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डॉलर की सत्ता से मुक्ति का मार्ग

-डा. अश्विनी महाजन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

पहले विश्व युद्ध से लेकर अब तक हमने डॉलर की मजबूती देखी है। पहले विश्व युद्ध के बाद मित्र देशों ने संयुक्त राज्य अमरीका को आपूर्ति के बदले सोना देना शुरू किया, जिसके बलबूते अमरीका दुनिया का सबसे बड़ा सोने का भंडार बन गया। युद्ध खत्म होने के बाद विभिन्न देशों ने अपनी कैरेंसियों को डॉलर के साथ जोड़ दिया और इसके साथ ही दुनिया में ‘गोल्ड स्टैण्डर्ड’ का अंत हो गया और साथ ही साथ डॉलर दुनिया की सबसे ज्यादा पसंदीदा कैरेंसी बन गई। सभी मुल्क अपने विदेशी मुद्रा भंडार ज्यादा से ज्यादा डॉलर के रूप में रखने लगे। 1999 तक दुनिया के मुल्कों के कुल विदेशी मुद्रा भंडार 70 प्रतिशत तक डॉलर में रखे जाने लगे। 1999 में यूरोपीय साझा कैरेंसी यूरो का उदय हुआ और कुछ यूरोपीय देशों को छोडक़र शेष सभी ने देर-सबेर अपनी कैरेंसी के बदले यूरो का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इसका असर डॉलर पर भी पड़ा और कुछ यूरोपीय कैरेंसियों और डॉलर के बदले अब यूरो विदेशी मुद्रा भंडारों के लिए पसंद किया जाने लगा और विदेशी मुद्रा भंडारों में वर्ष 2021 के प्रारंभ तक आते-आते डॉलर का हिस्सा मात्र 59 प्रतिशत ही रह गया था। लेकिन पिछले कुछ समय से यह हिस्सा और कम होकर वर्ष 2022 की तीसरी तिमाही तक मात्र 55 प्रतिशत ही रह गया।

दुनिया भर में अब डॉलर के प्रति आसक्ति कम होती दिखाई दे रही है। दिलचस्प बात यह है कि डॉलर अभी भी किसी भी प्रकार से कमजोर नहीं हुआ है, बल्कि कुछ कैरेंसियों को छोडक़र दुनिया की लगभग समस्त कैरेंसियों की तुलना में डॉलर साल दर साल मजबूत और अधिक मजबूत होता रहा है। इंग्लैंड के पाउंड की तुलना में देखें तो जहां आज एक अमरीकी डॉलर 0.81 ब्रिटिश पाउंड के बराबर है, वहीं वर्ष 2014 में यह औसतन 0.59 ब्रिटिश पाउंड के बराबर था। दूसरी कैरेंसियों की हालत भी लगभग इसी प्रकार रही। एक अमरीकी डॉलर जो वर्ष 2014 में 0.75 यूरो के बराबर था, आज वह 0.93 यूरो के बराबर पहुंच चुका है। आज एक अमरीकी डॉलर 131.51 जापानी येन के बराबर है, यही 2014 में औसतन 121 जापानी येन के बराबर था। इतिहास में डॉलर के प्रति दुनियाभर के मुल्कों की आसक्ति के कारण डॉलर दुनिया की अन्य कैरेंसियों, खासतौर पर विकासशील देशों की कैरेंसियों की तुलना में लगातार मजबूत होता गया। जहां 1980 में एक डॉलर मात्र 7.86 भारतीय रुपए के बराबर था और आज यह 82.20 रुपए तक पहुंच चुका है। कई अन्य मुल्कों की कैरेंसियों के मुकाबले तो यह और भी ज्यादा मजबूत हो चुका है। शायद इसीलिए दुनिया के तमाम मुल्क डॉलर को ही रिजर्व कैरेंसी रखने और अपने सभी अंतरराष्ट्रीय भुगतान डॉलरों में ही करने में रुचि रखते रहे हैं। डॉलर की इसी बढ़ती मांग के चलते डॉलर और अधिक मजबूत होता गया। लेकिन पिछले कुछ समय से रिजर्व कैरेंसी के नाते डॉलर की मांग कम होती जा रही है। जानकार लोग इस प्रवृत्ति को डी-डॉलरीकरण का नाम दे रहे हैं। जैसे पूर्व में पूरी दुनिया का डॉलरीकरण हुआ, लेकिन अब दुनिया में डी-डॉलरीकरण हो रहा है। समझने की आवश्यकता है कि जहां अमरीकी डॉलर इतिहास में सबसे अधिक मजबूत स्थिति में है, तो भी दुनिया में रिजर्व कैरेंसी के नाते डॉलर के प्रति आसक्ति क्यों कम हो रही है। यदि विश्लेषण करें तो पता चलता है कि इसके पीछे कई कारण हैं। सबसे पहला कारण फरवरी 2022 से चल रहा रूस-यूक्रेन युद्ध है।

