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बहस के बिना संसद से कानून पारित होना असंवैधानिक?

-सनत कुमार जैन-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

संसद में इन दोनों बिना बहस के दर्जनो कानून हर सत्र में पास करा लिए जाते हैं। संसद मैं जब बिलों को पेश किया जाना होता है। उस समय सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच में ऐसा विवाद पैदा हो जाता है। जिसके कारण हो हल्ले के बीच सरकार बिल पेश करती है, आसंदी द्वारा बहुमत के आधार पर बिलों को संसद से पास कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में जहां 140 करोड़ नागरिकों के व्यापक हितों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। वहीं सरकार बिल तैयार करने के बाद संसदीय समिति और प्रवर समिति के पास बिलों को नहीं भेजती है। कई बार तो संसद में बिल पेश किए जाते हैं। कुछ ही घंटे में बिना बहस के बिल पास भी हो जाते हैं। सांसदों को पता भी नहीं होता, कि कौन सा बिल पास हो गया। जो बिल पास हुआ है उसके क्या प्रावधान थे। सरकार जल्दबाजी में तैयार किए गए कानून संसद से पास करा लेती है। इसके बाद कानून के नियमों में बार-बार बदलाव की जरूरत महसूस होती है। जीएसटी कानून में लगभग 1700 बार से ज्यादा संशोधन हो चुके हैं। जो अभी तक का एक रिकॉर्ड है। जो भी कानून पिछले वर्षों में पास हो रहे हैं। उनमें अगले सत्र से ही संशोधन आना शुरू हो जाते हैं।बहुत सारे बिल जो संसद के अधिकार क्षेत्र के होते थे। अब वह मनी बिल के रूप में पेश किये जा रहे हैं। जिसके कारण सांसदों और सँसद के अधिकार भी अप्रत्यक्ष रूप से सरकार और आसंदी ने मिलकर कम कर दिए हैं। इसकी चिंता नातो सांसदों को है, ना ही चिंता आसंदी को है। आसंदी की जिम्मेदारी है, कि वह जो भी बिल सदन में पेश हो रहे हैं। उनकी व्यापक स्तर पर सचिवालय स्तर पर जांच की जाए। सदन के अंदर सभी पक्ष के सदस्यों की राय ली जाए। उसके बाद ही कानून सदन से पास होने चाहिए। कानूनो का व्यापक असर जन सामान्य पर पड़ता है। जिसमें उनके मौलिक अधिकारों से लेकर आर्थिक एवं संपत्ति के अधिकार भी शामिल होते हैं। जल्दबाजी में सरकार द्वारा बिना बहस के जो कानून सदन से पास कराकर लागू किये जा रहे हैं। उससे आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन भी हो रहा है। इसके साथ सरकार की दखलँदाजी भी नागरिकों की निजता और उनके अधिकारों पर लगातार बढ़ती जा रही है। जिसके कारण आम जनता में भी नाराजी बढ़ रही है। मुक्त अर्थव्यवस्था की आड़ मैं ऐसे कई कानून पास किए गए हैं। जिसका असर भारत के नागरिकों पर स्पष्ट रूप से पडता हुआ दिख रहा है। टेलीकॉम कंपनियों का जीडीपी में 9 फीसदी से ज्यादा का योगदान है। कई बिल मनी बिल के रूप में पेश किया जा रहे हैं। आमजनों की निजता पर प्रभाव पड़ रहा है। आर्थिक रूप से उनके ऊपर आर्थिक भार बढ़ रहा है। सामाजिक संतुलन भी बिगड़ रहा है। सरकार कुछ ऐसे कानून भी संसद से पास कर रही है। जिसमें राज्यों की सहमति ली जाना भी जरूरी है। लेकिन बिना राज्यों की सहमति लिए केंद्र सरकार कानून बनाने लगी है। धारा 370 के मामले में जम्मू कश्मीर विधानसभा की राय लिए बिना, बहुत सारे ऐसे फैसले हुए हैं। जो संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत थे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में अभी इस पर निर्णय लेने का विकल्प खुला छोड़ दिया है। संसद में बैठकें बहुत कम हो रही हैं। पिछली सरकारों के समय कैग की रिपोर्ट और अन्य मामलों में विस्तृत चर्चा होती थी। लेकिन अब ऐसा कुछ संसद में होता नहीं है। 2G घोटाले के समय जो राजस्व केंद्र सरकार के खजाने में उस समय में आ रहा था। उस समय इंटरनेट के कनेक्शन 1.50 करोड़ थे। जो अब बढ़कर 88.01 करोड़ हो गए हैं। लेकिन सरकार का कोई राजस्व नहीं बढ़ा। 2G समय बड़े-बड़े घोटाले के आरोप लगाए गए थे।जो प्रमाणित नहीं हुए।अब 4G के इस युग में जब सरकार की आय नहीं बढ़ रही है। तो सदन में चर्चा भी नहीं हो रही है। मनी बिल भी बिना चर्चा के पास हो रहे हैं। आम नागरिकों के ऊपर तरह-तरह के टैक्स लगाए जा रहे हैं। इसके बाद भी देश की आर्थिक स्थिति ठीक होने के स्थान पर और खराब हो रही है। एक सांसद द्वारा राज्यसभा के सभापति की मिमिक्री करने पर जो बवाल मचा है। उससे भी बड़ा बवाल बहस के बिना जो कानून पारित किए जा रहे हैं, उन पर मचना चाहिए था। संख्या बल से कमजोर विपक्ष के होने से सारी संवैधानिक और संसदीय परंपराएं धूमिल होती जा रही है। इस स्थिति पर भी विचार किया जाना चाहिए।

 

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