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लोकतंत्र का अर्थ बरास्ता कश्मीर

-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

पिछले दिसंबर में जम्मू-कश्मीर में पहली बार जिला परिषदों के चुनाव हुए थे। अनुच्छेद 370 के निस्तेज हो जाने के बाद ये पहले चुनाव थे। कश्मीर घाटी के कुछ राजनीतिक दल जो पिछले सत्तर साल से घाटी की सत्ता पर जलोदभव राक्षस के समान सत्ता पर गेंडुली मार कर बैठे थे, उनमें इन चुनावों को लेकर हलचल होना स्वाभाविक था। अब तक उन्होंने पूरे देश में यह अवधारणा बनाई हुई थी कि अनुच्छेद 370 घाटी के लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है, जिसकी रक्षा के लिए वे किसी सीमा तक जा सकते हैं। लेकिन उनको पता था कि घाटी के आम आदमी के लिए अनुच्छेद 370 जीवन-मरण की बात तो दूर, आम महत्ता का मुद्दा भी नहीं है। इसलिए उनकी चिंता थी कि जिला परिषद के चुनाव परिणाम उनकी कलई खोल देंगे। इसलिए उन्होंने फैसला किया कि इस विपदा का मुक़ाबला मिलकर करना चाहिए ताकि पर्दा बना रहे और आबरू बची रहे। दरअसल उनको बड़ी चुनौती राजनीतिक दलों से नहीं थी, उनकी चिंता तो उस युवा पीढ़ी से थी जो इस मोर्चे को धूल चटाने के लिए निर्दलीयों के रूप में मोर्चा संभाल रही थी। जब तक चुनाव परिणाम नहीं आए थे तब तक तो पर्दा पड़ा रहा, लेकिन चुनाव परिणाम घोषित होते ही अफरातफरी मच गई।

घाटी के दस दलों में से दो-तीन को छोड़ कर कहीं भी किसी एक राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला था। ऊपर से लगता था जैसे गुपकार मोर्चा को बहुमत मिल गया हो। लेकिन चुनाव परिणाम आते ही मोर्चा के सभी घटक अपना-अपना सामान लेकर भागते दिखाई देने लगे। अब अनुच्छेद 370 की घर वापसी की चर्चा बंद हो गई। सज्जाद गनी लोन अपनी पार्टी पीपुल्स पार्टी का बैनर लेकर चलते बने। जिला परिषद की चैदह सीटों में से एक-आध जिला को छोड़ कर शायद ही कहीं किसी एक दल को बहुमत की आठ सीटें मिली हों। हर जिला में निर्दलीयों के तम्बू गढ़े थे जो गुपकार मोर्चा अब्दुल्ला परिवार और सैयद परिवार के अनुच्छेद 370 को धूल चटा कर जीते थे। शुरू में तो इन दोनों परिवारों ने शोर मचा दिया कि निर्दलीय जीते हुए युवा भी हमारे दलों के हैं और इनको हम मना लेंगे। लेकिन निर्दलीय तो घाटी के गांवों की असली आवाज थी जिन्हें अब्दुल्ला परिवार और सैयद परिवारों ने आज तक बंधक बना कर रखा हुआ था।

उन्होंने अनुच्छेद 370 के समर्थकों से हाथ मिलाना तो दूर, उनसे बात करना भी मुनासिब नहीं समझा। जिला परिषदों के अध्यक्षों और उपाध्यक्षों के चुनाव में नए समीकरण बनने शुरू हुए। क्योंकि यदि किसी को भी बहुमत के लिए आठ सदस्यों का आंकड़ा छूना है तो उसे नए समीकरण बैठाने ही होंगे। जमीनी धरातल पर तो किसी भी राजनीतिक दल के पास अपने बलबूते आठ का आंकड़ा किसी भी जिला में नहीं था। इन नए समीकरणों में सैयद परिवार और अब्दुल्ला परिवार दोनों को ही पता चल गया कि घाटी में उनकी और उनके अनुच्छेद 370 की क्या औक़ात है। ये दोनों परिवार अपने तम्बू पर अनुच्छेद 370 का झंडा लगा कर बैठे सोच रहे थे कि सभी निर्दलीय और अन्य राजनीतिक दलों के दो-दो, तीन-तीन सदस्य उन्हीं के मंच पर आकर बैठेंगे क्योंकि केवल इनके तम्बू पर ही अनुच्छेद 370 का झंडा लगा हुआ था। लेकिन ये नहीं जानते थे कि घाटी में अब अनुच्छेद 370 मुद्दा था ही नहीं। यह केवल इनके मन का भ्रम था जो लम्बी उमर के कारण बीमारी का रूप ले चुका था। यदि घाटी में सचमुच अनुच्छेद 370 का अंडरकरंट भी होता, तब भी निर्दलीय सदस्य और अन्य राजनीतिक दलों के एक-एक, दो-दो सदस्य अंडरकरंट की विपरीत धारा में समीकरण बनाने का साहस न कर पाते।