संयुक्त राज्य अमरीका और यूरोपीय देशों का कहना है कि रूस द्वारा यूक्रेन पर आक्रमण किया गया है, इसलिए दुनिया के सभी देशों को रूस से संबंध विच्छेद कर लेने चाहिए। अमरीका ने न केवल रूस पर विभिन्न प्रकार के प्रतिबंध लगाए हैं, बल्कि वैश्विक भुगतान प्रणाली स्विफ्ट से उसको बेदखल कर दिया है। माना जा रहा है कि भुगतान प्रणाली पर अमरीका और यूरोपीय देशों के दबदबे के चलते रूस के डॉलरों में विदेशी मुद्रा भंडारों की निकासी नहीं हो सकती। यानी रूस को आर्थिक दृष्टि से कमजोर करने के लिए अमरीका और यूरोपीय देशों द्वारा भुगतान प्रणाली को युद्ध के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे में स्वभाविक तौर पर रूस और उसके मित्र देश अब किसी भी हालत में अपने विदेशी मुद्रा भंडारों को डॉलरों में रखने के लिए तैयार नहीं। अमरीका और यूरोपीय देशों के प्रतिबंधों के चलते दुनिया के मुल्कों पर यह भी दबाव बनाया जा रहा है कि वे रूस से कच्चा तेल न खरीदें। रूस अपने ऊपर लगे पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के चलते सस्ते दामों पर कच्चा तेल बेचने को तैयार है।

ऐसे में भारत ने तो पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों को धत्ता दिखाते हुए रूस से ज्यादा से ज्यादा तेल खरीदना शुरू कर दिया है। जहां रूसी तेल का हिस्सा भारत के तेल आयात में मात्र 1 प्रतिशत ही था, वह बढक़र अब 35 प्रतिशत पहुंच चुका है। रूस ने तो यहां तक कहा है कि वो भारत से रुपयों में भी व्यापार करने के लिए तैयार है। यही नहीं रूस पर लगे प्रतिबंधों के कारण अब अन्य देश अमरीका और यूरोपीय देशों के जहाजों और बीमा कंपनियों की सेवा भी नहीं ले सकते हैं। ऐसे में भारत और कई अन्य देश अब रूसी और अन्य गैर अमरीकी और गैर-यूरोपीय जहाजों और बीमा कंपनियों की सेवाएं ले रहे हैं। यानी अमरीका और यूरोप के रूस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के चलते अब पश्चिमी देश आर्थिक प्रतिबंधों की अपनी दादागिरी के कारण स्वयं ही भारी नुकसान उठा रहे हैं। भारतीय बैंकों की भूमिका अंतरराष्ट्रीय भुगतानों में बढ़ती जा रही है।

19 देशों के साथ रुपयों में होंगे भुगतान

एक तरफ जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डॉलर के इस्तेमाल में कमी आती जा रही है, भारत ने भी डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करने की कवायद शुरू कर दी है। गौरतलब है कि भारत सरकार द्वारा रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद अमरीका और यूरोपीय देशों द्वारा भुगतान प्रणाली को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाने के बाद भारत ने रूस से तेल आयात के बदले रुपयों में भुगतान करने की तरफ कदम बढ़ाना शुरू किया। पिछले साल जुलाई में भारतीय रिजर्व बैंक ने एक पत्रक के माध्यम से आयात और निर्यात के लिए अंतरराष्ट्रीय भुगतान निपटारों को रुपयों में करने हेतु अनुमति प्रदान कर दी है। यह भारतीय रुपए को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनाने की तरफ पहला कदम माना जा रहा है। उसके बाद दिसंबर में पहली बार रूस के साथ भुगतान निपटारे की शुरुआत हो चुकी है। भारत सरकार के प्रयासों से अभी तक इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, जर्मनी, मलेशिया, इजराइल, रूस और यूनाईटेड अरब अमीरात समेत 19 देशों के बैंकों को ‘स्पेशल वोस्त्रो रूपी एकाउंट’ खोलकर रुपयों में भुगतान निपटारे करने की अनुमति प्रदान की जा चुकी है। गौरतलब है कि 19 देशों की इस सूची में कई देश ऐसे हैं जिनके साथ भारत का विदेशी व्यापार काफी बड़ी मात्रा में होता है।

यदि इन देशों के साथ भुगतान निपटारे अब रुपयों में होने लगेंगे तो देश में डॉलरों की मांग निश्चित रूप में कम होगी। दुनिया में डी-डॉलरीकरण की तरफ भारत का यह प्रयास चाहे छोटा ही सही, लेकिन भारत के लिए तो निश्चित तौर पर मील का पत्थर साबित होगा। विश्व को डॉलरों की सत्ता से मुक्ति के बाद दुनिया में डॉलर की कीमत पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। अब डॉलर की मजबूती की प्रवृत्ति पर भी कहीं न कहीं लगाम लगेगी। उसका फायदा दुनिया के तमाम मुल्कों को हो सकता है, जिनकी कैरेंसियां डॉलर के मुकाबले अब बेहतर हो सकेंगी। धीरे-धीरे डॉलर से मुक्ति प्राप्त करती दुनिया की आर्थिक तस्वीर कैसी होगी, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन यह तस्वीर तमाम उन देशों के लिए अवश्य मंगलकारी होगी जो लगातार डॉलर की तुलना में अपनी कैरेंसियों के अवमूल्यन की त्रासदी से गुजर रहे हैं। विश्व अब बदल रहा है।

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