
-ऋतुपर्ण दवे-
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
देश में बढ़ती नफरत को लेकर सर्वोच्च अदालत की बार-बार की टिप्पणियाँ अपने में काफी अहम है। सुप्रीम कोर्ट की चिंता साफ-साफ टीवी डिबेट्स और दूसरे पब्लिक प्लेटफॉर्म के जरिए बेतुके और संवेदनशील मुद्दों पर असंवेदनशीलता की तरफ इशारा भी है। धार्मिक मामलों पर हो रही लगातार बयानबाजी से देश के माहौल पर पड़ रहे बुरे असर को लेकर पहले भी अदालतों और पक्षकारों ने अपनी-अपनी तरह की चिन्ताएँ जाहिर की हैं। जिन बातों को रोकने का जिम्मा राज्यों का है उसको लेकर सुप्रीम कोर्ट को चिन्ता करना चिन्तित करता है। सुप्रीम कोर्ट की गंभीरता और अमूमन दिखने वाली हकीकत भी यही है कि यदि राजनीति और धर्म को अलग कर दिया जाए तो नफरती बयानबाजी खुद-ब-खुद खत्म हो जाएगी। हेट स्पीच को लेकर सुप्रीम कोर्ट के सख्त तेवर इतने तल्ख शायद ही कभी पहले दिखे हों। यकीनन राज्य का जिम्मा है कि जहाँ भी हेट स्पीच का मामला आए सख्ती से रोके तथा कार्रवाई करे। केवल एफआईआर तक सीमित नहीं रहे। लेकिन जो दिखता उससे लगता है कि नसीहतों के बाद भी कितना अमल हुआ और आगे हो पाएगा?
जाहिर है वजह राजनीतिक लाभ और खास एजेण्डे हैं। लेकिन सच्चाई यही है कि ऐसी घटनाएँ रुक नहीं रही हैं। हाँ बरसों बरस से हो रही ऐसी अनदेखियां बाद में नासूर जरूर बन जाती हैं। इससे जान-माल के भारी भरकम नुकसान से लेकर समाज में विपरीत असर पड़ने के तमाम उदाहरण हैं जो अब तक गांठें बने हुए हैं। सच है कि भारतीय दंड संहिता में हेट स्पीच की कोई साफ परिभाषा नहीं है। इसको सही संदर्भ में परिभाषित करने के लिए अंग्रेजों के जमाने के कानूनों में सुधार, सुझाव हेतु केंद्रीय गृह मंत्रालय की आपराधिक कानूनों पर सुधार समिति की कोशिशें जारी हैं।
हमारे यहाँ जब-तब स्वार्थ या लाभ की राजनीति खातिर हेट स्पीच की घटनाओं से सामाजिक सामंजस्य बिगड़ना लगभग आम सा हो चुका है। भारतीय राजनीति में जातिवाद तथा धर्म एक बड़ा कारक है। हमेशा देखा जाता है कि राजनीतिक ध्रुवीकरण के चलते किसी विशेष समुदाय या जाति के तुष्टीकरण या निशाने के लिए ही अक्सर नफरती भाषा या हेट स्पीच या फिर ईशनिंदा कुछ भी कहें, की जाती है। सामान्यतः ईशनिंदा किसी धर्म या मजहब की आस्था का मजाक बनाना होता है। जिसमें धर्म प्रतीकों, चिह्नों, पवित्र वस्तुओं का अपमान करना, ईश्वर के सम्मान में कमीं या पवित्र या अदृश्य मानी जाने वाली किसी चीज के प्रति नफरती भाव या अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना होता है।
एक कड़वी सच्चाई भी कि बयान किसी के लिए नफरती हो सकता है तो किसी के लिए अभिव्यक्ति की आजादी। बस इसी महीन पेंच को लेकर तर्क-कुतर्क होते रहते हैं। लेकिन यह भी देखना चाहिए की अपनी बात कहने की स्वतंत्रता की हद भी है और एकता व शांति भंग करने वाले बयानों पर पाबंदी भी। ऐसी बात, हरकत, भाव-भंगिमा, बोलकर, लिखकर, चित्रों, कार्टूनों के जरिए भड़की हिंसा के अलावा धार्मिक भावना आहत करना, किसी समूह, समुदाय के बीच धर्म, नस्ल, जन्मस्थान और भाषा के आधार पर विद्वेष पैदा करने की आशंका या कुचेष्टा है जो हेट स्पीच के दायरे में है। एक सच्चाई यह भी है कि इसमें सहनशीलता की परीक्षा होती है। जनप्रतिनिधि और जनसामान्य किसी की बात को सहन कर पाते हैं और किसी की नहीं। बस यही फर्क है जिसके लोग अपने-अपने मायने लगा बैठते हैं कि बोलने की आजादी सबको है। माना कि लब बोलने को आजाद हैं लेकिन कैसे बोल के लिए? समाज को जोड़ने या तोड़ने वाले? उत्तर साफ है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 