EducationPolitics

वैक्सीन में डब्ल्यूटीओ का टंटा

-डा. भरत झुनझुनवाला-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

कोविड की महामारी से निजात पाने के लिए इस समय देश में प्रमुख टीका एस्ट्राजेनेका द्वारा बनाया गया ‘कोविशील्ड’ प्रचलन में है। इसे भारत के सीरम इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया द्वारा एस्ट्राजेनेका से लाइसेंस लेकर बनाया जा रहा है। इसमें व्यवस्था है कि जिस मूल्य पर सीरम इंस्टीच्यूट इस टीके को बेचेगी, उसका आधा हिस्सा एस्ट्राजेनेका को रॉयल्टी के रूप में दिया जाएगा। अतः यदि सीरम इंस्टीच्यूट इस टीके को 150 रुपए में केंद्र सरकार को बेचती है तो उसमें से 75 रुपए एस्ट्राजेनेका को दिए जाएंगे। यह रॉयल्टी इस टीके के महंगे होने का प्रमुख कारण है। सीरम इंस्टीच्यूट का कहना है कि 150 रुपए में से उसे केवल 75 रुपए मिलते हैं, जिस मूल्य पर उसके लिए कोविशील्ड का उत्पादन करना संभव नहीं है। इसलिए सीरम इंस्टीच्यूट राज्यों को 300 रुपए में इसी टीके को बेचना चाहती है, जिसमें से 150 एस्ट्राजेनेका को रॉयल्टी के रूप में दिया जाएगा। इस विषय के दो परिणाम हैं। पहला यह कि टीका महंगा होने का प्रमुख कारण भारी मात्रा में एस्ट्राजेनेका को दी जाने वाली रॉयल्टी है। और दूसरा विषय यह है कि चूंकि केंद्र सरकार इस टीके को 150 रुपए में खरीद रही है जिस पर सीरम इंस्टीच्यूट बनाकर सप्लाई करने को तैयार नहीं है, इसलिए राज्य सरकारों को 300 रुपए में इसे खरीदना पड़ रहा है।

तात्पर्य यह कि राज्य सरकारों द्वारा दिए गए अधिक मूल्य के द्वारा केंद्र सरकार को सबसिडी दी जा रही है। यदि केंद्र सरकार सीरम इंस्टीच्यूट को कोविशील्ड का सही मूल्य अदा कर दे तो सीरम इंस्टीच्यूट द्वारा राज्य सरकारों को भी इसे सस्ता उपलब्ध कराया जा सकता है। चूंकि महामारी की चपेट में संपूर्ण देश है, इसलिए टीके को उपलब्ध करने की प्राथमिक जिम्मेदारी केंद्र सरकार की बनती है। अतः केंद्र सरकार को चाहिए कि सीरम इंस्टीच्यूट को उचित मूल्य दे और अपनी सस्ती खरीद का बोझ राज्यों पर वर्तमान की विकट परिस्थिति में न डाले। केंद्र सरकार की भूमिका राज्यों के संरक्षक की होनी चाहिए, न कि राज्यों के शोषक की। दूसरा विषय इस रॉयल्टी की मात्रा का है। 1995 में हमने विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ की सदस्यता स्वीकार की थी। डब्ल्यूटीओ की सदस्यता का एक नियम यह था कि ‘प्रोडक्ट’ पेटेंट देना होगा। दो प्रकार के पेटेंट होते हैं। एक ‘प्रोडक्ट’ पेटेंट यानी ‘माल’ के ऊपर दिया गया पेटेंट, और दूसरा ‘प्रोसेस’ यानी बनाने की विधि पर दिया गया पेटेंट। इसे आप इस प्रकार समझें कि लोहे की सरिया को एस्ट्राजेनेका ने गर्म करके पट्टी बनाई और उसे बाजार में बेचा। इसमें गर्म करना प्रोसेस हुआ और पट्टी प्रोडक्ट हुई। 1995 के पूर्व हमारे कानून में व्यवस्था थी कि किसी भी माल या प्रोडक्ट को कोई भी व्यक्ति किसी दूसरी प्रक्रिया या प्रोसेस से बना सकता है। उसी प्रोडक्ट को दूसरे प्रोसेस से बनाने की छूट थी। जैसे यदि एस्ट्राजेनेका ने लोहे की सरिया को गर्म करके पट्टी बनाया तो दूसरा व्यक्ति उसी सरिया को हथौड़े से पीटकर पट्टी बनाने और एस्ट्राजेनेका की तरह बाजार में बेचने को स्वतंत्र था।

