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माननीयों के मुकदमे

-चैतन्य भट्ट-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

हमारे लोकतंत्र में कानून बनाने का काम सांसदों और विधायकों का है। मगर एक कड़वी सच्चाई है। ऐसे माननीय सांसदों और विधायकों की संख्या दस-बीस नहीं बल्कि हजारों में है जिनके विरुद्ध गुंडागर्दी बलवा और लूट से लेकर हत्या, बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के मुकदमें चल रहे हैं। दोष साबित होने तक निर्दोष जैसे प्रावधान के चलते ये माननीय मजे से चुनाव जीतते हैं और बाकायदा कानून बनाने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं। इसे लोकतंत्र के साथ मजाक नहीं तो और क्या कहा जाए! राजनीति शुरुआत से ऐसी नहीं थी। एक जमाना था जब अपराधों में लिप्त लोग चुनाव लड़ना तो छोड़िए, मोहल्ले में भी मुंह छिपाकर निकलते थे। साफ़ सुथरी छवि के महत्व वाली इस राजनीति में जाने कब अपराध प्रवेश कर गया। अपराधियों पर नेताओं की निर्भरता बढ़ी और अब आलम यह है कि अपराधी स्वयं नेतागिरी में उतर गए हैं। चुनाव जीतने की क्षमता के ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण पैमाना बन जाने के चलते हर पार्टी टिकट बांटने में अपराध को दर किनार करने को तैयार है।
याद कीजिए, राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव को 2001 में हुए चारा घोटाले में 12 साल बाद 2013 में सजा हुई। इस अवधि में वे रेलमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर रहे और कानून निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे। बहरहाल विसंगति अंततः संज्ञान में आई और उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर 2017 में सांसदों/विधायकों से संबंधित मामलों के शीघ्र निपटारे के लिए मध्यप्रदेश समेत उन राज्यों में 12 विशेष न्यायालय स्थापित किए गए जहां ऐसे 65 अथवा अधिक मामले लंबित थे। सितंबर 2020 में उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त अदालत मित्र (एमिकस क्यूरी) ने बताया कि इन विशेष अदालतों के गठन के बावजूद 4,442 लंबित आपराधिक मामलों में 2,556 मौजूदा सांसद और विधायक शामिल हैं।
ताज़ा खबर यह है कि सिर्फ मध्यप्रदेश में ही 2 से 18 साल पुराने धोखाधड़ी, हत्या, बलात्कार समेत लगभग 300 ऐसे मुकदमें लंबित हैं। 28 से ज्यादा मामले मौजूदा सांसदों और विधायकों, जिनमें 3 मौजूदा मंत्रीगण शामिल हैं, से संबंधित है जिनमें दोषसिद्धि होने पर 2 साल या ज्यादा की सजा हो सकती है। जहां तक इन मुकदमों में शामिल माननीयों की सूची का सवाल है वह सम-पार्टी, सम-भाव की जिंदा मिसाल है : सारी पार्टियों के सदस्य शामिल हैं। सजा होने पर यह माननीय न सिर्फ अपनी सदस्यता खो बैठेंगे बल्कि अगला चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे सूची में भी शामिल है। पहले पार्टियां सत्ता में आने के बाद अपने सदस्यों पर दर्ज मामले वापस ले लेती थी लेकिन सुप्रीम द्वारा बिना अदालत की सहमति के वापस लेने पर रोक लगाने के बाद फिलहाल यह सुविधा बंद है।
विषेश अदालतों में इन मामलों के निपटारे में देरी का मुख्य कारण समय से समन तामिल नहीं होना बताया जाता है जिसका जिम्मा पुलिस के पास है। अक्सर गवाह भी तारीखों पर नहीं पहुंचते हैं। सरकारी अभियोग पक्ष कहता है कि स्पीडी ट्रायल कोर्ट पर निर्भर करती है और गवाह उपस्थिति कराने की पूरी कोशिश की जाती है। अभियोग पक्ष की इस दलील की सच्चाई किसी से छुपी नहीं है और सुनकर बरबस इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा … कहने का दिल करता है।
मुकदमों में फंसे माननीयों की सफाई है कि ये मुकदमे राजनीतिक विद्वेष के कारण दायर अपराधों से संबंधित है। बहरहाल मुकदमा मुकदमा है। सवाल यह है कि जरा जरा सी बात पर पुलिस और प्रशासन पर दबाव डालने के आदी यह नेता खुद अपने मामले के निपटारे के लिए इतने उदासीन क्यों बने रहते हैं/ अगर वे निर्दोष हैं तो यथाशीघ्र निवारण में सहयोग कर अपने आप को निर्दोष साबित क्यों नहीं करते। साफ बात है, कहीं दोषी साबित न हो जाएं का भय उन्हें रोकता है। ऐसे मामले भी हैं जिनमें माननीयों द्वारा सरकारी अमले से मारपीट के वीडियो वायरल हो चुके हैं।‌ क्या इनमें सबूतों की अनुपलब्धता का तर्क स्वीकार्य है/
1951 के जनप्रतिनिधि अधिनियम के तहत किसी सांसद/विधायक को अयोग्य घोषित करने के निश्चित मानदंड हैं जैसे किसी अपराध के लिए छह साल से अधिक की सज़ा हो, सेक्शन 153ए (धर्म आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने का अपराध, और सद्भाव कायम रखने के विरुद्ध काम करना) या फिर सेक्शन 171एफ़ (चुनाव में अनुचित प्रभाव डालना) जैसे अपराध। वैसे किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहराए गया व्यक्ति, जिसे दो साल के ज़्यादा कि सज़ा हुई है, सजा के दिन से स्वमेव अयोग्य हो जाता है और छह साल तक अयोग्य बना रहता है।
त्वरित न्याय के लिए उस गुजरात की उस अदालत से सबक लेना चाहिए जिसने केरल के वायनाड से कांग्रेस सांसद राहुल गांधी पर कर्नाटक में दिए गए बयान में भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 के तहत दर्ज मानहानि के मुकदमे का फैसला मात्र 2 साल के अंदर कर सज़ा सुना दी। राहुल न सिर्फ अपनी सांसदी खो बैठे बल्कि छह साल के लिए चुनाव के अयोग्य भी हो गए। अभी अभी दिल्ली हाईकोर्ट की माननीय महिला न्यायाधीश ने अपने कार्यकाल के आखिरी दिन 65 मुकदमों का फैसला कर मिसाल कायम की है। यह संदर्भ बताते हैं कि जहां चाह है, वहां राह है।
न्याय से संबंधित प्रसिद्ध कहावत है : जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड। राष्ट्रभाषा में कहें तो, न्याय में देरी न्याय न मिलने के समान है। माननीयों के ऐसे मामलों में होने वाला यह विलंब, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था का मज़ाक़ बना देता है, और भी अस्वीकार्य है। ऐसे मामलों के लिए विशेष अदालतों का गठन ही काफी नहीं है। इनमें मुकदमों का फैसला करने के लिए समय सीमा भी निर्धारित होना चाहिए। वरना कानून तोड़ने वालों द्वारा कानून बनाए जाने की यह विसंगति निरंतर जारी रहेगी।

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