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ब्रिक्स के विस्तार के निहितार्थ

-डा. अश्विनी महाजन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

हाल ही में संपन्न पांच देशों की सदस्यता वाले ब्रिक्स समूह का शिखर सम्मेलन जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) में संपन्न हुआ। सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डी सिलवा और साउथ अफ्रीका के राष्ट्रपति सीरिल रामाफोसा ने प्रत्यक्ष रूप से हिस्सा लिया। इसके अलावा रूस के विदेश मंत्री सेरगी लेवरोव ने रूस का प्रतिनिधित्व किया और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिये सम्मेलन में हिस्सा लिया। इस सम्मेलन की खास बात यह रही कि ब्रिक्स में अब 6 और देशों अर्जेंटीना, यूएई, ईरान, सऊदी अरेबिया, इथोपिया व मिस्र (इजिप्ट) को भी शामिल करने का निर्णय लिया गया है। ‘ब्रिक’ गोल्डमैन सैक्स के अर्थशास्त्री जिम ओश्नील द्वारा 2001 में गढ़ा गया एक शब्द है, जिसमें भविष्यवाणी की गई थी कि चार देश- ब्राजील, रूस, भारत और चीन (ब्रिक) 2050 तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पर हावी हो जाएंगे। हालांकि ब्रिक औपचारिक रूप से 2009 में अस्तित्व में आया, जब इसका पहला शिखर सम्मेलन हुआ। लेकिन ऐसे समूह के गठन की चर्चा 2006 में शुरू हो गयी थी। बाद में 2011 में दक्षिण अफ्रीका औपचारिक रूप से ब्रिक में शामिल हो गया और तब से इस समूह को ब्रिक्स के नाम से जाना जाता है। वैसे तो मुल्कों के समूह बनाकर आपसी सहयोग को आगे बढ़ाना अंतरराष्ट्रीय जगत में एक आम बात है, लेकिन ब्रिक्स, देशों का एक समूह मात्र नहीं है। वास्तव में अभी तक अमरीका और पश्चिम के देशों का वैश्विक व्यवस्था में एक दबदबा बना हुआ था, जो देश उनकी आर्थिक ताकत को चुनौती दे रहे थे, यह उन देशों का समूह है। गौरतलब है कि वर्तमान में जो पांच देश ब्रिक्स में शामिल हैं, इन देशों में तेजी से जीडीपी में संवृद्धि हो रही है।

सामान्य तौर पर इन देशों में संवृद्धि की काफी अधिक है, जबकि विकसित देशों की संवृद्धि थम चुकी है। यही कारण है कि वैश्विक जीडीपी में इन पांच ब्रिक्स देशों की हिस्सेदारी, जो वर्ष 2011 में केवल 20.51 प्रतिशत थी, वर्ष 2023 तक बढक़र 26.62 प्रतिशत हो गई है। राजनयिक दृष्टि से विभिन्न देशों में सहयोग हो या आपसी खींचतान, अत्यंत डिपलोमेटिक तरीके से अभिव्यक्त होती है। गौरतलब है कि ब्रिक्स बनने से पहले विकासशील देशों की आवाज उठाने के लिए कोई प्रभावी वैश्विक मंच नहीं था। ब्रिक्स बनने के बाद विकासशील देशों के मुद्दों को थोड़ी बहुत आवाज मिलनी शुरू हुई। शायद इसीलिए अब और कई विकासशील देश ब्रिक्स की सदस्यता लेने हेतु इच्छुक हैं। इस सम्मेलन में जहां 6 और देशों को ब्रिक्स में शामिल करने का निर्णय किया गया है, यह समझने की जरूरत है कि ब्रिक्स के इस विस्तार के क्या मायने हैं? ब्रिक्स में 6 देशों को शामिल करने के बाद, विस्तृत ब्रिक्स समूह वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 29.6 प्रतिशत और वैश्विक जनसंख्या का 46 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करेगा। ब्रिक्स जैसे समूह विकासशील देशों के हितों की रक्षा करने का प्रयास करते हैं। गौरतलब है कि वर्तमान समय में अमेरिका और यूरोप जैसे देश विकासशील देशों पर अपनी शर्तें थोपने की कोशिश करते हैं। लेकिन साथ ही विकासशील देश भी अपने लिए समाधान तलाशने की कोशिश में हैं। हाल ही में, रूस-यूक्रेन संघर्ष की शुरुआत के बाद, यूरोप और अमेरिका ने रूस पर प्रतिबंध लगा दिए, और उसे यूरोप के प्रभाव क्षेत्र में आने वाली ‘स्विफ्ट’ प्रणाली से बाहर कर दिया गया, जिसका अर्थ है कि रूस के साथ व्यापार संबंध रखने वाले देश न तो भुगतान दे पायेंगे और न ही प्राप्त कर पायेंगे। साथ ही साथ यूरोप और अमरीका ने उनके केंद्रीय बैंकों व अन्य बैंकों के पास दूसरे देशों की जमा राशि को भी अंतरित करने पर प्रतिबंध लगा दिया।