इसकी तुलना में प्रोडक्ट पेटेंट में व्यवस्था होती है कि आप किसी भी प्रक्रिया या प्रोसेस से उसी माल जैसे लोहे की पट्टी को नहीं बना सकते हैं। इसलिए पूर्व में यदि एस्ट्राजेनेका ने कोविशील्ड बनाई थी तो हमारे उद्यमी उसी टीके को दूसरी प्रक्रिया से बनाने को स्वतंत्र थे। कोविशील्ड को हमारे उद्यमी आज दूसरी प्रक्रिया से बनाने को स्वतंत्र नहीं हैं, चूंकि हमने डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार प्रोडक्ट पेटेंट को लागू कर दिया है। और, चूंकि हमारे उद्यमी कोविशील्ड को बनाने को स्वतंत्र नहीं हैं, इसलिए हमें एस्ट्राजेनेका को भारी मात्रा में रॉयल्टी देनी पड़ रही है और यह टीका हमारे लिए महंगा हो गया है। डब्ल्यूटीओ में व्यवस्था है कि किसी राष्ट्रीय संकट के समय सरकार को अधिकार होगा कि किसी भी पेटेंट को निरस्त करके जबरदस्ती उस माल को बनाने का लाइसेंस जारी कर दे। जैसे यदि आज भारत पर राष्ट्रीय संकट है तो भारत सरकार कोविशील्ड बनाने के लाइसेंस को जबरन खोल सकती है अथवा दूसरे उद्यमियों को इसी टीके को बनाने के लिए हस्तांतरित कर सकती है। यह चिंता का विषय है कि इतने भयंकर संकट के बावजूद भारत सरकार कम्पल्सरी लाइसेंस जारी करने में संकोच कर रही है। भारत सरकार ने डब्ल्यूटीओ में दक्षिण अफ्रीका के साथ एक आवेदन अवश्य दिया है कि सम्पूर्ण विश्व के लिए इन पेटेंट को खोल दिया जाए, लेकिन स्वयं भारत सरकार आगे बढ़कर इस कम्पल्सरी लाइसेंस को जारी करने से झिझक रही है। इसके पीछे संभवतः भारत सरकार को भय है कि यदि कम्पल्सरी लाइसेंस जारी किया तो सम्पूर्ण बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हमारे विरुद्ध लामबंद हो जाएंगी। इसलिए इस बिंदु पर भारत सरकार का जो भी आकलन हो उसका हमें आदर करना चाहिए। यद्यपि मैं इस भय को निर्मूल मानता हूं। 1995 में डब्ल्यूटीओ संधि पर हस्ताक्षर करते समय हमें बताया गया था कि डब्ल्यूटीओ के अंतर्गत हमारे कृषि उत्पादों के लिए विकसित देशों के बाजार खुल जाएंगे और उससे हमें लाभ होगा।

इसके सामने ऊपर बताए गए पेटेंट से हमें नुकसान कम होगा। लेकिन आज 25 वर्षों के बाद स्पष्ट हो गया है कि विकसित देशों ने येन केन प्रकारेण अपने बाजार को हमारे कृषि निर्यातों के लिए नहीं खोला है। इसलिए डब्ल्यूटीओ आज हमारे लिए घाटे का सौदा हो गया है। हमें खुले व्यपार का लाभ कम ही मिला है जबकि पेटेंट से हमें घाटा अधिक हो रहा है जैसा कि कोविशील्ड के संदर्भ में बताया गया है। हमें आगे की सोचनी चाहिए। कोविड का वायरस म्यूटेट कर रहा है और अगले चरण में इसके नए रूप सामने आ सकते हैं। इसलिए हमें तत्काल तीन कदम उठाने चाहिएं। पहला यह कि केंद्र सरकार को सीरम इंस्टीच्यूट को कोविशील्ड खरीदने के लिए उचित दाम देना चाहिए जिससे कि राज्यों पर अतरिक्त बोझ न पड़े। केंद्र सरकार की भूमिका परिवार के कर्ता यानी पिता की है और राज्य सरकार की भूमिका आश्रित यानी पुत्र की है। इसलिए केंद्र सरकार को उचित दाम देना चाहिए। दूसरा, सरकार को तत्काल एस्ट्राजेनेका ही नहीं बल्कि फाइजर और रूस की स्पूतनिक आदि तमाम टीकों के कम्पल्सरी लाइसेंस जारी कर देने चाहिए, ताकि हमारे देश के उद्यमी इसे पर्याप्त मात्र में बना सकें। तीसरा, सरकार को भारत की कम्पनी भारत बायोटेक द्वारा बनाई गई कोवैक्सीन का लाइसेंस उन्हें संतुष्ट करते हुए उचित मूल्य पर खरीदकर सम्पूर्ण विश्व के लिए खुला कर देना चाहिए, ताकि सम्पूर्ण विश्व की कमनियां कोवैक्सीन को बना कर अपनी जनता को उपलब्ध करा सकें और हम इस संकट से उबर सकें।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Adblock Detected

Please consider supporting us by disabling your ad blocker