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कांग्रेस की गत क्यों

-सिद्वार्थ शंकर-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

देश के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अपनी हार के सिलसिले को तोडने में नाकाम रही। पार्टी का हाथ एक बार फिर खाली रह गया। राहत बस इतनी है कि तमिलनाडु में वह डीएमके के साथ लड़ी थी और सरकार बन गई। मगर यह द्रमुक के कारण हुआ। ऐसा भी कह सकते हैं कि इस राज्य में हर पंाच साल बाद सत्ता परिवर्तन का टे्रंड है, इसलिए भी द्रमुक की वापसी तय थी, क्योंकि अब तब अन्नाद्र्रमुक की सरकार थी। खैर, बाकी चार राज्यों पश्चिम बंगाल, असम, पुडुचेरी और केरल में पार्टी की दुर्गति हो गई। पार्टी की हार पर मंथन के लिए सोमवार को दिल्ली में कांग्रेस अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई। हार की समीक्षा के साथ ही किसी फैसले पर बंटी हुई राय फिर सामने आ गई। पहले कहा गया कि 23 जून को कांग्रेस अध्यक्ष के पद का चुनाव किया जाएगा। बाद में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कोरोना काल में चुनाव का विरोध किया। दूसरे नेता भी उनके साथ हो लिए और अध्यक्ष के चुनाव को आखिरकार टालना पड़ा। कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी की टिप्पणी भी खास है। उन्होंने कहा कि हम अगर कहें कि चुनाव नतीजों से काफी निराश हैं तो ये भी काफी नहीं होगा। कांग्रेस की दिक्कत यह है कि वह भाजपा की हार से काफी खुश होती है, अपनी लुटिया भले ही पूरी डूब जाए। पार्टी की यही सोच उसे चुनाव दर चुनाव पीछे ढकेल रही है। पार्टी को यह समझने की जरूरत है कि केरल और असम में वह क्यों हारी और बंगाल में एक भी सीट अपने नाम नहीं कर सकी। सोनिया गांधी ने कहा कि अगर हम वास्तविकता नहीं देखेंगे तो आगे के लिए सबक कैसे लेंगे। अगर पांच राज्यों के चुनाव परिणाम पर नजर डालें, तो राहुल गांधी केरल तो प्रियंका गांधी ने असम में केंद्रित कर रखा था। ऐसे में असम और केरल तमाम संभावनाओं के बावजूद पार्टी की शिकस्त ने राहुल-प्रियंका के नेतृत्व व रणनीति पर सवाल खड़े कर दिए हैं। पार्टी में उठते विद्रोह और बढ़ते असंतोष के बीच कांग्रेस की हार ने बागी नेताओं को गांधी परिवार के खिलाफ मोर्चा खोलने का मौका दे दिया है। पांच राज्यों की चुनावी रणनीति का संचालन पूरी तरह कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व और उनके करीबी पार्टी रणनीतिकारों के हाथ में ही रहा। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी केरल के वायनाड से सांसद होने के चलते विधानसभा चुनाव में उनकी साख दांव पर लगी थी। इसीलिए राहुल ने सबसे ज्यादा फोकस केरल के चुनाव प्रचार पर रखा था जबकि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने खुद को असम के प्रचार में लगा रखा था। हालांकि पांच राज्यों में से इन दोनों ने मुख्यतः खुद को दो राज्यों पर ही केंद्रित रखा। इसके बावजूद गांधी परिवार के दोनों नेता अपने-अपने राज्य में कामयाब नहीं रहे। कांग्रेस नेतृत्व सत्ता विरोधी माहौल के बाद भी जनमत को लुभाने में कामयाब नहीं हुआ। असम विधानसभा चुनाव में बीजेपी अपनी सरकार बचाने में एक बार फिर से सफल रही। वहीं, कांग्रेस का बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के साथ गठबंधन करने का दांव भी फेल हो गया। केरल में भी माना जा रहा था कि राहुल कांग्रेस की अगुवाई वाले यूडीएफ के पक्ष में एक सकारात्मक माहौल बना सकेंगे, क्योंकि वह अपने प्रचार के तरीके को बदलकर लोगों के बीच घुलकर मिलकर संवाद कर रहे थे। इसके बावजूद राहुल गांधी वाममोर्चा के पिनराई विजयन के सियासी वर्चस्व को तोड़ पाने में फेल हो गए। केरल के सियासी इतिहास में चार दशक के बाद कोई पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी कर सकी है। असम और केरल चुनाव नतीजों से यह भी साफ झलक रहा है कि कांग्रेस का मौजूदा नेतृत्व सत्ता विरोधी माहौल के बाद भी जनमत को लुभाने में कामयाब नहीं हो पा रहा है।

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