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ज्ञानवापी-ताजमहल के विवाद

-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-

-: ऐजेंसी सक्षम भारत :-

मुगल काल में भारतवर्ष के अनेक मंदिर गिरा दिए गए थे, यह जानने के लिए पीएचडी करने की जरूरत नहीं है। इसके लिए बादशाहों के फरमान उन्हीं के दरबारी रोजनामचाकारों द्वारा लिखित रजिस्टरों में जगह-जगह मिल जाते हैं। मथुरा में कृष्ण मंदिर, अयोध्या में राम मंदिर और काशी में विश्वनाथ मंदिर की चर्चा ज्यादा इसलिए होती है क्योंकि ये ऐतिहासिक लिहाज़ से और सांस्कृतिक कारणों से ज्यादा चर्चित और प्रसिद्ध थे। अन्यथा इस प्रकार से ध्वस्त किए गए मंदिरों की सूची कहीं ज्यादा लंबी है। मार्तंड में कश्मीर घाटी के सूर्य मंदिर के खंडहर आज भी आंखें नम कर देते हैं। सोमनाथ के मंदिर के खंडहरों का भी यही हाल था। अयोध्या, मथुरा और काशी में मामला इसलिए थोड़ा अलग था क्योंकि वे मंदिर मुगल बादशाह तुड़वाते भी रहते थे, लेकिन स्थानीय लोग इसके बावजूद किसी न किसी प्रकार से वहां पूजा अर्चना भी करते रहते थे। मंदिर से पीठ सटा कर मस्जिदें भी बनी थीं और साथ टूटा मंदिर भी रहता था। मार्तंड मंदिर इस मामले में अभागा रहा, क्योंकि उसके आसपास की सारी जनता ही इस्लाम में मतांतरित कर ली गई थी। इसलिए पूजा अर्चना का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था। जिस समय अंग्रेज़ों का राज भारत में स्थापित हुआ तो उनके इतिहासकारों और उनके पोषित भारतीय इतिहासकारों ने इतिहास के नाम पर यह मुनादी करवाना शुरू कर दी कि भारत तुर्कों व मुग़लों के अत्याचारों से त्रस्त था। नए गोरे शासकों ने आकर भारतीयों को इस अत्याचारी राज से मुक्ति दिलवाई और भारत में आधुनिक काल शुरू हुआ।

शुरू में कुछ लोगों को शायद विश्वास भी हुआ। आर्कियोलाजी विभाग की स्थापना की गई और जगह जगह खुदाई से अरबों, तुर्कों व मुग़लों (एटीएम) द्वारा ध्वस्त किए गए मंदिरों के अवशेष मिलने शुरू हो गए। कुछ स्थानों पर स्थानीय लोगों ने उनका पुनरुद्धार कर पूजा अर्चना भी शुरू कर दी। तब अंग्रेज़ों को लगा कि इससे तो भारतीय समाज में एक नई ऊर्जा व चेतना जागृत हो जाएगी जो भविष्य में उनके अपने राज्य के लिए भी हानिकारक सिद्ध हो सकती है। इसलिए एक नया अधिनियम बनाया गया जिसमें ऐसे सारे ध्वस्त मंदिरों का अधिग्रहण आर्कियोलाजी विभाग ने कर लिया, उनके पुनर्निर्माण और पूजा पाठ की मनाही कर दी गई। लेकिन कुछ ऐसे मंदिर भी थे जिनमें पूजा पाठ बंद करवाने में अंग्रेज़ सरकार विफल रही। काशी और मथुरा के मंदिर ऐसे ही थे। मुसलमानों को भी इसमें कोई एतराज़ नहीं था, क्योंकि कुछ साल पहले तक उनके अपने पुरखे भी इन्हीं मंदिरों में पूजा पाठ करते रहे थे। अलबत्ता एटीएम को ऐतराज़ था और इन ऐतिहासिक मंदिरों को तोड़ कर बनाई गई इन मस्जिदों पर उन्हीं का कब्जा था। इन मंदिरों को तोड़ा भी एटीएम के पूर्वजों ने ही था। भारतीय मुसलमानों का इससे कुछ लेना-देना नहीं था। अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद एटीएम द्वारा तोड़े गए इन मंदिरों के पुनर्निर्माण का प्रश्न फिर पैदा हुआ। ये टूटे हुए देवस्थान विदेशी शासकों द्वारा भारत के अपमान के प्रतीक थे। कांग्रेस के भीतर ही इस प्रश्न को लेकर दो दल बन गए। एक समूह सरदार पटेल का था और दूसरा समूह पंडित जवाहर लाल नेहरु का था। पटेल के साथ राजेन्द्र प्रसाद, पुरुषोत्तम दास टंडन व अन्य अनेक कांग्रेसी थे। उन दिनों महात्मा गांधी भी जि़ंदा थे। वे इन सभी मंदिरों के पुनर्निर्माण के समर्थन में थे, लेकिन उनकी एक ही नसीहत थी कि इसमें सरकार का पैसा नहीं लगना चाहिए। सरदार पटेल का समूह पहले ही इस हक़ में था कि इस पुनर्निर्माण में सरकारी ख़जाने का पैसा नहीं लगना चाहिए।

