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पश्चिमी बंगाल की कांटेदार राजनीति बनाम टांकेदार राजनीति

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

(चोट की राजनीति से चोटिल लोकतंत्र)

पश्चिम बंगाल की राजनीति अपने नि नतम स्तर तक पहुंच चुकी है। जिस प्रकार ममता बनर्जी अपने स्वयं को लगी चोट को लेकर राजनीतिक कर रही हैं, चोट को एक राजनीतिक मुद्दा बना लिया, वह चिंतनीय एवं दुर्भाग्यपूर्ण है। क्या राजनीति अब इस स्तर पर की जाएगी? क्या अब चोट की राजनीति भी होगी? क्या अब पश्चिम बंगाल में कांटेदार राजनीति के साथ ही साथ टांकेदार राजनीति भी देखने को मिलेगी?

नेताजी सुभाष चंद्र बोस, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने जाने वाला पश्चिम बंगाल क्या अब टांकेदार राजनीति और हिंसात्मक राजनीति के लिए देश में जाना जाएगा? पश्चिम बंगाल में राजनीति और राजनीतिक हिंसा का चोली दामन का साथ रहा है। 1977 से 1997 तक लगभग 28000 लोगों की राजनीतिक हिंसा में मृत्यु हो गई। वर्ष 2015 में 131 राजनीतिक झड़पें हुई जिनमें 184 लोगों की मृत्यु हुई। वर्ष 2016 में 91 राजनीतिक झड़पों में 205 लोगों की मृत्यु हुई। 2018 में पंचायत चुनाव के दौरान 23 लोगों की राजनीतिक हिंसा से मृत्यु हुई। 2019 में 852 राजनीतिक हिंसा के मामले पश्चिम बंगाल में सामने आए। 2020 में लगभग 663 मामले राजनीतिक हिंसा के सामने आए जिनमें 57 लोगों की मृत्यु हो गई।

294 सीटों के लिए पश्चिम बंगाल में 8 चरणों में मतदान संपन्न होगा। 27 मार्च से 29 अप्रैल तक मतदान होगा। 2 मई को मतगणना संपन्न होगी। बहुमत के लिए 148 अंको का जादुई आंकड़ा चाहिए।

पश्चिम बंगाल में मुस्लिम तुष्टीकरण जमकर हुई है। वर्ष 2011 के जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में लगभग 27त्न आबादी मुस्लिम थी जो कि आज बढ़कर 30त्न से अधिक हो चुकी है। 100 से अधिक सीटें पश्चिम बंगाल में ऐसी हैं जहां पर मुस्लिम मतदाताओं का वर्चस्व है। पश्चिम बंगाल के कुछ जिले जैसे मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तर दिनाजपुर इत्यादि में 70त्न तक मुस्लिम आबादी है।

प्रशांत किशोर जो एक समय ममता बनर्जी के तारणहार थे और उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि भाजपा दहाई के अंक को भी नहीं छू पाएगी, आज स्वयं बंगाल को छोड़कर पंजाब पहुंच चुके हैं।

मां, माटी और मानुष की वकालत करने वाली ममता बनर्जी ने 2011 और 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की। दुर्गा पूजा के बजाय मोहर्रम के जुलूस को अधिक महत्व देने वाली ममता बनर्जी आज मंदिर मंदिर भटक रही हैं और चंडी पाठ कर रही हैं। कोई भी हो जब राजनीतिक स्वार्थ के लिए देवी उपासना का स्वांग रचाएगा तो देवी शक्ति उसे दंड तो देगी ही।

पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव बढ़ रहा है, इसमें किसी को कोई संदेह नहीं है। ममता बनर्जी का चिंतित एवं व्यथित होना स्वाभाविक है। ममता बनर्जी को सत्ता जाने का भय सता रहा है। बंगाल की राजनीति में आज ले ट हाशिए पर चली गई है। ले ट और कांग्रेस इस बार चुनाव साथ- साथ लड़ रहे हैं।

ममता बनर्जी के खेमे से विधायकों और सांसदों की भगदड़ मची हुई है। दिग्गज नेता एवं पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। कहीं ना कहीं तृणमूल कांग्रेस से दिनेश त्रिवेदी के जाने की वजह से हिंदी भाषी क्षेत्रों पर इसका गहरा और विपरीत असर पड़ेगा। तृणमूल कांग्रेस के बड़े नेता शुभेंदु अधिकारी पहले ही तृणमूल कांग्रेस का साथ छोड़ चुके हैं और ममता बनर्जी के खिलाफ नंदीग्राम में ताल ठोक रहे हैं। उनके पहले मुकुल राय भी तृणमूल कांग्रेस का साथ छोड़ चुके हैं।

एक समय ममता बनर्जी के खासमखास रहे पीरजादा अब्बास सिद्दीकी भी अपनी नई पार्टी बना चुके हैं और ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस को ही चुनौती दे रहे हैं। पीरजादा और ओवैसी की पार्टियों के आने से निश्चित तौर पर मुस्लिम वोटों का विभाजन होगा और कहीं न कहीं इससे ममता बनर्जी की पार्टी को भारी नुकसान होगा।

हाल में मिथुन चक्रवर्ती भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। मिथुन चक्रवर्ती के आने से भाजपा पश्चिम बंगाल में और सशक्त होगी। पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा भाजपा को त्यागकर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। यशवंत सिन्हा का तृणमूल कांग्रेस में आने से पार्टी को कोई विशेष फायदा नहीं मिलेगा। यशवंत सिन्हा की बात उनके घर वाले ही नहीं सुनते तो बाहर के लोग क्या सुनेंगे।

किसान आंदोलन के एक मु य चेहरा, भारतीय किसान यूनियन के राकेश टिकैत भी अब पश्चिम बंगाल पहुंच चुके हैं और वहां पर भाजपा के खिलाफ चुनाव प्रचार करेंगे। इससे यह स्पष्ट होता है कि किसान आंदोलन एक राजनैतिक आंदोलन था ना कि किसानों के हित के लिए किया गया आंदोलन था।

34 साल लंबे ले ट को शासन को खत्म कर 2011 में पश्चिम बंगाल की सत्ता पर आरूढ़ होने वाली ममता बनर्जी अपने 10 साल लंबे शासनकाल को और आगे ले जा पाती हैं या नहीं, यह देखना दिलचस्प होगा। भारतीय जनता पार्टी 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कमल के फूल को खिला पाएगी या नहीं। ममता बनर्जी के 10 वर्ष लंबे शासन का अंत पश्चिम बंगाल से हो जाएगा या नहीं, 2 मई को इसका पता लग जाएगा।

राजनीतिक नफा नुकसान होता रहेगा, मु यमंत्री की कुर्सी इधर से उधर आती – जाती रहेगी, सत्ताएं तो बनती बिगड़ती रहेंगी, कुर्सी का खेल तो चलता ही रहेगा लेकिन जिस प्रकार पश्चिम बंगाल में नि नस्तर की, चोट की, हिंसात्मक, कांटेदार के बजाय टांकेदार राजनीति हो रही है वह एक स्वस्थ लोकतंत्र लिए उचित तो कतई नहीं है।

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