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सत्ता बनाम विपक्षी एकता

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

राष्ट्रीय राजनीति में होड़ और अपनी ताकत बढ़ाने का मौसम आ गया है। दो तारीखें-17 और 18 जुलाई-महत्त्वपूर्ण हैं। बेंगलुरू में विपक्षी दलों की बैठक जारी है। इस बार 7 नए दल भी विपक्षी एकता की मुहिम में जुड़े हैं, लिहाजा अब 24 दल विपक्षी मंच पर लामबंद होने की प्रक्रिया में हैं। आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस के बीच जो पेंच थे, उन्हें कस दिया गया है। अब केजरीवाल और ‘आप’ के अन्य नेता भी विपक्षी एकता के अभियान से जुड़े हैं। मंगलवार 18 जुलाई को ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन’ (एनडीए) की बैठक है, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी भी शिरकत करेंगे। कुछ नए दलों को भाजपा ने निमंत्रण भेजा है। उनमें सुभासपा, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार गुट), जनसेना पार्टी आदि ने तो भाजपा के साथ गठबंधन घोषित भी कर दिया है। इनमें से ज्यादातर दल पहले भी भाजपा के साथ रहे हैं, उनके नेता राज्यों की कैबिनेट में मंत्री रहे हैं, फिर पाला बदल कर किसी और के साथ गठबंधन किया और अब 2024 के आम चुनाव से पहले एक बार फिर लौट रहे हैं। विचारधारा का कोई आधार नहीं है, विशुद्ध रूप से अवसरवादी और मलाईदार राजनीति का आकर्षण है। हरियाणा में ‘जननायक जनता पार्टी’ साझा सरकार में है, लेकिन हैरानी है कि तेलुगूदेशम पार्टी, जनता दल-एस, अकाली दल आदि के नेताओं ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के स्तर तक बातचीत की है और सौदेबाजी जारी है।

भाजपा का दावा है कि एनडीए की बैठक में 30 दलों के नेता शिरकत कर रहे हैं। इनमें अधिकतर दल भाजपा-विरोधी रहे हैं, लेकिन एनडीए के साथ भी राजनीति करते रहे हैं। यह पूरी तरह चुनाव जीतने का जुगाड़ है, क्योंकि उनकी प्रत्यक्ष विचारधारा बिल्कुल विरोधाभासी है। बहरहाल एनडीए और विपक्षी गठजोड़ का विस्तार स्पष्ट है। चुनाव इन्हीं समीकरणों पर तय नहीं होते। इन दलों के अलावा बसपा, बीजद, वाईएसआर कांग्रेस, अन्नाद्रमुक, भारत राष्ट्र समिति आदि कुछ बेहद महत्त्वपूर्ण दल हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र में प्रभावशाली हैं और कुछ दल तो सत्ता में भी हैं। घोषित रूप से ये दल न तो विपक्षी एकता के पाले में हैं और न ही एनडीए के घटक हैं, लेकिन संसद में महत्त्वपूर्ण और विवादास्पद विधेयकों पर वे भाजपा का समर्थन करते रहे हैं। विपक्ष में तृणमूल कांग्रेस बनाम वामदल बनाम कांग्रेस पार्टी के गहरे विरोधाभास भी हैं। पंचायत चुनाव के मुद्दे पर कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ, कोलकाता उच्च न्यायालय तक में गए हैं। अधीर सार्वजनिक तौर पर ममता बनर्जी के खिलाफ कठोर शब्दों वाले बयान भी देते रहे हैं। तृणमूल के प्रवक्ता वामदलों की राजनीति के नफरत की हद तक विरोधी हैं।

लिहाजा चुनावी एकता सवालिया लगती है। विपक्षी एकता की बेंगलुरू बैठक में सबसे महत्त्वपूर्ण यह रहेगा कि सभी दल साझा न्यूनतम कार्यक्रम सहमति से तय करें और शुरुआती स्तर पर सीटों की बांट का खाका तैयार करें। राजनीतिक दावे तो खोखले होते हैं, लेकिन यह तय किया जाना चाहिए कि लोकसभा की कमोबेश 350-400 सीटों पर विपक्ष का एक ही साझा उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरे। इसके लिए कांग्रेस की सहमति बुनियादी है, क्योंकि 2019 के चुनाव में उसके प्रत्याशी 209 सीटों पर दूसरे स्थान पर रहे थे। एक और राजनीतिक घटना हुई है। महाराष्ट्र में शरद पवार की पार्टी एनसीपी पर उन्हीं के भतीजे अजित और उनके साथियों ने कब्जा कर लिया है। उन्होंने चुनाव आयोग में नाम और निशान के लिए अर्जी भी दे ही है। कुछ ऐसा ही उद्धव ठाकरे के साथ हुआ था। जाहिर है कि पार्टियों में ऐसी टूट-फूट से ताकत का क्षरण तो होता ही है। पवार कमजोर होंगे, तो विपक्ष कमजोर होगा। इन स्थितियों से विपक्षी एकता कैसे मुकाबला करेगी, बैठक में इस पर भी विमर्श हो सकता है।

 

 

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