यह सम्पूर्ण भारतीय जनता का अपना अभियान था जिसमें जनता की अपनी गाढ़ी ख़ून पसीने की कमाई ही लगने वाली थी। सरदार पटेल ने आम जन से पैसा एकत्रित कर ऐतिहासिक सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का कार्य शुरू करवा दिया और पंडित जवाहर लाल नेहरु ने हस्बे मामूल उसका विरोध करना शुरू कर दिया। वे विरोध करने में निजी स्तर तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि उन्होंने बाकायदा इसके लिए लॉबिंग करनी शुरू कर दी। राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को तोड़ने की कोशिश की कि वे मंदिर के उद्घाटन के अवसर पर न जाएं। लेकिन राजेन्द्र प्रसाद नेहरु के इस अपमानजनक व षड्यंत्रकारी अभियान में शामिल नहीं हुए। उसके बाद नेहरु कुछ नहीं कर सकते थे। अलबत्ता खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे। नेहरु ने रेडियो स्टेशन को आदेश दिया कि वह राष्ट्रपति का इस अवसर पर राष्ट्र को किया गया संबोधन प्रसारित न करे। सोमनाथ मंदिर का तो उद्धार हो गया, लेकिन देश का दुर्भाग्य कि जल्दी ही सरदार पटेल की मृत्यु हो गई और भारत के पुनरुत्थान का यह सांस्कृतिक अभियान ठप्प हो गया। लेकिन भारतीयों ने अपना संकल्प नहीं छोड़ा। अयोध्या में राम मंदिर के ध्वस्त किए जाने के शताब्दियों बाद राम मंदिर का पुनर्निर्माण भी प्रारम्भ हो गया। इस बात की सराहना की जानी चाहिए कि महात्मा गांधी की नसीहत को ध्यान में रखते हुए राम मंदिर का निर्माण भी आम भारतीय जन के पैसे से ही किया जा रहा है। काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर आधे हिस्से में बनाई गई मस्जिद को लेकर फिर बवाल मचा हुआ है। भारत के लोग चाहते हैं कि कम से कम उस तथाकथित मस्जिद के अंदर जाकर देख तो लिया जाए कि वहां कौन कौन सी मूर्तियां अभी भी खंडित या पूरी पड़ी हुई हैं। तहखानों में मंदिर की कौन सी वस्तुएं रखी हुई हैं। न्यायालय ने बाकायदा इसके लिए एक सर्वेक्षक नियुक्त किया, लेकिन एटीएम ने उसे तथाकथित मस्जिद के ढांचे के अंदर नहीं जाने दिया। ताजमहल के बंद पड़े बीस कमरों में क्या छिपा कर रखा गया है, उसको जानना जरूरी है।

वह आवेदन भी न्यायालय में लंबित है। एटीएम का एक और गहरा षड्यंत्र है। वह इस पूरे अभियान में भारतीय मुसलमानों को आगे करने के काम में लगा हुआ है। जबकि भारतीय मुसलमानों को न तो महमूद गजनवी से कुछ लेना-देना है और न ही औरंगजेब से। वे इन तुर्क व मुगल बादशाहों के इन कामों में शामिल भी नहीं थे। जिन मंदिरों को गिराया गया था वे इन्हीं भारतीय मुसलमानों के पुरखों द्वारा बनाए गए मंदिर थे। लेकिन मीडिया इस पूरे झगड़े को हिंदू पक्ष व मुस्लिम पक्ष का झगड़ा बता कर प्रचारित कर रहा है। यह झगड़ा दरअसल भारतीय पक्ष और एटीएम यानी भारत में रह रहे अरब, तुर्क व मुगल पक्ष का है। एटीएम शायद अभी भी इस भ्रम में जी रहा है कि भारत में अभी भी तुर्कों का राज है। दरअसल भारत में विधि सम्मत सांविधानिक व्यवस्था है। एटीएम को उसका सम्मान करना चाहिए और न्यायालयों को अपना काम करने देना चाहिए। पंजाबी में एक कहावत है। रंडी तो रंडेपा काट लेती है, लेकिन मुशटंडे नहीं काटने देते। एटीएम तो शायद समझ जाता कि भारत में तुर्कों व मुग़लों के दिन लद गए। लेकिन कम्युनिस्ट इतिहासकार उन्हें औरंगजेब और महमूद गजनवी के संत होने के कि़स्से सुनाते रहते हैं, जिसके कारण उन्हें लगता रहता है कि ये मंदिर भारत के लोगों ने स्वयं ही तोड़ दिए थे। गजनवी और औरंगजेब तो दरवेश थे, वे ऐसा काम कैसे कर सकते हैं। शायद यही कारण है कि इन दरवेशों के कामों की अब जब जांच-पड़ताल हो रही है तो एटीएम न्यायालय को ज्ञानवापी में घुसने नहीं दे रहा। भारत जाग रहा है। वह फ़कत अपने इतिहास के छिपे पन्नों की खोज कर रहा है। ऐसे पन्ने जो नेहरु को इंडिया की डिस्कवरी करते हुए नहीं मिले थे। या फिर मिल भी गए होंगे तो उन्होंने छिपा लिए होंगे। उन्हीं पन्नों की पड़ताल हो रही है।

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