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लॉकडाउन जरूरी या नहीं

-सिद्वार्थ शंकर-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

दूसरी लहर में तेजी से हो रहे संक्रमण की चेन को तोडने के लिए कोविड टास्क फोर्स के मेंबर्स ने कम्प्लीट लॉकडाउन की मांग की है। इन स्थितियों में संक्रमण की चेन तोडने के लिए दो हफ्ते का लॉकडाउन जरूरी है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि केंद्र और राज्य संक्रमण रोकने के लिए लॉकडाउन लगाने पर विचार करें। कोर्ट कमजोर तबके पर पडने वाले सामाजिक और आर्थिक नतीजों से वाकिफ है। इससे पहले अमेरिका के शीर्ष मेडिकल सलाहकार डॉ एंथनी फौसी ने भी कहा है कि भारत में संपूर्ण लॉकडाउन के बिना महामारी पर नियंत्रण संभव नहीं है। कई देश लॉकडाउन के सहारे महामारी से जंग जीत सके हैं। मगर भारत क्या सिर्फ लॉकडाउन से जंग जीत जाएगा, यह सवाल है।
भारत की सामाजिक संरचना दूसरे देशों से भिन्न है। अपने देश में ऐसा बड़ा तबका है, जो रोज कमाता-खाता है। पिछले साल लॉकडाउन में इस तबके की हालत सब देख चुके हैं। फिर अर्थव्यवस्था का जो हाल हुआ है, उससे देश अब तक नहीं उबर सका है, ऐसे में एक बार फिर देशव्यापी लॉकडाउन भारत की कमर तोडने का काम तो नहीं करेगा। अभी से ही कोरोना की दूसरी लहर का असर अर्थव्यवस्था पर दिखने लगा है। पिछले साल जब संकट की शुरुआत हुई थी, तब भी वक्त यही था। इस साल की पहली तिमाही के आंकड़े आने में तो चार महीने लगेंगे, लेकिन हालात के संकेत गंभीर हैं। पिछले साल किए गए 68 दिन के लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था अभी उबर भी नहीं पाई कि फिर से लॉकडाउन और प्रतिबंधों ने कारोबारियों में खौफ पैदा कर दिया। इस बार संकट कही ज्यादा गहरा है। संक्रमण जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, जल्द ही पांच लाख रोजाना का आंकड़ा छू जाएगा। सरकारें एकदम लाचार हैं।
सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के कहने के बावजूद अस्पतालों में ऑक्सीजन आपूर्ति सुचारू नहीं हो पा रही है। ऐसे में लोगों को मरने से कौन बचा सकता है? इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि जो सरकार नागरिकों को ऑक्सीजन और दवाइयां मुहैया करवा पाने में नाकाम साबित हो रही हो, वह अर्थव्यवस्था को कैसे बचा पाएगी? कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिस पर दूसरी लहर का असर नहीं दिख रहा हो। सबसे ज्यादा दुर्गति तो असंगठित क्षेत्र के उद्योगों और कामगारों की हो रही है। अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र की भूमिका सबसे बड़ी है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में इसका भारी योगदान रहता है। सबसे ज्यादा श्रम बल भी इसी क्षेत्र में लगा है। ऐसे में लॉकडाउन, कारोबार बंद रखने के प्रतिबंध अर्थव्यवस्था को फिर से गर्त में धकेल देंगे। महाराष्ट्र में जिस तरह की सख्त पाबंदियां लगी हैं, वे लॉकडाउन से कम नहीं हैं। इसका असर यह हुआ है कि जो लाखों लोग दिहाड़ी मजदूरी या अन्य छोटा-मोटा काम कर गुजारा चला रहे थे, वे अब खाली हाथ हैं। उनके काम-धंधे चैपट हैं। देश के बड़े थोक बाजार, व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद होने से हजारों करोड़ रुपए रोजाना का नुकसान होता है। फिर हर कारोबार एक दूसरे से किसी न किसी रूप से जुड़ा है और करोड़ों लोग इनमें काम करते हैं। छोटे उद्योग तो कच्चे माल से लेकर उत्पादन और आपूर्ति-विपणन तक में दूसरों पर निर्भर होते हैं। इसलिए जब बाजार बंद होंगे, लोग निकलेंगे नहीं तो कैसे तो माल बिकेगा और कैसे नगदी प्रवाह जारी रहेगा। यह पिछले एक साल में हम भुगत भी चुके हैं।धर, वित्त मंत्रालय भरोसा दिलाता रहा है कि दूसरी लहर का आर्थिक गतिविधियों पर असर ज्यादा नहीं पड़ेगा। लेकिन जिस व्यापक स्तर पर कारोबारी गतिविधियों में ठहराव देखने को मिल रहा है, उससे आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था पर मार पडना लाजिमी है। मुद्दा यह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा जो होटल, पर्यटन, खानपान, थोक और खुदरा कारोबार, आपूर्ति, मनोरंजन, परिवहन सेवा, सेवा क्षेत्र आदि से जुड़ा है, वह कैसे बंदी को झेल पाएगा। काम बंद होने पर कंपनियां वेतन देने में हाथ खड़े कर देती हैं। निर्माण क्षेत्र और जमीन जायदाद कारोबार की हालत छिपी नहीं है। निर्माण कार्य ठप पडने से मजदूर बेरोजगार हैं। इससे सीमेंट, इस्पात और लोहा जैसे क्षेत्रों में भी उत्पादन प्रभावित हो रहा है। वाहन उद्योग भी रफ्तार नहीं पकड़ पा रहा है। यह तस्वीर पिछले साल के हालात की याद दिलाने लगी है। अगर एक बार फिर से लंबी बंदी झेलनी पड़ गई तो अर्थव्यवस्था को पिछले साल जून की हालत में जाते देर नहीं लगेगी।

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