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विधानसभा चुनावों में सांसद, रणनीति या वक्त का तकाजा

-अवधेश कुमार-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने उम्मीदवारों की घोषणा से सबको चौंकाया है। मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं छत्तीसगढ़, तीनों जगह उसने अनेक सांसदों को मैदान में उतारा है। इनमें केंद्रीय मंत्री भी हैं। तेलंगाना में भी पूर्व अध्यक्ष बंदी संजय कुमार को हटाकर सांसद एवं केंद्रीय मंत्री जी किशन रेड्डी को बागडोर थमा दी गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा अपने निर्णयों से बराबर आश्चर्य में डालती है।

राजनीति में हमेशा प्रयोगों की गुंजाइश रही है और चुनाव बड़ा अवसर होता है। जो पार्टी वर्ष के 365 दिन और 24 घंटे स्वयं को चुनावी मोड में रखती हो, वह केवल प्रयोग के लिए प्रयोग नहीं कर सकती। निश्चित रूप से इसके पीछे गहन विमर्श और दूरगामी सोच होगी। जब मध्य प्रदेश में भाजपा ने 39 उम्मीदवारों की दूसरी सूची में तीन केंद्रीय मंत्रियों और सात सांसदों तथा एक राष्ट्रीय महासचिव को उतारा, तो उसका सरल विश्लेषण किया गया। कहा गया कि प्रदेश में भाजपा की स्थिति खराब है, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के विरुद्ध व्यापक असंतोष है और भाजपा को लग रहा है कि जीत उसके लिए मुश्किल है, इसलिए उसने सारे दांव लगा दिए हैं। वर्ष 2003 के बाद कमलनाथ सरकार के 15 महीनों को छोड़कर प्रदेश में लगातार भाजपा की सरकार है तथा उमा भारती के एक वर्ष के कार्यकाल के अलावा शिवराज सिंह मुख्यमंत्री हैं। स्वाभाविक ही सत्ता विरोधी रुझान और कुछ असंतोष होगा।

यह भी कहा गया कि छत्तीसगढ़ भाजपा में रमन सिंह के बाद ऐसा कोई चेहरा सामने नहीं आया, जिसे पार्टी भूपेश बघेल के समानांतर खड़ा करे और जनता उसे उनके कद का मान ले। राजस्थान के बारे में भी ऐसा ही कहा जा रहा है कि वसुंधरा राजे सिंधिया के अलावा राज्य स्तर का कोई चेहरा नहीं है, जिसे अशोक गहलोत की तुलना में जनता उतना ही महत्व दे। किंतु क्या इसके लिए इतनी संख्या में सांसदों और केंद्रीय नेताओं को चुनाव मैदान में उतारने की विवशता पैदा हो गई थी? चुनाव एक अहिंसक युद्ध है और उसमें जीतने के लिए आपके पास जिस रूप में भी जितने संसाधन हों, उनका उपयोग किया जाना स्वाभाविक है। इसलिए भाजपा ने इन नेताओं को उतार कर अपनी विजय सुनिश्चित करने की कोशिश की है, इसमें दो राय नहीं।

जो नेता उतारे गए हैं, वे सब अपने क्षेत्र में लोकप्रिय हैं, कई का चुनाव जीतने का रिकॉर्ड है तथा कई का संगठन में लंबा अनुभव भी है। स्थानीय जातिगत समीकरणों के अनुसार भी वे फिट बैठते हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा हिंदुत्व और हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रभाव की विचारधारा पर जिस तेजी से आगे बढ़ी है, उसकी दृष्टि से भी कई नेता खरे उतरते हैं। बावजूद इसके, इतनी संख्या में सांसदों और मंत्रियों को उतारने की आवश्यकता नहीं थी। एक दो बड़े चेहरे को लाया जा सकता था और राज्यों से नए लोकप्रिय चेहरों की तलाश कर उम्मीदवार बनाया जा सकता था। काफी संख्या में नए चेहरे भी उतारे गए हैं। वास्तव में इसके पीछे दूरगामी सोच दिखती है। पिछले नौ वर्षों में भाजपा नरेंद्र मोदी पर जरूरत से अधिक निर्भर हो गई है। जनता में उनकी लोकप्रियता है और इसका लाभ पार्टी को मिलता है।

कहा गया कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को पार्टी ने हाशिये पर धकेल दिया है और संभव है कि उनको टिकट भी न दिया जाए। लेकिन बुधनी से उन्हें उम्मीदवार घोषित किया जा चुका है। राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया लगातार चुनाव अभियान में हैं और नरेंद्र मोदी की सभा में भी उनकी उपस्थिति रही। यही स्थिति रमन सिंह की छत्तीसगढ़ में भी है। यानी किसी को हाशिये पर धकेला नहीं गया, किंतु अकेले वही चेहरा पार्टी का नहीं रहने दिया गया है। कई लोकप्रिय और प्रभावी चेहरे मैदान में हैं, जिनकी संगठन से लेकर आम जनता में भी लोकप्रियता है। सबके मन में भाव यही है कि चुनाव जीतने के बाद हममें से कोई मुख्यमंत्री हो सकता है। यानी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी नहीं है और इस कारण सरकार गठित होने पर किसी के विरुद्ध असंतोष की आशंका भी कम हो जाती है। एक मुख्यमंत्री ने अपेक्षानुरूप प्रदर्शन नहीं किया, तो दूसरे को अवसर मिल सकता है। कुल मिलाकर पार्टी एक व्यक्ति के चेहरे और उसके निर्णय पर निर्भर नहीं रहेगी।

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