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60 साल गुजर गए, कैसे खत्म होगा महाराष्ट्र, कर्नाटक का झगड़ा

-गंगाधर ढोबले-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद पिछले 60 साल से अनसुलझा है और उसके निकट भविष्य में सुलझने के कोई आसार भी नहीं दिखते। जब-जब महाराष्ट्र या कर्नाटक में चुनाव आते हैं, यह विवाद जोर पकड़ने लगता है। अबकी बार अगले छह महीने में कर्नाटक में चुनाव होने हैं। लिहाजा विवाद को हवा मिलनी ही है। इसलिए कि अस्मिता की आग तपाकर वोट पाने का नुस्खा सभी राजनीतिक दल आजमा चुके हैं। बासी कढ़ी को फिर उबाल लाना ही है। बीस साल की एक पीढ़ी मानें तो लगभग तीन पीढ़ियां बीत चुकी हैं। शायद दोनों राज्यों की युवा पीढ़ी इसमें दिलचस्पी भी खो चुकी हो। उसे फिर से जगाने में राजनीतिक दल लगे हुए हैं। इस विवाद की पृष्ठभूमि में ही इसके अनसुलझे रहने के तार छिपे हुए हैं।

विवाद क्या है?

भाषाई प्रांत रचना में इसकी जड़ें हैं।

राज्यों के पुनर्गठन के लिए 1953 में फजल अली आयोग गठित किया गया। इसकी रिपोर्ट के आधार पर 1956 में राज्य पुनर्गठन कानून बना। इसी वर्ष पुराना मैसूर राज्य कर्नाटक बन गया, जबकि पुराना बंबई प्रांत महाराष्ट्र।
महाराष्ट्र ने बेलगांव, कारवार और निपाणी जैसे मराठी भाषी इलाकों को कर्नाटक में शामिल करने पर कड़ी आपत्ति जताई। दोनों ओर हिंसक आंदोलन हुए। इसे शांत करने के लिए एक समिति बनाई गई। न्या. मेहरचंद महाजन इसके प्रमुख थे।
इस दौरान 1960 में राज्यों का पुनर्गठन हो गया। सीमा विवाद वैसे ही बना रहा। महाजन समिति ने 1967 में अपनी रिपोर्ट पेश की। समिति ने कर्नाटक के निपाणी, नंदगढ़, खानापुर समेत 264 गांव कर्नाटक से निकालकर महाराष्ट्र को और महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के अक्कलकोट, जत जैसे 247 गांव कर्नाटक को दे दिए। बेलगांव और कारवार कर्नाटक के पास ही रह गए।
इससे महाराष्ट्र में फिर नाराजगी फैली। उस समय दोनों राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें थीं, लेकिन कोई हल नहीं निकला। इस समय भी कर्नाटक में बोम्मई के नेतृत्व वाली बीजेपी की सरकार है और महाराष्ट्र में भी बीजेपी के प्रभाव वाली ही शिंदे-फडणवीस सरकार है।
कांग्रेस की सरकारें थीं तब भी और अब बीजेपी की सरकारें हैं तब भी, कोई महाजन रिपोर्ट को मानने को तैयार नहीं है। अंत में महाराष्ट्र ने इस विवाद पर 2004 में सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई। पिछले 18 सालों से यह मामला एडमिशन स्टेज पर ही अटका हुआ है। पिछले 30 नवंबर को सुनवाई थी, लेकिन कुछ हो नहीं पाया।
अंत में महाराष्ट्र ने संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया। इस अनुच्छेद के अंतर्गत केंद्र और राज्यों के विवादों को सुप्रीम कोर्ट में लाया जा सकता है। कर्नाटक ने इसके विरोध में अनुच्छेद 3 के हवाले से कहा है कि सुप्रीम कोर्ट को राज्यों की सीमा तय करने का अधिकार नहीं है। यह अधिकार केवल संसद को है। सुप्रीम कोर्ट को ऐसे विवादों में दखल देने का अधिकार है या नहीं यह मामले का केंद्रबिंदु है।

कर्नाटक में अगले छह माह में विधानसभा चुनाव होने हैं। वहां पिछले चुनाव में बीजेपी के विरोधी दलों का बहुमत हो गया था। बाद में बीजेपी ने येदियुरप्पा के जरिए फिर से सत्ता हासिल की। येदियुरप्पा से केंद्र नाराज था ही, इसलिए उन्हें हटाकर बोम्मई को सत्ता सौंपी गई। बोम्मई के कार्यकाल में कोई विशेष उपलब्धि हासिल नहीं हुई। उनकी स्लेट लगभग कोरी ही है। उन्हें इस समय बदला भी नहीं जा सकता। इसलिए भाषा के नाम पर भावनात्मक खेल खेला जा रहा है।

बोम्मई को अचानक याद आया कि महाजन आयोग ने जत तालुका के 40 गांव कर्नाटक को दिए थे। चुनाव की गर्मी पैदा करने के लिए जैसे ही उन्होंने ये गांव कर्नाटक को सौंपने की मांग की, वैसे ही प्रतिवाद में महाराष्ट्र उतर गया। दोनों राज्यों ने एक इंच भी जमीन न देने की बात कही।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बीच-बचाव कर दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक कराई। तय हुआ कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक यथास्थिति बनाए रखी जाए। लेकिन इस समझौते के दो हफ्ते बाद ही सबकुछ बदल गया और दोनों ओर राजनीतिक तपिश बढ़ गई। कर्नाटक विधानसभा के प्रस्ताव पारित करते ही महाराष्ट्र ने भी वैसा ही प्रस्ताव पारित किया। सुलह ज्यादा दिन नहीं चली।

अब क्या हो?

इस विवाद का समाधान खोजना टेड़ी खीर है, लेकिन इसके ये उपाय हो सकते हैं-

यथास्थिति कायम रखी जाए। दोनों पक्ष उस पर सहमत हों। केंद्र को फैसले का अधिकार दिया जाए और केंद्र का फैसला दोनों पक्षों के लिए बंधनकारी हो।
विवादास्पद इलाकों के बारे में अंतिम फैसला होने तक केंद्रशासित क्षेत्र बनाया जाए जैसा कि शिवसेना के उद्धव ठाकरे ने सुझाव दिया है। हालांकि जब वह मुख्यमंत्री थे तब ऐसा कुछ नहीं कहा और सीना तानकर कर्नाटक से इंच-इंच जमीन वापस लेने की गर्जना करते रहे।
एक और आयोग या समिति गठित की जाए और उसकी सिफारिशों को दोनों पक्ष मानें।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने का इंतजार करें। इस विवाद का अधिकार क्षेत्र अदालत का है या संसद का यह एक बार तय हो जाए। इसके बाद ही अगले कदम उठाए जांए।

कुछ मिलाकर दोनों ओर लेनदेन होनी है। कर्नाटक को महाराष्ट्र के 40 गांवों की अपेक्षा है, जबकि महाराष्ट्र को कर्नाटक से 865 गांवों की। दोनों पक्ष यदि तैयार हों तो केंद्र की निगरानी में मध्यस्थ नियुक्त किए जा सकते हैं, जो समानता के बिंदु खोजें। दोनों पक्ष कुछ न कुछ छोड़ने के लिए तैयार हों। लेकिन इसकी संभावना इस समय तो बिल्कुल दिखाई नहीं देती। इस सीमा विवाद के इतने आयाम हैं और इतनी कथाएं इसके पीछे हैं कि यह शेखचिल्ली की कहानी लगती है, जो अंत के साथ नई कहानी को जन्म दे देती है।

 

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