गांवों से चुन कर आए ये युवा राजमहलों में रहने के आदी हो चुके अब्दुल्ला परिवार व सैयद परिवार से ज्यादा अच्छी तरह घाटी के युवा मानस को पहचानते हैं। यही कारण था नए समीकरणों में सैयद परिवार और अब्दुल्ला परिवार दोनों ही हाशिए पर आ गए। जिला परिषदों में अध्यक्ष व उपाध्यक्ष के पदों के लिए निर्दलीय सदस्य या अन्य एक या दो जिलों में प्रभाव वाले राजनीतिक दल भी परचम फहराने लगे। इस नई स्थिति पर अब्दुल्ला परिवार के बाप-बेटे की प्रतिक्रिया सचमुच मनोरंजन करने वाली है। घाटी में जिला परिषदों के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष के पदों पर पराजय का सामना करते हुए उन्होंने कहा, यह है कश्मीर घाटी में लोकतंत्र, ऐसे लोकतंत्र की ऐसी की तैसी। मामला बड़ा साफ है। यदि निर्दलीय सदस्य अब्दुल्ला परिवार या सैयद परिवार को आकर सिजदा कर देते हैं और उनकी पार्टी को अध्यक्ष व उपाध्यक्ष का पद भेंट कर देते हैं, तब तो घाटी में लोकतंत्र जिंदा है। यदि वे इनके आगे सिजदा करने के स्थान पर आपस में निर्णय करके अध्यक्ष या उपाध्यक्ष बन जाते हैं तो घाटी में लोकतंत्र को हलाल किया गया है, यह मानना ही पड़ेगा।

यानी यदि निर्दलीय सदस्य अब्दुल्ला परिवार का समर्थन कर देता है तो मान लेना चाहिए कि घाटी में लोकतंत्र पूर्ण रूप से सुरक्षित है, लेकिन यदि वह अपनी पार्टी या फिर पीपुल्स कान्फ्रेंस का समर्थन करता है तो घाटी में लोकतंत्र की सांस रुकने लगती है। दरअसल अब्दुल्ला परिवार व सैयद परिवार आज तक इसी तरीके से लोकतंत्र की रक्षा करते रहे हैं। अब उनका वह नकली वाला अब्दुल्ला या सैयद ब्रांड लोकतंत्र असली लगता है और सचमुच के लोकतंत्र को देखकर इनकी सांस फूलने लगी है। जो परिवार लंबे समय से अंधेरे में रहने का आदी हो गया हो, उसे सूरज की रोशनी से डर लगने लगता है। घाटी में लोकतंत्र कोई ऐसा तोता नहीं है जिसके प्राण केवल अब्दुल्ला या सैयद परिवार में ही बसते हो। ये प्राण घाटी की आम जनता में बसते हैं। दुर्भाग्य से आम जनता के चुने हुए निर्दलीय प्रत्याशी जब अब्दुल्ला परिवार को बताते हैं वे तब गुस्से में आकर चिल्लाते हैं, तुम्हारे इस नए लोकतंत्र की ऐसी की तैसी। हमें तो अपना पुराना 370 वाला लोकतंत्र ही चाहिए। लेकिन जिला परिषदों के चुनावों ने दिखा दिया है कि घाटी में 370 वाला लोकतंत्र नहीं आ सका क्योंकि उसे घाटी के लोग ही नहीं चाहते हैं।

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