ऐसे में दुनिया के अधिकांश विकासशील देश अब अमरीका और यूरोप से आशंकित हैं। विकसित देशों की इस प्रकार की मनमानी के चलते विकासशील देश नये रास्ते खोजने की कोशिश में हैं। पहले ब्रिक्स और अब उसका विस्तृत रूप विकासशील देशों की उन अपेक्षाओं को कैसे पूर्ण करेगा, इसका विश्लेषण करना जरूरी है। गौरतलब है कि चीन और रूस को छोड़ शेष सभी देश व्यापार घाटे की समस्या से जूझ रहे हैं। चूंकि अभी तक समस्त अंतरराष्ट्रीय व्यापार का निपटान अधिकांशत: अमरीकी डॉलरों में ही होता रहा है, और इन सभी देशों की कैरेंसियों का लगातार अवमूल्यन भी होता रहा है। यही नहीं व्यापार घाटे और भुगतान घाटे से जूझते हुए ये देश कई बार भुगतानों की समस्याओं का भी सामना करते रहे हैं। इस भुगतान शेष की समस्या का कुछ हद तक समाधान देशीय कैरेंसियों में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के भुगतान से हो सकता है। हालांकि भारत ने रुपए में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के भुगतान की तरफ कदम बढ़ाया है और 19 देशों के साथ इस संबंध में उल्लेखनीय प्रगति भी हुई है। लेकिन विकासशील देश मोटे तौर पर देशीय कैरेंसियों में अंतरराष्ट्रीय भुगतानों के संबंध में कोई विशेष सफलता हासिल नहीं कर पाये। पिछले कुछ समय से ब्रिक्स में देशीय कैरेंसियों में अंतरराष्ट्रीय भुगतान के बारे में वार्ताएं चल रही हैं। यही नहीं ब्रिक्स देशों के बीच ब्रिक्स कैरेंसी के नाम पर एक नई रिजर्व कैरेंसी शुरू करने की कवायद भी चल रही है। इस नई ब्रिक्स कैरेंसी का लाभ यह हो सकता है कि इससे ब्रिक्स देशों के बीच व्यापार में वृद्धि होगी और डॉलरों में परिवर्तन की ऊंची लागत से भी बचा जा सकेगा। वैसे ब्रिक्स कैरेंसी के बारे में निर्णय इतना आसान नहीं होगा, लेकिन शुरुआती तौर पर ब्रिक्स देश आपस में देशीय कैरेंसियों में व्यापार करने के काफी इच्छुक दिखाई दे रहे हैं।

ऐसे समाचार हैं कि हाल में संपन्न शिखर सम्मेलन में ब्रिक्स देशों ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार के भुगतान अब देशीय करेंसियों में करने का निर्णय लिया है। भारत, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील ने देशीय कैरेंसियों में व्यापार की तरफ कदम बढ़ाए हैं। भारत ने रूस के साथ भी कुछ मात्रा में रुपयों में व्यापार भुगतान की शुरुआत की है। ब्रिक्स के विस्तार से देशीय मुद्राओं में अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भुगतान को बल मिलेगा। इससे डॉलर का एकाधिकार कम करने में बल मिलेगा। यही नहीं चूंकि ब्रिक्स के अधिकांश देश भुगतान शेष की समस्याओं से जूझ रहे हैं, इससे उन्हें डॉलरों की अनिवार्यता और भुगतान शेष की समस्याओं से काफी हद तक निजात पाने में सफलता मिल सकती है। यही नहीं, ब्रिक्स देशों के बीच आपसी व्यापार बढऩे से इन देशों की आर्थिक संवृद्धि को भी बल मिल सकता है। वास्तव में यह विकासशील देशों के बीच आपसी संबंध और सहकार बढ़ाने में काफी हद तक मददगार हो सकता है।

ब्रिक्स देशों में कुछ असमंजस भी हैं मौजूद : एक जमाना था जब दुनिया द्वि-ध्रुवीय थी। एक तरफ अमरीका और दूसरी तरफ सोवियत संघ। अमरीका के समर्थक और सोवियत संघ के समर्थक ऐसे दो खेमों में दुनिया बंटी हुई थी। भारत समेत कई मुल्क इन गुटों से निरपेक्ष थे और उन्हें गुट निरपेक्ष श्रेणी में माना जाता था। सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया एक ध्रुवीय हो गई थी, लेकिन वर्तमान में अमरीका के प्रभाव में कमी और दूसरी तरफ भारत, चीन और कुछ अन्य विकासशील देशों की उभरती ताकत के कारण आजकल एक बहु-ध्रुवीय विश्व का उदय हो रहा है। लेकिन अभी भी कुछ देश कुछ बड़ी ताकतों के पीछे खड़े दिखाई देते हैं। हालांकि ब्रिक्स समूह यूरोप और अमरीकी प्रभाव से मुक्त एक शक्तिशाली समूह के रूप में उभरता हुआ दिखाई देता है, लेकिन जिन छह मुल्कों को ब्रिक्स में शामिल किया जा रहा है, उनमें से कुछ मुल्क ऐसे हैं जो अभी भी अमरीका के प्रभाव में हैं, लेकिन कुछ मुल्क ऐसे भी हैं जो पहले अमरीका के प्रभाव में थे, लेकिन अब वे अमरीका के प्रभाव में नहीं रहे, क्योंकि बदलते समय में इन मुल्कों की निष्ठा अमरीका से हट चुकी है। उधर चीन का भी प्रभाव दुनिया में बढ़ा है और कुछ देश चीन के प्रभाव में भी आते दिखाई दे रहे हैं। भारत और चीन, जिनके आपसी संबंधों में कड़वाहट है, ऐसे में अलग-अलग देशों और उनकी अलग-अलग निष्ठाओं के चलते ब्रिक्स समूह कैसे एकरूपता से काम कर पाएगा, इसके बारे में संदेह भी व्यक्त किए जा रहे हैं।

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