
-ओम प्रकाश मेहता-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे निकट आते जा रहे हैं, वैसे वैसे राजनीतिक दलों में घबराहट भरी सक्रियता बढ़ती जा रही है, सबसे अधिक चिंतित प्रदेश में पिछले 16 सालों से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी है, उसके सामने जहां लंबे समय के शासन की चुनौतियों से निपटने की चुनौतियां हैं, वहीं कांग्रेस ने अभी से सत्ता के सुनहरे सपने देखना शुरू कर दिया है। यद्यपि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान तीनों चुनावी राज्यों में भाजपा की साख यथावत रखने की जिम्मेदारी भाजपा के केंद्रीय राजनीति के चाणक्य गृहमंत्री अमित शाह ने वहन की है और वह सक्रिय भी हो गए हैं, हर महीने एक-दो बार मध्य प्रदेश के विभिन्न अंचलों का दौरा कर भाजपा कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने का निर्देश दे रहे हैं, किंतु प्रदेश के नेता फिलहाल अपनी सक्रियता प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं।
देश के अन्य राज्यों की तरह ही मध्य प्रदेश में भी सत्तारूढ़ भाजपा विभिन्न खेमों में बंटी हुई है, इन खेमों का अपने-अपने अंचलों में दबदबा है किंतु आज इन खेमों के नेतृत्व के सामने सबसे बड़ी समस्या अपने कार्यकर्ताओं को एकजुट करके पार्टी के पक्ष में सक्रिय करने की है। सत्तारूढ़ दल का आम कार्यकर्ता पार्टी के प्रादेशिक नेतृत्व व खेमा प्रधानों से इसलिए नाराज हैं, क्योंकि पार्टी नेतृत्व 4 साल तक इन कार्यकर्ताओं के सुख-दुख की चिंता नहीं करता और चुनाव के वक्त ही कार्यकर्ताओं को याद किया जाता है, इसलिए फिलहाल प्रदेश में इन नाराज कार्यकर्ताओं को मनाने का दौर चल रहा है और उन्हें विभिन्न तरह के राजनीतिक प्रलोभन भी दिए जा रहे हैं, किंतु कार्यकर्ताओं की नाराजी कम नहीं हो रही है।
….फिर भाजपा के सामने इससे भी बड़ी समस्या विभिन्न गुटों को एक-दसरे के द्वारा शक की नजरों से देखा जाना भी है और कांग्रेस से भाजपा में आए वरिष्ठ नेताओं को विशेष रूप से शक की नजरों से देखा जा रहा है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण सिंधिया खेमा है, जो स्वयं दोहरी चुनौतियों से जूझने को मजबूर है, एक तरफ जहां इस खेमे के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के सामने अपने समर्थकों को टिकट दिलाने की चुनौती है, तो दूसरी ओर भाजपा नेतृत्व की शक भरी निगाहों की अग्नि परीक्षा में खरा उतर कर आना है, यह खेमा टिकट से लेकर हार जीत तक की कांटों भरी राह पर चलने को मजबूर है, यह खेमा अपनों और बेगानों दोनों से ही खतरा महसूस कर रहा है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि मार्च 2020 में सत्ता परिवर्तन के समय सिंधिया के साथ 22 विधायक मंत्री कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए थे, इनमें हरदीप सिंह डंग, बिसाहू लाल साहू और एदल सिंह कसाना, सिंधिया खेमे के ना होने के बावजूद साथ आ गए थे। शेष 19 विधायक सिंधिया खेमे के थे, अब चुनौती इन 19 मंत्रियों के सामने ही है, जिन 19 विधायक मंत्रियों ने उपचुनाव लड़ा था, इनमें से सात सिंधिया समर्थक चुनाव हार गए थे, 28 सीटों पर उपचुनाव हुए थे इनमें 19 भाजपा तथा 9 कांग्रेस को मिली थी, इन 9 सीटों में से 6 सिंधिया समर्थकों की थी।
अब मौजूदा परिपेक्ष में भाजपा को जहां सबसे बड़ी चिंता सत्ता का चौथा दौर कायम रखने की है, तो कांग्रेस इस बार सत्ता प्राप्ति के प्रति सबसे अधिक आशान्वित है, यद्यपि फिलहाल कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष कमलनाथ के सिर्फ बयान ही सामने आ रहे हैं, उनकी तैयारी या चुनाव जीतने की चिंता कहीं नजर नहीं आ रही है, वहीं भाजपा अपनी 16 साला सरकार के दौरान आम वोटर के साथ कार्यकर्ताओं के सुख-दुख के दौरान गुजारे वक्त को लेकर चिंतित नजर आ रही है और ऐसे रास्ते खोजने में व्यस्त है, जिससे उसकी चुनावी रहें तथा मंजिल की प्राप्ति आसान हो सके?
इस प्रकार कुल मिलाकर एक ओर जहां हर राजनीतिक दल प्रदेश में चुनावी उधेड़बुन में व्यस्त हो गया है, वहीं एक दूसरे के खेमों के प्रति शंका-आशंकाओं का दौर भी जारी है, विशेष कर उन नेताओं के प्रति जो कांग्रेस के साथी रहे और अब भाजपा के साथ है, इनमें सिंधिया गुट प्रमुख है जिस पर भाजपा आल्हाकमान की सूक्ष्म नजरे हैं।