गत जजों और सेना के अधिकारियों को शामिल किया है। जिस तरह से न्यायपालिका और सेना पर दबाव बनाने का प्रयास किया जा रहा है। उससे सरकार और भाजपा की मुसीबतें आने वाले दिनों में और भी बढ़ना तय है। भारत का एक लंबा लोकतांत्रिक व्यवस्था का इतिहास और परंपराएं हैं। इसे आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जनता के बीच भ्ज्ञी सरकार और भाजपा को लेकर जो विश्वास था।वह अब अविश्वास के रुप में दिखने लगा है। यह चिंतनीय स्थिति है।