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संकट में हिमालय

-सुदर्शन सोलंकी-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

हिमालय समूचे उत्तर भारत के अस्तित्व की बुनियाद है, लेकिन जानते-बूझते हम इस पर्वतराज को तरह-तरह से नेस्तनाबूद करने में लगे हैं। इस हेठी के चलते उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी राज्यों में आई अभी हाल की भीषण बाढ़ ने पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और उत्तरप्रदेश को हलकान कर दिया है। किस तरह हिमालय को बर्बाद किया जा रहा है, इस आलेख में इस विषय को खंगालने का प्रयास करेंगे। भारत एशिया ही नहीं, बल्कि विश्व में अपनी समृद्ध पारिस्थितिकी के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। यहां पहाड़, पर्वत, प्राकृतिक जंगल और बहुतेरे जीव-जंतु हैं। हिमालय विश्व की 50 फीसदी प्रजातियों का निवास स्थान है। हिमालय के लगभग 5.5 लाख वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्रफल में फैले इकोसिस्टम में जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की हजारों प्रजातियां हैं। हिमालय की जैव-विविधता जीवन का आधार है। हिमालय क्षेत्र के पानी से ही 13 करोड़ जनसंख्या भोजन, जल व अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यहां लगभग 1748 औषधीय पौधे, 675 जंगली फल व जंगली उत्पाद होते हैं।

‘यारसा गंबो’ जैसी दुर्लभ जड़ी-बूटी ने यहां के करीब 200 गांवों की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था को उन्नत बनाया है। जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा 2018 में प्रकाशित शोध के अनुसार हिमालय में जंतुओं की 30377 प्रजातियां और उप-प्रजातियां हैं। हिमालय में वनस्पतियों की कुल कितनी प्रजातियां हैं इसका बिल्कुल सटीक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, किन्तु बॉटिनिकल सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक पूरे देश में 49000 से अधिक वनस्पति प्रजातियां और उप-प्रजातियां हैं। भारतीय हिमालयी क्षेत्र में जैव-विविधता के दो अलग-अलग केंद्र हैं। पश्चिमी हिमालय, जहां कुल जैव-विविधता का 85 प्रतिशत से अधिक है, वहीं दूसरी ओर पूर्वी हिमालय जो 6 प्रतिशत पर सीमित है, यह अल्पाइन उप-समशीतोष्ण क्षेत्र को घेरे हुए है। हिमालय की विशाल पर्वत शृंखलाएं साइबेरियाई शीतल वायुराशियों को रोककर भारतीय उपमहाद्वीप को जाड़ों में अधिक ठंडा होने से बचाती हैं। वाइल्ड लाइफ इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया के शोध के अनुसार, ‘हिमालय धरती पर सबसे ऊंचा और विशाल पर्वतीय ताना-बाना है जो कि 2400 किलोमीटर लम्बा और 300 किलोमीटर से अधिक चौड़ा है। ’

बर्फ (हिम) अतिरिक्त गर्मी (ऊष्मा) को पुन: अंतरिक्ष में भेजकर पृथ्वी और महासागरों की रक्षा करता है, परन्तु मानवीय गतिविधियों से, विशेष रूप से औद्योगिक क्रांति के बाद से तेजी से बढ़ी ग्लोबल वार्मिंग व इसके प्रभाव से जलवायु परिवर्तन हुआ है, जिसके कारण हिमालय की जैव-विविधता खतरे में हैं। पिछले कुछ वर्षों से हिमालय क्षेत्र के भूमि उपयोग में हो रहे बदलाव के कारण भी तापमान बढ़ रहा है। हिमालय के अधिकांश पर्यटन स्थल धीरे-धीरे कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होते जा रहे हैं जिससे इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी प्रभावित हुई है। मनुष्यों के साथ वाहनों की आवाजाही ने भी बर्फ के पिघलने की रफ्तार बढ़ाई है। नतीजे में हिमालय के 50 से भी अधिक ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। इसका सीधा असर हिमालयी वनस्पतियों के वितरण, ऋतु-जैविकी एवं कार्यिकी पर सीधे तौर पर देखने को मिल रहा है। जीवाश्म ईंधन के जलने के परिणामस्वरूप ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है जिससे ऊष्मन प्रक्रिया प्रभावित होती है क्योंकि ये ऊष्मा को वायुमंडल से बाहर जाने में बाधा बनती हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की बायोलॉजिकल हेल्थ ऑफ रिवर गंगा नामक रिपोर्ट के अनुसार औसत तापमान में लगभग एक डिग्री तक की वृद्धि से ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बढ़ी है। एक ताजा अध्ययन से पता चला है कि अब हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार शताब्दी की शुरुआत में उनके पिघलने की रफ्तार से दोगुनी हो गई है। यह आंकड़ा वर्ष 1975 से वर्ष 2000 तक ग्लेशियरों के पिघलने की मात्रा का दोगुना है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि भले ही आने वाले दशकों में दुनिया ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगा ले, लेकिन दुनिया के शेष ग्लेशियरों का एक-तिहाई से अधिक हिस्सा वर्ष 2100 से पहले पिघल जाएगा।

ग्लेशियरों के पिघलने से जैव-विविधता को नुकसान हो रहा है और जीव-जंतुओं के आवास स्थल समाप्त हो रहे हैं। ‘अंतर-सरकारी साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म’ ने जैव-विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर 2019 में पहली वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट के आकलन के अनुसार जानवरों और पौधों की दस लाख प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा है और इनमें से हजारों प्रजातियां तो कुछ दशकों के अंदर ही विलुप्त हो जाएंगी। हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के असर का अध्ययन कर रहीं टीमों को बहुमूल्य हिमालयी जैव-विविधता के नष्ट होने की चिंता सताने लगी है। जलवायु परिवर्तन, जंगलों का कटना, खराब वन प्रबंधन और लोगों में जागरूकता की कमी इत्यादि के कारण हम यहां की अमूल्य संपदा खो देंगे। यदि हम हिमालय की अनन्य और सक्षम जैव-विविधता के साथ ही हिमालय का संरक्षण करना चाहते हैं तो हमें सर्वप्रथम कार्बन डाई-ऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण करना होगा। साथ ही हिमालयी क्षेत्र में रहने वाले लोगों को इसके संरक्षण के लिए जागरूक करना होगा। यहां पर्यटन के नाम पर रिसॉट्र्स, कंक्रीटीकरण अथवा किसी भी तरह का निर्माण नहीं होने देना चाहिए। वनों का कटान एकदम रोकना होगा और ज्यादा से ज्यादा पौधारोपण होना चाहिए। बड़ी मात्रा में जो अवैध खनन हो रहा है, उस पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है। हिमालय का संरक्षण तभी संभव है, जब सरकारें, जनता तथा नागरिक समाज मिलजुल कर काम करेंगे। स्कूल स्तर पर पर्यावरण संरक्षण विषय को शामिल करने की सख्त जरूरत है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए विश्व स्तर पर विकसित और विकासशील देशों को मिलकर काम करने की जरूरत है।

 

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