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दस मार्च को जिन बातों पर नज़र होगी

सत्येन्द्ररंजन.

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-
आज राजनीति. खास कर चुनावी राजनीति का संदर्भ बिंदु क्या हैघ् जवाब में हिंदुत्वए उग्र राष्ट्रवादए और मोदी राज का न्यू वेल्फरियरिज्म भारतीय राजनीति की दिशा तय करन वाले केंद्रीय बिंदु हैं। दस मार्च को आने वाले चुनाव परिणाम में यह एक अहम पहलू होगा कि क्या एंटी इन्कम्बैंसी ;यानी सत्ता में होने की वजह से होने वाला नुकसानद्ध का असर इस बार भाजपा पर होता हैघ् क्या जातीय अस्मिता की राजनीति के जरिए हिंदुत्व की व्यापक अस्मिता की राजनीति को नियंत्रित करने की एक बार फिर जताई गई उम्मीदों में सचमुच दम हैघ्

चुनाव अब लोकतंत्र को सुनिश्चित करने का किस हद तक पैमाना रह गए हैंए इस प्रश्न के लगातार अधिक प्रासंगिक होते जाने के बावजूद सच यही है कि अभी भी बहुसंख्यक लोगों के लिए ये सवाल अभी महत्त्वपूर्ण नहीं है। आम तौर पर गतिरुद्ध हो गई लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के बीच भी अधिकांश लोगों को चुनावों से समाधान निकल आने की उम्मीद अभी बची हुई है। इसीलिए जब कभी चुनाव होते हैंए तो राजनीतिक रूप से जागरूक लोगों का भी लगभग सारा ध्यान उन पर केंद्रित हो जाता है। यही स्थिति अभी हैए जब देश के पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हो रहे हैँ। दरअसलए उनमें से तीन राज्यों. पंजाबए उत्तराखंडए और गोवा. में मतदान पूरा हो चुका है। उत्तर प्रदेश और मणिपुर में सात मार्च को आखिरी चरण का मतदान होगा। जैसाकि सर्वविदित हैए इन सभी राज्यों में मतगणना दस मार्च को होगी।

पारंपरिक नजरिए में चुनावों को लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है। इसे जनादेश को व्यक्त करने वाला सबसे प्रभावी माध्यम भी समझा जाता है। इस नजरिए से दस मार्च को आम तौर पर लोगों की निगाहें यह देखने पर टिकी होंगी कि दस मार्च को किस राज्य में कौन.सी पार्टी जीतती है और कितने बड़े अंतर से जीतती है। बेशक उससे ही तय होगा कि संबंधित राज्य में किसकी अगली सरकार बनेगी। लेकिन वह सरकार बनने से देश की वर्तमान परिस्थिति में क्या और कितना बदलाव आएगाए ये प्रश्न अक्सर चर्चा में नहीं आता। बेशक इस प्रश्न का संबंध देश की पॉलिटिकल इकॉनमी से है। पॉलिटिकल इकॉनमी के स्वरूप को समझना एक अधिक गंभीर मसला है। अक्सर इस पर चुनावी संदर्भ में चर्चा करने की जरूरत नहीं महसूस की जाती।
बहरहालए इस विषय को अलग चर्चा के लिए छोड़ देते हैं। लेकिन अगर दस मार्च को आने वाले चुनाव नतीजों को गहराई से समझना होए तो गुजरे वर्षों में राजनीति के बदले संदर्भ बिंदु ;रेफरेंस प्वाइंटद्ध को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दरअसलए राजनीति के आज के संदर्भ बिंदु को ध्यान में ना रखने का ही यह नतीजा होता है कि चुनाव और उनसे उभरने वाले राजनीतिक संकेतों के बारे में लगाए गए अनुमान अक्सर गलत साबित हो जाते हैँ।

ये ध्यान देने का पहलू हैः एक समय राजनीति का संदर्भ बिंदु जन कल्याणकारी कार्यों के मामले में सरकारों का कामकाज होता था। तब रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े मुद्दे राजनीति के भी प्रमुख मुद्दे होते थे। लेकिन भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के उदय के साथ यह संदर्भ बिंदु पृष्ठभूमि में जाने लगा। नरेंद्र मोदी की खूबी यह है कि उन्होंने इस परिघटना को अंजाम तक पहुंचा दिया। यानी 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद वो संदर्भ बिंदु पूरी तरह बदल गया।
अगर बिना अधिक विस्तार में गए इस बात पर गौर करें कि आज राजनीति. खास कर चुनावी राजनीति का संदर्भ बिंदु क्या हैए तो यह साफ होगा कि हिंदुत्वए उग्र राष्ट्रवादए और मोदी राज का न्यू वेल्फरियरिज्म भारतीय राजनीति की दिशा तय करन वाले केंद्रीय बिंदु बने हुए हैं। बेशकए कुछ राज्य अभी भी अपवाद हैंए जहां मोदी काल में भी भारतीय जनता पार्टी के पांव नहीं पसर सके हैँ। लेकिन देश के ज्यादातर हिस्सों में. हिंदुत्व और न्यू वेल्फयरिज्म के जरिए भाजपा ने कम से कम एक तिहाई मतदाताओं को गोलबंद कर रखा है। 2014 के बाद से अब तक किसी भी चुनाव में. भाजपा के प्रभाव क्षेत्र वाले राज्यों में इस गोलबंदी में गिरावट आने के संकेत नहीं मिले हैं। दरअसलए ज्यादातर मौकों पर इस ध्रुवीकरण के और मजबूत होने के संकेत मिले हैं। मसलनए पिछले साल पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी बहुमत पाने में भले विफल रहीए लेकिन उसके वोट प्रतिशत में 2016 के विधान सभा चुनाव की तुलना में लगभग पौने चार गुना की बढ़ोतरी दर्ज हुई।

