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क्या सुपर सीएम बनना चाहते हैं सिंधिया?

-राकेश अचल-

-: ऐजेंसी/सक्षम भारत :-

केंद्रीय टेलीकॉम मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया इन दिनों फर्राटे भर रहे है। ग्वालियर-चंबल समभाग के वे पहले की तरह एक छत्र नेता बन गए हैं, क्योंकि अब क्षेत्र में उनका कोई प्रतिद्वंदी केंद्र की राजनीति में नहीं है। 2024 के आम चुनाव से पहले नरेंद्र सिंह तोमर उनके लिए एक चुनौती थे, लेकिन अब भाजपा ने उन्हें विधानसभा का चुनाव लड़वाकर उन्हें विधानसभा अध्यक्ष बना दिया है। अब मजबूरी में ग्वालियर-चंबल संभाग के भाजपा नेताओं और कार्यर्ताओं को सिंधिया के दरबार में हाजरी बजाना पड़ रही है।
केंद्रीय टेलीकॉम मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया 2020 में कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे, भाजपा में हस्माइल होते ही पार्टी है कमान ने उन्हें न केवल राज्यसभा भेजा बल्कि केंद्रीय मंत्री भी बना दिया था, लेकिन उनके सामने ग्वालियर के ही नरेंद्र सिंह तोमर थे। वे भी केंद्रीय मंत्री थे, इसलिए केंद्र में विकास का श्रेय लेने की एक अघोषित दौड़ दोनों के बीच रहती थी। पार्टी कार्यकर्ता भी दो गुटों में बंटे हुए थे। जो सामंतवाद के विरोधी थे वे नव सामंतवाद के प्रतीक बने नरेंद्र सिंह तोमर के साथ खड़े होना पसंद करते थे। लेकिन अब आम चुनाव के बाद परिदृश्य बदल गया है। अब ग्वालियर -चंबल संभाग के लिए सिंधिया सुपर सीएम की हैसियत से सियासत कर रहे हैं।
आपको याद होगा कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में इस समय मध्य प्रदेश से पांच सांसदों को केन्द्र में मंत्री बनाया गया है. इनमें शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया, डॉ. वीरेन्द्र कुमार खटीक, सावित्री ठाकुर और दुर्गादास उईके शामिल हैं। इन पांचों में ज्योतिरादित्य सिंधिया सबसे वरिष्ठ हैं। वे पहली बार 2007 में केंद्रीय मंत्री बने थे। सिंधिया के मुकाबले शिवराज सिंह का संसदीय अनुभव हालाँकि ज्यादा है किन्तु केंद्र में वे पहली बार मंत्री बने हैं। उनसे पहले डॉ वीरेंद्र कुमार खटीक मंत्री बन चुके है। सावित्री ठाकुर और दुर्गादास उइके पहली बार मंत्री बने हैं। शिवराज सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया को छोड़ बाकी के तीन केंद्रीय मंत्रियों का आभामंडल और कार्यक्षेत्र सीमित है। केंद्रीय मंत्री बनने के बाद शिवराज सिंह चौहान ने भी सिंधिया के क्षेत्र में दखल देने की हिम्मत नहीं दिखाई है।
प्रदेश में डॉ मोहन यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद से केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया अघोषित रूप से सुपर सीएम के रूप में उभरने की कोशिश कर रहे है। उनकी मार ग्वालियर -चंबल समभाग तक ही सीमित नहीं है, वे उज्जैन, इंदौर और भोपाल तक मार कर रहे हैं। मालवा, और विंध्य के जन प्रतिनिधियों को भी सिंधिया के यहां मुजरा करना पड़ रहा है क्योंकि इन क्षेत्रों से केंद्र में कोई नेता नहीं है। डॉ वीरेंद्र खटीक बुंदेलखंड से बाहर नहीं निकले। सावित्री और दुर्गादास को अभी केंद्रीय मंत्री के रूप में अपनी पहचान बनाना है। ऐसे में अकेले ज्योतिरादित्य सिंधिया है जो सबकी जरूरत भी हैं और मजबूरी भी।
हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा आगरा-ग्वालियर छह लेन के राष्ट्रिय राजमार्ग की मंजूरी का श्रेय अकेले सिंधिया ने अपने खाते में दर्ज किया है। स्थानीय तीन अन्य सांसदों की इसमें कोई भूमिका नहीं गिनाई गयी। मुमकिन है कि हो भी नहीं। मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव भी कमोवेश सिंधिया की नयी हैसियत के प्रति नतमस्तक दिखाई दे रहे हैं। सिंधिया हालाँकि गुना के सांसद हैं किन्तु वे भिंड, मुरैना और ग्वालियर के सांसद की तरह भी काम कर रहे है। विकास कार्यों से संबंधित अनेक बैठकों में स्थानीय सांसदों को आमंत्रित तक नहीं किया जाता। नौकरशाही सिंधिया के इशारे के बिना पूरे संभाग में पत्ता भी नहीं हिला सकती।
भाजपा में एक बार फिर से उभरी सिंधियाशाही का ग्वालियर -चंबल अंचल को कितना लाभ मिलेगा ये तो अभी कहना कठिन है लेकिन ग्वालियर को एक गांव से शहर बनाने में सिंधिया लगातार नाकाम रहे है। वे २००२ से सक्रिय राजनीति में हैं। केंद्रीय मंत्री भी है किन्तु वे न तो ग्वालियर में तीन दशक से लंबित रोप- वे बनने दे रहे हैं और न शहर को स्मार्ट बनने दे रहे है। स्मार्ट सिटी परियोजना का अधिकाँश पैसा जयविलास पैलेस की चार दीवारी के संधारण और महल से मांडरे की माता मंदिर तक राजपथ बनाने पर खर्च किया जा चुका है। ग्वालियर में पुनर्घनत्वीकरण की दो बड़ी परियोजनाएं बीस साल से अधूरी पड़ीं हैं। ग्वालियर प्रदेश का ऐसा अकेला शहर है जहां 500 करोड़ की लागत से सिंधिया ने हवाई अड्डा तो बनवा दिया किन्तु वे अपने शहर में नगर बस सेवा शुरू नहीं करा पाए। इसका एक मात्र कारण ये है कि वे सब कुछ शाही सोचते और करते हैं।
ग्वालियर में एलिएवटेड रोड सिंधिया की कल्पना का एक बड़ा उदाहरण है लेकिन उसकी गति भी कछुआ चाल जैसी है। ग्वालियर का स्वर्ण रेखा नाला बदहाल है। शहर में एक हजार विस्तर का अस्पताल बन गया लेकिन वहां न पर्याप्त स्टाफ है और न सुविधाएं। सिंधिया के रहते ग्वालियर में अधूरी पड़ी परियोजनाओं की लांबी फेरहिस्त है किन्तु कोई बोलने को तैयार नहीं। यहां तक कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के नाम पर तीन दशक पहले बनाया गया नया ग्वालियर साडा और ग्वालियर मेला प्राधिकरण तक बदहाल है ग्वालियर प्रदेश का अकेला ऐसा शहर है जहां कोई वाटरपार्क नहीं है। ग्वालियर के मुकाबले प्रदेश का उज्जैन शहर विकास की दौड़ में बहुत आगे निकल गया है। ग्वालियर सिंधिया के रहते अनियोजित विकास का सबसे कुरूप उदाहरण बना हुआ है। लेकिन ग्वालियर की एक ही सबसे बड़ी उपलब्धि है की उसके पास सिंधिया के रूप में एक सुपर सीएम जरूर है मध्यप्रदेश बनने के बाद से ग्वालियर का कोई विधायक सीएम नहीं बन पाया , दिग्विजय सिंह एक अपवाद हैं। लेकिन उन्होंने आजतक अपने आपको ग्वालियर-चंबल का नेता नहीं माना।

 

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