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सरकार के निर्णयों पर न्यायपालिका सोच बदले?

-सनत जैन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा देश वासियों की ओर से चुने गए प्रतिनिधि जनता के सेवक हैं। देश के जनता के प्रति निर्वाचित प्रतिनिधियों की जवाबदेही है। न्यायाधीशों को भी ऐसा सोचना और मानना होगा। सरकार जनता के लिए काम कर रही है। उन्होंने कहा कि संविधान सबसे पवित्र किताब है। मोदी सरकार देश को संविधान के अनुसार चला रही है। कोई इसे बिगाड़ने की कोशिश ना करे। उन्होंने अधिवक्ता परिषद के 16 वें अधिवेशन में कहा जनता के सेवक जन-प्रतिनिधि होते हैं। जो लोग न्यायपालिका में हैं। उन्हें भी ऐसा ही सोचना होगा। उन्होंने अधिवेशन में बोलते हुए कहा कि कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों का ही आदर्श लोगों को जीवन यापन की सामान स्थितियां उपलब्ध कराना संयुक्त दायित्व है। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर हमें अपने दायित्वों का निर्वाह करना चाहिए। कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच मनमुटाव है। सारे देश में यह संदेश जा रहा है। सरकार न्यायपालिका को अपने कब्जे में लेने की कोशिश कर रही है उन्होंने यह भी सलाह दे डाली कि न्यायाधीशों को देश के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए। उन्होंने देश का मतलब शायद सरकार को मान लिया है। क्योंकि वही सच्चे निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं।

न्यायपालिका को संविधान ने सर्वोच्चता प्रदान की है। न्यायपालिका को अपने निर्णय के क्रियान्वयन कराने की कोई अधिकार नहीं दिए। विधायिका को कानून बनाने की शक्तियां दी। कार्यपालिका में सरकार और अधिकारी शामिल होते हैं। लोकसभा विधानसभा एवं स्थानीय प्रशासन जो कानून या नियम तैयार करते हैं। उन कानूनों और नियमों को लागू कराने की जिम्मेदारी सरकार के ऊपर होती है। सरकार के अंतर्गत कार्यपालिका के मंत्री और अधिकारियों की लोक सेवक के रूप में संविधान ने जिम्मेदारी तय की है। विधायिका द्वारा जो भी कानून बनाए गए हैं। वह संविधान के मौलिक अधिकारों का हनन करने वाले नहीं होने चाहिए। जो भी नियम कानून लागू होते हैं। वह संविधान के अनुरूप यह देखने का अधिकार केवल न्यायपालिका को है। न्यायपालिका जो भी निर्णय करेगी। उसे मानने की बाध्यता विधायिका और कार्यपालिका के लिए संविधान ने तय करके रखी है। पिछले वर्षों में विधायिका ने बहुत सारे ऐसे कानून बनाए जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन करने वाले थे। उन्हें न्यायपालिका ने समय-समय पर निरस्त किया। इसके साथ ही सरकार और उसके अधिकारियों ने गाइडलाइन के माध्यम से ऐसे नियम तैयार किए जिनसे आम आदमियों का उत्पीड़न और स्वतंत्रता बाधित हुई। ऐसे सभी मामलों में अंतिम निर्णय का अधिकार न्यायपालिका के पास है।

संविधान को यदि यह विश्वास होता कि जनप्रतिनिधि जो भी कानून बनाएंगे वह संविधान के अनुरूप होंगे। वह जो भी कार्य करेंगे वह पूरी पारदर्शिता और मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखेंगे। फिर न्यायपालिका की जरूरत ही नहीं होती। सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि न्यायालयों में जो 5 करोड़ मामले लंबित हैं। उनमें 70 से 80 फ़ीसदी मामलों में सरकार पार्टी है। जो भी नियम कानून कायदे बने हुए हैं या जो निर्णय सरकार में बैठे हुए लोगों ने दिए हैं। उनके विरुद्ध न्यायालयों में लोग गए हुए हैं। यदि इतने बड़े पैमाने पर सरकार के खिलाफ मुकदमे हैं। सरकार के अनुसार न्यायाधीशों की नियुक्ति भी सरकार की मनमर्जी से होगी। न्यायाधीशों पर भी सरकार की मंशा के अनुरुप निर्णय देने की बाध्यता होगी। ऐसी स्थिति में सरकार और प्रशासन ने जो निर्णय किए हैं। उससे अलग हटके न्यायपालिका कभी कोई निर्णय न्यायपालिका नहीं कर पाएगी। संवैधानिक संस्थाओं में जो नियुक्ति हो रही है। उसमें सरकार के इशारे पर सारे निर्णय हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में संविधान की मूल भावना और नागरिकों के मूल मौलिक अधिकार कैसे सुरक्षित रह पाएंगे।

चुनाव आयोग जांच एजेंसी एनआईए सीबीआई आयकर प्रवर्तन निदेशालय कैग इत्यादि में जो नियुक्तियां हो रही हैं। उनको लेकर लगातार प्रश्नचिन्ह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा ही लगाए जा रहे हैं। उन्हीं के खिलाफ सबसे ज्यादा मुकदमे की बाढ़ देखने को मिल रही है। भारत जैसे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं भारतीय लिखित संविधान के अनुसार ही नागरिकों के मौलिक अधिकार सुरक्षित रह सकते हैं। न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति उनकी योग्यता निष्पक्षता संविधान के प्रति निष्ठा बहुत ही जरूरी है। भारत में अनादि काल से चले आ रहे ब्रह्मा विष्णु महेश की अधिकारिता के तहत जो भारतीय संविधान तैयार किया गया है। उसे कायम रखा जा सकेगा। अपने आपको सर्वोच्च मानने की कोशिश करेगा उससे भारतीय संविधान और नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रख पाना संभव नहीं होगा। कार्यपालिका और विधायिका की तानाशाही बढ़ेगी उस पर कोई अंकुश नहीं रहेगा। जो आज सत्ता में है वह कल विपक्ष में होंगे। कानून का राज सभी को संरक्षित करेगा।

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