इन नए संदर्भ बिंदु का खास पहलू यह है कि आम जिंदगी की बढ़ती परेशानियां चुनाव परिणाम तय करने के लिहाज से अप्रासंगिक बनी हुई हैं। हिंदुत्व के मुद्दे ने भाजपा के ठोस वोट बैंक का विस्तार किया है। मोदी के पहले के दौर में राष्ट्रीय स्तर पर ये वोट बैंक 18 से 20 प्रतिशत था। आज यह निश्चित रूप से 25 प्रतिशत से ज्यादा है। यानी ये वो मतदाता हैंए जिन्हें महंगाईए बेरोजगारीए कोरोना काल की भयानकताए या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की कमजोर पड़ती स्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ता। अपने प्रतिक्रियावादी चरित्र के कारण वे इस बात से संतुष्ट हैं कि लोकतांत्रिक संविधान के गुजरे वर्षों में हुए प्रयोग के कारण सामाजिक वर्चस्व की व्यवस्था में जो बदलाव आ रहे थेए मोदी राज ने उस परिघटना को न सिर्फ रोक दिया हैए बल्कि उसकी दिशा भी पलट दी है। इससे कारण उन्हें ये काल हिंदू गौरव का दौर लगता है।

इसके ऊपर न्यू वेल्फेयरिज्म से आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों के एक हिस्से में मोदी राज के कल्याणकारी होने का भाव भरा है। न्यू वेल्फेयरिज्म से मतलब दूरगामी परिणाम देने वाले सार्वजनिक निवेश को खत्म कर उसका एक हिस्सा प्रत्यक्ष लाभ के रूप में देने की अपनाई गई नीति से है। इसके तहत स्वास्थ्यए शिक्षाए वैज्ञानिक शोधए मानवीय बुनियादी ढांचेए आदि में निवेश को घटाया गया है। उससे बचाई गई रकम के एक हिस्से से पहले रसोई गैसए मकानए प्रत्यक्ष नकदी ट्रांसफर आदि के कार्यक्रम चलाए गए। कोरोना काल में मुफ्त अनाज का वितरण इसका हिस्सा बना है। यह यूं ही नहीं है कि चुनाव करीब आते ही उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने गेहूं और चावल के साथ घीए तेलए और नमक आदि का भी मुफ्त वितरण शुरू कर दिया।

हिंदुत्व के राजनीतिक परिदृश्य और न्यू वेल्फरियज्म के आर्थिक हस्तक्षेप से भाजपा की जो राजनीतिक ताकत बनी हैए उसके रहते उसे हराना कठिन बना रहा है। उसे उसके प्रभाव क्षेत्र वाले राज्यों में सिर्फ वहां हराया जा सका हैए जहां उसके विरोधी मतदाताओं का संपूर्ण ध्रुवीकरण संभव हो सका। अनेक राज्यों में ऐसा होने के बावजूद भाजपा अकेले या अपने सहयोगी दलों के साथ भारी पड़ी है। प्रश्न है कि दस मार्च को जब मौजूदा दौर के चुनावों के परिणाम आएंगेए तो क्या इससे कुछ अलग राजनीतिक सूरत उभरेगीघ्
वैसे अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैंए उनमें पंजाब भी है। पंजाब उन गिने.चुने राज्यों में एक हैए जो मोदी राज के पॉलिटिकल रेफरेंस प्वाइंट से अब तक दूर रहा है। हालांकि वहां भी भाजपा अपनी सहयोगी पार्टी अकाली दल के साथ सत्ता में रह चुकी हैए लेकिन वहां राजनीति का संदर्भ भाजपा के ने प्रभाव क्षेत्र वाले राज्यों से अलग रहा है। इस रूप में पंजाब के नतीजों को देखने की कसौटी इस बार भी उससे अलग होगीए जो बाकी चार राज्यों में रहेगी। पंजाब में जिन बातों पर निगाह रहेगीए उनमें प्रमुख हैः

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