और इसके विभिन्न भाग मुख्यतः प्रतिबन्धों के साथ 6 तरह की स्वतंत्रता जिसमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एकत्र होने की स्वतंत्रता, संघों, यूनियनों, सहकारी समितियों को बनाने की स्वतंत्रता, स्वतंत्र रूप से आने-जाने की स्वतंत्रता, निवास की स्वतंत्रता, पेशे की स्वतंत्रता देता है। लेकिन तमाम ऐसे प्रतिबन्धों के साथ जिससे देश की एकता, अखण्डता, सुरक्षा, अन्य जनों की निजता, सुरक्षा, अधिकारों का हनन न हो तथा कहीं भी अवैध निवास, कृत्य या व्यवसाय को प्रतिबन्धित करता है। हालाकि विधि आयोग की 267वीं रिपोर्ट में हेट स्पीच को एक ऐसे अभिभाषण के रूप में परिभाषित किया गया है जिससे नस्ल, जाति, लिंग, लैंगिक अभिविन्यास, धार्मिक विश्वास इत्यादि के विरुद्ध घृणा तथा हिंसा को बढ़ाने का प्रयास किया गया हो। लेकिन साइबर उत्पीड़न के मामले में जांच करने वाली एजेंसियों को दिए गए मैनुअल में पुलिस अनुसंधान तथा विकास ब्यूरो द्वारा हेट स्पीच को व्यक्ति या समूह के नस्ल, जाति, लिंग, यौन, विकलांगता, धर्म के आधार पर उसके विरुद्ध अपमानजनक अभिव्यक्ति, धमकी या बदनामी करने के प्रयास के रूप में परिभाषित किया गया है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(2), भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए, 153 बी, 295 ए, 505(1) तथा 505(2)। अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 95 राज्य को यह अधिकार देती है कि राज्य 153ए तथा बी 292, 293 तथा 295ए के अंतर्गत हुए अपराधों के संदर्भ में किसी भी प्रकाशन, समाचार पत्र पुस्तक या दृश्यात्मक प्रकाशन, यदि उस पर आपत्ति दर्ज की गई है, तो उसे प्रतिबंधित कर दे। जबकि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 में हेट स्पीच का प्रयोग करने वाले जनप्रतिनिधि पर निर्वाचन में सम्मिलित होने से प्रतिबंधित कर दिया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट का नफरत भरे भाषणों को गंभीर करार देने का हालिया वाकया नया नहीं है। अक्टूबर 2022 में भी सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के पुलिस प्रमुखों को औपचारिक शिकायतों का इंतजार किए बिना आपराधिक मामले दर्ज करके नफरत भरे भाषणों के अपराधियों के खिलाफ स्वतः संज्ञान लेकर तुरंत कार्रवाई के निर्देश दिए थे। अभी महीने भर पहले भी हेट स्पीच से भरे टॉक शो और रिपोर्ट प्रसारित करने पर टीवी चैनलों को जमकर फटकार लगी। साल भर नहीं हुए कि दूसरी बार इसी 29 मार्च को सुप्रीम कोर्ट की हेट स्पीच के मामलों के फौरी कार्रवाई करने में राज्यों की विफलता पर चिंता जताना बड़ी बात है। जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना की पीठ का सवाल कि अब हम कहां पहुंच गए हैं? गंभीर है। ये कहना कि कभी हमारे पास नेहरू, वाजपेयी जैसे वक्ता थे जिन्हें सुनने दूर-दराज से लोग आते थे। अब लोगों की भीड़ फालतू तत्वों को सुनने आती है। राज्यों से पूछना कि समाज में हेट स्पीच के अपराध को कम करने के लिए एक तंत्र क्यों नहीं विकसित कर सकते? राजनेता धर्म का उपयोग करते हैं,धर्म और राजनीति जुड़ गए हैं। इन्हें अलग करने की जरूरत है। राज्य नपुंसक हैं। वो समय पर काम नहीं करते। ऐसे मसलों पर चुप्पी साध लेने से राज्यों के होने का मतलब ही क्या? यकीनन राजनीति का धर्म के साथ घालमेल खतरनाक है।सुप्रीम कोर्ट मंशानुरूप फटकारों से देश में दरारें पटने लग जातीं और पुराना भाईचार लौट आता तो कितना अच्छा होता।काश कानून बनाने वाले माननीय कानून का अनुपालन कराने वाले देश की सर्वोच्च संस्था के दर्द और इशारों को समझ पाते।