
-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-
इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच छिड़ी जंग से कट्टर हिन्दू और कट्टर मुसलमान दोनों बहुत खुश हैं। ऐसे हिन्दुओं को इस बात में मज़ा आ रहा है कि मुसलमान मारे जा रहे हैं और मुसलमानों को इस बात में कि उनके लोग यहूदियों को सबक सिखा रहे हैं। इन दोनों फिरकों को कतई ये बुरा नहीं लग रहा है कि आखिर क़त्ल तो बेगुनाह इंसानों का ही हो रहा है। दिक्कत ये है कि हमास को आतंकवादी संगठन कहने पर मुसलमान नाराज़ हो जाते हैं और इज़राइल को आक्रान्ता बताने पर हिंदूवादी। दोनों ही भूल जाते हैं कि युद्ध किसी चीज़ का समाधान नहीं है, बल्कि वह समस्याएं ही पैदा करता है और उन्हें बढ़ाता भी है। लगभग डेढ़ साल से चल रहे रूस-यूक्रेन युद्ध का अभी तक तो कोई नतीजा निकला नहीं है और न ही निकट भविष्य में ऐसा होता दिखाई देता है।
इधर हिन्दूवादियों को इस युद्ध ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक और कुतर्क दे दिया है जिसके मुताबिक मुसलमान अगर ये मानते हैं कि इज़राइल ने उनकी ज़मीन हथिया ली है और वो उन्हें वापस मिलनी चाहिये तो फिर वे अयोध्या, काशी और मथुरा हिन्दुओं को वापस क्यों नहीं दे देते। राजनीतिक रूप से निरक्षर लोगों को यह बात सही लग सकती है लेकिन वास्तव में इज़राइल-फिलिस्तीन मामले की तुलना भारत के इन धर्मस्थलों से करना सिरे से ग़लत है। क्योंकि इनको लेकर विवाद थे नहीं, पैदा किये गये हैं और इनका निपटारा देश की अदालतें देर-सबेर कर ही देंगी। दूसरा- तमाम मतभेदों के बावजूद और कभी-कभार के तनाव या टकराव को छोड़ सभी धर्मों के मानने वाले शांति और भाईचारे के साथ इस देश में रहते आये हैं जबकि इज़राइल ने फिलिस्तीनी आबादी को बहुत छोटे से इलाके में रहने को मजबूर कर रखा है और उस पर भी वह लगातार हमले करता रहता है।
इस युद्ध के साथ कांग्रेस के ख़िलाफ़ भी दुष्प्रचार का नया सिलसिला चल निकला है। कांग्रेस ने पहले ही दिन निर्दोष इज़राइली नागरिकों की हत्या पर गहरा दु:ख व्यक्त किया, उनकी भर्त्सना की और युद्धविराम की अपील भी की। लेकिन फिलिस्तीन के अधिकारों की बात करते ही उस पर हमास समर्थक होने का लेबल चस्पा कर दिया गया क्योंकि कांग्रेस ने हमास की निंदा नहीं की। एक झूठ यह भी फैलाया जा रहा है कि फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात एक आतंकवादी थे, जिन्हें इंदिरा और राजीव गांधी ने सर-आंखों पर बैठाया। इंदिरा गांधी ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए सबसे पहले फिलिस्तीन को मान्यता दी और अराफ़ात को ‘नेहरू शांति पुरस्कार’ दिया, उन्हें एक करोड़ रुपये और सोने की ढाल भेंट की जबकि राजीव गांधी ने उन्हें ‘इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार’ दिया। इतना ही नहीं, राजीव ने उन्हें दुनिया भर में घूमने के लिए बोइंग जहाज भी भेंट किया था। कहने की ज़रूरत नहीं कि बेसिर पैर की ऐसी बातें कहां और क्यों गढ़ी जाती है।
दो और दो को पांच बनाने में माहिर भारतीय जनता पार्टी को बताना चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी ने 1977 में रामलीला मैदान पर फिलिस्तीन के समर्थन में जो कहा था, उससे वह सहमत है या नहीं। उसकी नज़र में हमास और फिलिस्तीन अगर एक ही हैं तो उसे साफ़ करना चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी फिलिस्तीन क्यों गए थे और क्यों उन्होंने वहां का सर्वोच्च नागरिक सम्मान स्वीकार किया, क्यों यासिर अराफ़ात की कब्र पर उन्होंने फूल चढ़ाये। और अब विदेश मंत्रालय को यह कहने की ज़रूरत क्यों पड़ी कि भारत ने हमेशा से ही एक अलग और स्वतंत्र फ़िलिस्तीन राज्य का समर्थन किया है। साथ ही शांतिपूर्ण समाधान के लिए सीधी बातचीत की वकालत भी की है। क्या इज़राइल के साथ खड़े होने का ट्वीट करने के चार दिन बाद सरकार को अहसास हुआ कि उसे तटस्थ रहना चाहिये?
मज़े की बात है कि फिलिस्तीन पर सरकार की नीति को लेकर उससे पूछे गये सवालों पर जो सफाई भाजपा या सरकार को देनी थी, वह गोदी मीडिया ने दी कि भारत तो इज़राइल और फिलिस्तीन के मामले में हमेशा से तटस्थ रहा है और मोदीजी ने फिलिस्तीन का नहीं, बल्कि फिलिस्तीन के चरमपंथी संगठन हमास और उसके हमले का विरोध किया है। इस तरह के हमलों के ख़िलाफ़ भारत की जो ज़ीरो टॉलरेंस की नीति है, मोदीजी के नेतृत्व में भारत उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है। अच्छा है यदि सचमुच ऐसा हो रहा हो, लेकिन इज़राइल-फिलिस्तीन मामले में जब दूसरे तमाम देश प्रतिक्रिया देने के लिये सही समय का इंतज़ार कर रहे थे तब हमारी सरकार को किस बात की जल्दबाज़ी थी? क्या विश्वगुरु बनने की महत्वाकांक्षा इतनी प्रबल थी कि थोड़ी देर के लिये ही सही, हर कसौटी पर जांची-परखी हुई अपनी विदेश नीति को हमने दरकिनार कर दिया?