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देसी सरकार में अंग्रेजों का राजद्रोह कानून चर्चाओं में

-सनत कुमार जैन-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

अंग्रेजों ने भारत में 150 साल पहले राजद्रोह कानून लागू किया था। भारत सरकार तथा राज्य सरकारें पिछले वर्षों में अंग्रेजों के बनाए गए 1870 के कानून की धारा 124 ए का उपयोग कर प्रदर्शन करने वाले अथवा राज्य एवं केंद्र सरकार के निर्णय का विरोध करने पर कानून के अन्तर्गत आरोपियों को जेलों में बंद किया जा रहा है। स्वतंत्र भारत में विदेशी शासकों के राजद्रोह कानून को देसी नागरिकों पर लागू किए जाने की बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया अब होने लगी है। पिछले 10 सालों में 816 राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए हैं। यह सभी मामले सरकारों के खिलाफ जो जन आंदोलन चले हैं। उस पर आंदोलनकारियों के खिलाफ राजद्रोह के मामले में गिरफ्तार कर आंदोलनकारियों को जेल भेजा गया है। 1891 में अंग्रेजों ने वंगवाशी समाचार पत्र के संपादक के खिलाफ अंग्रेजों की आलोचना करने पर मामला दर्ज कर जेल भेजा गया था। बाल गंगाधर तिलक पर भी अंग्रेजों ने 1897 मैं इसी कानून का उपयोग कर उन्हें सजा सुनाई थी । 1947 में देश स्वतंत्र होने के बाद और संविधान लागू होने के पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक की पत्रिका ऑर्गेनाइजर में आपत्तिजनक लेख प्रकाशित होने पर तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ भी इसी कानून के अंतर्गत मामला दर्ज किया था वामपंथियों के खिलाफ भी इसी कानून के अंतर्गत कार्यवाही की गई है।
लगभग वही स्थिति स्वतंत्र भारत के देसी शासकों द्वारा आंदोलनकारियों के खिलाफ राजद्रोह का कानून वैसा ही लागू किया गया। जैसा अंग्रेज शासक करते थे। 1958 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस कानून को असंवैधानिक करार दिया था। 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे वैध ठहराते हुए दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ शर्तों के साथ मंजूरी दी थी। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बदलने के लिए विधि आयोग और संसद ने कानून में समय-समय पर बदलाव जरूर किए, किंतु अंग्रेजों के मूल कानून की आत्मा आज भी वैसी ही बनी हुई है। जैसे अंग्रेजों के जमाने में बनी हुई थी। केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद राजद्रोह के मामले बड़ी तेजी के साथ दर्ज किए जा रहे हैं। आपातकाल के बाद यह माना गया था, कि नागरिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए भाजपा ज्यादा सजगता के साथ काम करेगी। किंतु जिस तरह से अंग्रेजों के बनाए राजद्रोह कानून का उपयोग भाजपा शासित राज्यों एवं केंद्र सरकार द्वारा वर्तमान में किया जा रहा है उससे यह कानून एक बार फिर जनमानस के बीच चर्चाओं में आ गया है। हाल ही में विरोध प्रदर्शन, सरकार के खिलाफ समाचार अथवा लेख लिखने, अथवा विरोध करने पर पत्रकारों के ऊपर भी राजद्रोह के इसी कानून का उपयोग सरकारों द्वारा किया गया है। जो स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के दमन की याद दिलाने वाला है। इस कानून के अंतर्गत आजीवन कारावास या न्यूनतम 3 वर्ष की सजा का प्रावधान है। इसके साथ ही न्यायालयों द्वारा राजद्रोह के मामले में कई महीनों तक आरोपी को विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में निरुद्ध करके रखा जाता है। जिसके कारण व्यक्तिगत एवं नागरिक स्वतंत्रता पर बड़ा आघात भी माना जा रहा है।
राजद्रोह का यह कानून अभिव्यक्ति पर दमनकारी प्रभाव डालता है। सरकारों को निरंकुश बनाता है। लोकतंत्र की मूल भावनाओं पर आघात भी है। अंग्रेजों के बनाए इस कानून को ब्रिटेन सरकार ने 2009 और न्यूजीलैंड सरकार ने 2007 में इस कानून को समाप्त कर दिया था।भारत में अभी भी लगभग 150 वर्ष पुराने अंग्रेजों के बनाए कानून का उपयोग कर सरकार लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने का काम कर रही है। भारतीय संविधान लागू होने के बाद से भारत में नागरिकों के मौलिक अधिकार और नागरिकों की निजी स्वतंत्रता को सर्वोच्चता पर रखा गया है। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों के बनाए गए इस कानून में का पिछले 10 वर्षों में बिहार, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक सहित अन्य राज्यों में बड़े पैमाने पर दुरुपयोग, प्रदर्शनों को दबाने के लिए किया जा रहा है। हाल ही में आंदोलनकारियों के ऊपर इस कानून का उपयोग करते हुए उन्हें जेल भेजने से आम जनों के बीच इस कानून के खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। कई बार इस कानून को समाप्त करने के प्रयास भारत में हुए हैं। किंतु चुनी हुई सरकारों को अंग्रेजों द्वारा बनाए गए कानून को समाप्त करना रास नहीं आता है। केंद्र की कांग्रेस सरकार हो या भाजपा की सरकार सबको यह कानून सरकार में होने पर अच्छा लगता है। विपक्ष में जब होते हैं, तब इसका विरोध करते हैं। यही इस कानून की नियति है।

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